देवी भागवत व पुराण ग्रन्थों में वर्णन है कि लंका विजय से पूर्व भगवान राम ने शक्ति साधना सम्पन्न की थी और आद्या शक्ति जगदम्बा ने स्वयं प्रकट होकर राम को विजयी होने का आशीर्वाद दिया था। भले ही आसुरी तत्वों ने सीता रूप में शक्ति का हरण कर लिया था परन्तु वे शक्ति पर अपना आधिपत्य नहीं स्थापित कर पायें थे और यदि आसुरी तत्वों का नारायणी शक्ति पर आधिपत्य हो जाता तो संसार में और अधिक आतंक, अन्याय और उपद्रव की स्थितियां व्याप्त हो जातीं और आसुरी तत्वों की विजय धर्म पराजय के रूप में लिखी जाती।
परन्तु मातृ शक्ति सीता लंका में रहकर भी मर्यादा पुरुषोत्तम में ही लीन रही, उनकी श्रीराम के प्रति सतीत्व भाव अविचल रूप से बनी रही। साथ ही सीता को मुक्त करने के लिये भगवान राम का लंका अभियान शक्ति आराधना-उपासना के रूप में परिभाषित हुआ। भगवान राम का विजय और शक्ति साधना पूरी होने की तिथि एक ही है अर्थात् राम जन्मोत्सव और दुर्गति नाशक महानवमी का परस्पर मिलन और सामंजस्य ही पुरुषोत्तम चेतना का द्योतक है।
राम कथा प्रसंग में वर्णन है कि मेघनाद और रावण ने भी उन्हीं दिनों शक्ति की साधना की थी, जिन दिनों राम ने शक्ति साधना सम्पन्न की। रावण के पास राम से कहीं अधिक व श्रेष्ठ साधन व सुविधायें उपलब्ध थीं और वह श्रद्धा, भक्ति, समर्पण, विश्वास की दृष्टि से भी राम के सम्मुख 19 नहीं था। पुराणों में उल्लेख है कि साधना, पूजा, यज्ञ के पश्चात् राम के सामने शक्ति प्रकट हुई और रावण को भी दर्शन दिये अर्थात् दोनों ही पक्षों की साधना, आराधना सफल हुई, लेकिन विजयश्री प्रभु राम को ही प्राप्त हुई। साधन और श्रद्धा में न्यून ना होने पर भी रावण को पराजित होना पड़ा, क्योंकि रावण के पास धर्म की मर्यादा नहीं थी और राम धर्म तथा मर्यादा के अनुरुप क्रियाशील रहे।
इस दृष्टि से शक्तिमय होना श्रेष्ठ स्थिति नहीं है बल्कि शक्तिमय होकर शक्ति का सही दिशा में उपयोग करना श्रेष्ठता का परिचय है और पूर्णता का मार्ग है। दुर्गा गौरी गायत्री, लक्ष्मी और शक्ति के अनन्त स्वरूप के बारे में ऋषियों ने लाखों शब्द लिखे और कहे सबका सार तत्व एक ही है कि शक्ति का मर्यादित उपयोग ही सफलता की उच्चतम स्थिति तक पहुंचाता है। मर्यादा का उल्लंघन अथवा शक्ति का दुरुपयोग होते ही विध्वंस की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।
ईश्वर के अनेक अवतारो में केवल श्रीराम ही एकमात्र ऐसे देव हैं जिनके लिये शक्ति, विजय, मर्यादा, कीर्ति और पुरुषोत्तम चेतना का उल्लेख होता है। क्योंकि उनका सम्पूर्ण जीवन मनुष्य के विकास की पराकाष्ठा का सर्वोत्तम स्वरूप है, वे मर्यादित भी हैं और वे पुरुषोत्तम भी हैं। शस्त्र और शास्त्र दोनों ही उनके हाथ में शोभनीय है। धर्म को शस्त्र और शास्त्र दोनों के उपयोग से चरितार्थ करने की मर्यादा स्थापित करने के लिए परशुराम अवतरित हुये थे, परन्तु राम के अवतार लेने के पश्चात् उन्हें अपना होना आवश्यक नहीं लगा और परशुराम ने अपनी ज्योति को मर्यादा पुरुषोत्तम की ज्योति में समाहित कर दी।
आज के वातावरण में ऐसी ही स्थिति है कि सभी में कोटि गुणा कर्म शक्ति व्याप्त है। ईश्वर ने सभी को समर्थ व सक्षम बनाया है, लेकिन अधिकतर लोग अपने जीवन में अपने सामर्थ्य का सही उपयोग उचित दिशा में नहीं कर पाते, यही कारण है कि जीवन में विजयश्री की स्थितियों की प्राप्ति प्रायः नहीं हो पाती और लोग हताश व निराश हो जाते हैं।
इसलिये शक्तिमय होने के साथ ही मर्यादित व पुरुषोत्तममय चेतना से आपूरित होना अति आवश्यक है तब ही व्यक्ति पूर्णरूपेण विजयश्री का वरण कर पाता है। जिस भी साधक में पुरुषोत्तममय शक्ति का विकास हो जाता है, वह संसाधन व अन्य अभावों में भी अपनी विजय सुनिश्चित करने में सफल होता है। वह जीवन की समस्याओं में विचलित नहीं होता, बल्कि विपरीत परिस्थितियों में कर्मशक्ति से युक्त होकर विजयश्री प्राप्त करता ही है।
इस साधना द्वारा साधक में ऐसी चेतना शक्ति का विकास व वृद्धि होती है, जिससे वह स्वयं के जीवन का पालन-पोषण व अपने परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति भलीभांति कर पाता है। साथ ही समाज, परिवार में मान-सम्मान, प्रतिष्ठा से युक्त होता है। उसके व्यक्तित्व में अभूतपूर्व तेज व्याप्त होने लगता है, वह तेज, बल, ओज, वीर्य, शक्ति, कीर्ति, पूर्ण पुरुषार्थ से जीवन के सभी सुखों को भोगने का अधिकार प्राप्त कर लेता है।
पूर्ण पुरूषत्व का तात्पर्य है- पौरूष सम्बन्धी किसी अक्षमता से पीडि़त ना हो, चाहे वह सम्भोग में पूर्ण सुख का अनुभव ना कर पाता हो अथवा अद्वितीय पराक्रम एवं प्रखरता में कमी, इस कला से पूर्ण व्यक्तित्व कहीं भी, किसी भी क्षेत्र में अपने प्रतिद्वन्द्वियों से भयभीत नहीं होता, वह सदैव निडर एवं बलशाली बना रहता है। जितने भी संसार में उदात्त गुण होते है, सभी कुछ उस व्यक्ति में समाहित होते हैं, जैसे-दया, दृढ़ता, प्रगाढ़ता, ओज, बल, तेजस्विता इत्यादि। इन्हीं गुणों के कारण वह सारे समाज में श्रेष्ठतम व अद्वितीय माना जाता है।
मनुष्य जीवन के दो पहलू हैं- भौतिक और आध्यात्मिक, और जब व्यक्ति इन दोनों क्षेत्रों में इस पूर्ण पौरूष साधना को सिद्ध कर पूर्णता प्राप्त कर लेता है, तब वह जीवन की जो उच्चता है, श्रेष्ठता है, सर्वोच्चता है, उसकी प्राप्ति के साथ जीवन के सभी आयामों को स्पर्श कर उसे पूर्ण पौरूष बना देती है। वह जो चाहे, जब चाहे, जहां चाहे अपने मनोनुकूल कार्य कर सकता है या करवा सकता है, फिर वह असम्भव कार्यों को करने में भी सक्षम एवं सामर्थ्यवान हो जाता है।
14 अप्रैल राम नवमी या किसी भी रविवार की रात्रि 9 बजे के पश्चात् शुद्ध पीले वस्त्र धारण कर पीले चावल की ढे़री पर क्रिया योग यंत्र व पुरुषोत्तम जीवट का संक्षिप्त पूजन सम्पन्न कर निम्न मंत्र की 5 माला मंत्र जप विजय शक्ति माला से करें।
साधना समाप्ति के उपरांत सभी सामग्री को किसी पवित्र जलाशय या नदी में 11 बार गुरु मंत्र जप कर विसर्जित कर दें।
शक्ति सम्पन्न होने के साथ ही साधक में पुरुषोत्तम चेतना का होना आवश्यक है तब ही वह अपनी ऊर्जा का सही उपयोग श्रेष्ठमय स्थितियों को आत्मसात करने में कर पाता है, पुरुषोत्तम चेतना का तात्पर्य है मर्यादित रूप से अपनी कर्म शक्ति द्वारा जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करना है।
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