हमारे सिर के मध्य भाग में सहस्त्रार चक्र विद्यमान है। जिसे परम ब्रह्म की स्थिति कहा जाता है। कुण्डिलिनी तंत्र में ऊर्जा शक्ति को नीचे से ऊपर की अग्रसर कर सहस्त्रार चक्र से संयोजन करने की क्रिया बतायी गयी है, माना जाता है कि ऊर्जा शक्ति और सहस्त्रार चक्र के संयोजन से पूर्ण ब्रह्म की प्राप्ति होती है। इस स्थान को परम स्थिति की संज्ञा दी गई है, यह मानव शरीर का केन्द्र बिन्दु है, इसीलिए इस स्थान को सभी दुष्प्रभावों से सुरक्षित रखने के लिए सिर ढ़कने की परम्परा का निर्वाह आध्यात्मिक भाव से किया जाता है। सिर का मध्य भाग ढ़के होने से एकाग्रता में वृद्धि होती है, क्योंकि उस समय किसी तरह का दुष्प्रभाव ब्रह्मरंध्र के द्वारा शरीर के भीतर प्रवेश नहीं कर पाता है।
इसी कारण से हिन्दू परम्परा में स्त्री के लिए दुपट्टा या पल्लू से सिर ढ़कना और पुरुष के लिए साफा, पगड़ी आदि के माध्यम से सिर ढ़कना आवश्यक किया गया था। धीरे-धीरे यह परम्परा वरिष्ठ जनों और ईश्वर को सम्मान देने की प्रक्रिया बन गई। इसलिए पूजा, साधना के समय सिर ढ़क लेना चाहिए इससे ईश्वर के प्रति सम्मान और समर्पण की अभिव्यक्ति होती है।
सिक्ख धर्म में ऐसी मान्यता है कि शरीर के दस द्वारों में सबसे महत्वपूर्ण सिर का मध्य भाग परमात्मा के साक्षात्कार का मूल भाग है। इस द्वार का सम्बन्ध सीधे मन से होता, जिससे मनुष्य वाहेगुरु स्वरूप ईश्वर की चेतना का ध्यान सरलता से लगा पाता है, इसलिए मन को नियंत्रित करने के लिए दशम द्वार अर्थात सिर का मध्य भाग ढंक कर रखना अति आवश्यक है जिससे मन कहीं अन्यत्र ना भटके और परमात्मा से एकाग्र होने का भाव चिंतन प्राप्त होता रहे।
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