अर्थात् यदि पारा सिद्ध हो जाये, तो यह संसार रोग और दरिद्रता से मुक्त हो जायेगा।
इसी रस रत्न समुच्चय में आगे कहा गया है- मानव शरीर को जरा रोग रहित रखने में कोई भी वनस्पति या धातु समर्थ नहीं है, क्योंकि सभी वस्तुएं पानी से भीगती हैं, आग में जलती हैं और ताप से सूखती हैं, किन्तु पारद ही एकमात्र ऐसी वस्तु है, जो इन सब से अप्रभावित रहता है। पारद को कुछ विशेष प्रक्रिया से बांधकर स्थिरीकरण प्रदान किया जाता है, तो वह अमृत हो जाता है और इस प्रकार के बद्ध पारद के द्वारा असम्भव बनाने की प्रक्रिया सम्पादित हो सकती है।
और इसी बद्ध पारे के द्वारा जब भगवान गणपति का विग्रह बनाया जाता है, तो उन पारद गणपति की आराधना करने वाले साधक को विद्या, बुद्धि और समस्त सिद्धियां स्वतः ही प्राप्त होने लगती है, क्योंकि रिद्धि-सिद्धि के पति होने के साथ ही साथ मंगलमूर्ति भगवान श्री गणेश वेदविहित समस्त कर्मों में प्रथम पूज्य नित्य देवता हैं।
सनातन हिन्दू धर्म का कोई भी मांगलिक कार्य बिना भगवान गणपति की पूजा के प्रारम्भ ही नहीं होता। इतना ही नहीं, प्रत्येक देवी-देवता की आराधना-साधना करने से पूर्व भगवान गणपति से ही प्रार्थना की जाती है, कि वे मेरी साधना पूर्ण होने में सहायक बनें। इतना महत्व किसी अन्य देवी-देवता को नहीं प्राप्त है, कितना असाधारण महत्व है भगवान गणपति का हिन्दू धर्म के उपास्य देवो में।
गणेश का शब्दिक अर्थ है- गणों का स्वामी। मानव शरीर पांच कर्मेन्द्रियों, पांच ज्ञानन्द्रियों और चार अन्तः करण द्वारा संचालित होता है और इनके संचालित होने के पीछे जो शक्ति है, वह विभिन्न चौदह देवताओं की शक्ति है, जिनके मूल प्रेरणा स्त्रोत है- भगवान गणपति।
गाणपत्यर्थवशीर्ष नामक ग्रंथ के अनुसार श्री गणेश का प्रधान देव के रूप में पूजित होने का प्रमुख कारण है, शब्द ब्रह्म ओऽम का प्रतीक होना। जिस प्रकार किसी भी श्लोक या मंत्र के उच्चारण के पूर्व ऊँ का गुंजरण करना अनिवार्य है, उसी प्रकार भगवान गणपति का प्रथमतः पूजन होना अनिवार्य है। भगवान गणपति का स्वरूप अत्यन्त मनोहर एवं मंगलप्रद है। वे एकदन्त और चतुर्भज हैं। वे अपने चारो हाथों में पाश, वीणा, धान्य मंजरी और वर मुद्रा धारण किये हुए हैं। वे रक्त वर्ण हैं, लम्बोदर हैं, शूर्पकण तथा रक्त वस्त्रधारी हैं। रक्त चन्दन के द्वारा उनके समस्त अंग अनुलेपित हैं। उनकी पूजा रक्त पुष्पों द्वारा होती है। वे अपने साधकों पर कृपा करने के लिए साकार रूप में उपस्थित होते हैं। भक्तों की कामना पूर्ण करने के लिए ज्योतिर्मय जगत के कारण तथा प्रकृति और पुरुष से परे होकर वे आविर्भूत हुए हैं।
भगवान गणपति अपने साधक के लिए कल्पवृक्ष के समान फलप्रदायक हैं, उनकी साधना करने वाले साधक को समस्त भौतिक सुख, सम्पत्ति, समस्त नौ निधियां प्राप्त होती है। गणपति विद्या के आगर हैं, अतः वे अपने साधक को कुशाग्र बुद्धि प्रदान करते हैं और इसके साथ ही साथ ओंकारवत होने के कारण अपने साधक को आध्यात्मिक रूप से भी परिपूर्ण करते हैं।
भगवान गणपति के बारह नाम अत्यन्त प्रसिद्ध हैं, इन नामों का पाठ तथा श्रवण करने से विद्यारम्भ, विवाह, गृह प्रवेश, नगर प्रवेश अथवा गृह नगर से निर्गम, किसी भी संकट का निवारण होता ही है। इनके बारह नाम अनन्त नामों में से अति प्रमुख हैं- सुमुख, एकदन्ता, कपिल, गजकर्णक, लम्बोदर, विकट विघ्ननाशक, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचन्द्र तथा गजानन, इनके स्मरण मात्र से व्यक्ति के समस्त दुखों का नाश होता है।
भगवान गणपति जो मात्र नाम उच्चारण करने पर ही साधक पर कृपा कर, उसके समस्त विघ्नों का नाश कर, उसके जीवन में सफलता का मार्ग प्रशस्त करते हैं, ऐसे श्री गणपति की आराधना साधना को यदि विशिष्ट क्रम से प्राण-प्रतिष्ठित पारद गणपति के श्री विग्रह पर सम्पन्न किया जाये, तो उससे प्राप्त होने वाले फल की तो गणना करना ही सम्भव नहीं है।
मोदक प्रिय भगवान श्री गणेश के कर्म अद्भुत और आलौकिक होते हैं, इनकी साधना से, नाम स्मरण से, ध्यान, जप और आराधना से मेधा शक्ति का परिष्कार होता है, समस्त कामनाओं की पूर्ति होती है और समस्त विघ्नों एवं दुख का विनाश होकर परम कल्याण होता है।
साधक के मन की जो भी इच्छा हो, इस साधना को सम्पन्न करने पर निश्चित रूप से पूर्ण होती ही है। जब आपके व्यापार में घाटा होने लगे, जब लक्ष्मी आप से रूठने लगे, आपका व्यापार और कारोबार बन्द होने के कगार पर आ गया हो, शरीर रोगों से त्रस्त हो गया हो, निरन्तर परीक्षा में असफलता प्राप्त हो रही हो, पढ़ाई में मन नहीं लगता हो, अर्थात् जीवन के किसी भी क्षेत्र में मिल रही असफलता की समाप्ति के लिए यह साधना रामबाण है। भगवान गणेश के इन्हीं कारणों से तो विघ्नहर्ता कहा जाता है।
प्रथम पूज्य भगवान गणपति की साधना करना अत्यधिक सरल है, इनकी साधना कोई भी व्यक्ति, नर-नारी, बालक-बालिका हो, सम्पन्न कर सकता है। इनकी साधना में कोई विशेष विधि-विधान की आवश्यकता नहीं होती है, आवश्यकता है, तो केवल शुद्ध भाव की, श्रद्धा की।
सामग्री- पारद गणपति, श्रीफल, विनायक माला।
दिवस- गणेश चतुर्थी या किसी भी बुधवार को।
दिशा- पूर्व या उत्तर।
प्रातः काल 6 बजे से 8 बजे के मध्य स्नानादि से निवृत्त होकर अपने साधना स्थल को स्वच्छ करें। स्वयं पीला वस्त्र पहिनें तथा पीले आसन पर बैठ कर ही इस साधना को सम्पन्न करें। पवित्रीकरण और न्यासादि दैनिक साधना विधि के अनुसार सम्पन्न करें। अपने सामने किसी ताम्र पात्र में हल्दी से स्वस्तिक अंकित कर, उस पर पारद गणपति की स्थापना कर कुंकुम, अक्षत व लाल पुष्प से संक्षिप्त पूजन सम्पन्न करें।
दाहिने हाथ में जल लेकर संकल्प लें तथा अपनी इच्छा, जिसकी पूर्ति के लिए आप यह साधना सम्पन्न कर रहे हैं, उसका उच्चारण कर पूर्ण होने की प्रार्थना करें और जल को जमीन पर छोड़ दें तथा हाथ जोड़ कर भगवान गणपति का निम्न प्रकार से ध्यान करें-
अर्थात् भगवान गणपति जिन्होंने अपने दाहिने हाथ में वीणा, कल्पलता, पाश तथा वरद धारण कर रखा है और बाएं हाथ में रत्न कलश अंकुश, कमल, धान्य मंजरी तथा अभय धारण किए हुए हैं, उनका सिंह सदृश्य मुख शुण्ड से सुशोभित हैं, शंख और चन्द्रमा के समान उनका वर्ण गौर है, उनके वस्त्र विभिन्न दिव्य रत्नों से सुसज्जित है, ऐसे शुभ स्वरूप वाले भगवान श्री गणेश मेरी समस्त बाधाओं का विनाश कर समस्त विपदाओं से मेरी रक्षा करें।
इसके बाद श्रीफल पर कुंकुम लगाकर उसे भगवान गणपति के सम्मुख अर्पित करें और विनायक माला से निम्न मंत्र का तीन माला मंत्र जप सम्पन्न करें-
पारद गणपति को पूजा स्थान में रखें। विनायक माला और श्रीफल को नदी, तालाब या कुंए में विसर्जित कर दें।
इस प्रकार यह साधना सम्पन्न करने वाले साधक पर भगवान गणपति प्रसन्न होकर उसकी मनोवांछित कामना को अवश्य ही पूर्ण करते हैं।
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