शरीर तो नाशवान है ही, कुछ वर्षों बाद किसी ना किसी दिन, इसे समाप्त होना ही है। इसीलिये शारीरिक सुखों की प्राप्ति के साथ-साथ अपने आत्मिक सुख व साधनात्मक श्रेष्ठता पर भी ध्यान केन्द्रित करना चाहिये। अति शारीरिक सुख का परिणाम दुःखद होता है। हमें जितना शारीरिक सुख प्राप्त होगा कालान्तर में उसके प्रभाव से उसी मात्रा में या अधिक दुख भी प्राप्त हो सकता है। इसलिये हमें आत्म सुख प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये जो साधनात्मक क्रियाओं द्वारा ही संभव है।
जीवन में सभी क्रियायें शरीर और आत्मा के लिये ही होती हैं। क्योंकि मनुष्य भौतिकतावादी संसार में शारीरिक सुख को सबसे अधिक प्राथमिकता देता है। विरले चैतन्य, जाग्रत साधक ही आत्मिक सुख की कामना रखते हैं और यह शरीर कभी भी सुखों से तृप्त नहीं होता, यह शरीर का अपना ही नियम है, शरीर एक सुख के बाद दूसरे सुख की अपेक्षा करता है और यही अपेक्षा दुःखों का मूल कारण है। इसीलिए जीवन में निरन्तर दुःखों का आगमन होता रहता है। यदि मनुष्य आत्म सुख की प्राप्ति की कामना से युक्त हो जाये, तो उसके जीवन के अधिकांश दुःखों का अन्त हो जाता है।
पंच महाभूतों से निर्मित पंच कर्मेन्द्रियां युक्त मानव देह स्थूल तत्वों में रस लेता है और हमारे पंच इन्द्रियां ही हमें प्रत्येक तत्व का आभास कराती हैं अर्थात् हम संसार की प्रत्येक वस्तु को इन्द्रियों के माध्यम से अनुभव करते हैं। ये इंद्रिया जो दिखाती हैं, हम वही देख पाते हैं। ये पंच इंद्रियां जो दिखाती हैं, वह सत्य ही हो यह आवश्यक नहीं, इसलिये शास्त्रें में गंभीर रूप से इंद्रियो को वश में करने से ही जीवन में सर्वश्रेष्ठता व उच्चता प्राप्त हो पाती है।
यदि इन पंच महाभूत तत्वों से निर्मित पंच इन्द्रियों के रहस्य से मनुष्य परिचित हो जाये तो वह अपनी पांचों इन्द्रियों पर संयम करने में समर्थ हो जाता है। विराग भाव में दिनचर्या का अभ्यास करने से धीरे-धीरे देह भाव अर्थात् पंच इन्द्रियों पर नियंत्रण किया जा सकता है और जब इन पर नियंत्रण हो जाता है, तब आत्मिक शक्ति (प्राण शक्ति) जाग्रत होती है और जब साधक आत्मिक भाव से क्रिया करता है, तो उसका सर्वोत्तम सुफल उसे प्राप्त होता ही है।
वेदों में वर्णित है कि- आत्मा चेतना भी है और चेतन भी है। आत्मा में शरीर के समान किसी भी तरह का कोई परिवर्तन नहीं होता। उपनिषदों में कहा गया है- आत्मा अति सूक्ष्म और अदृश्य है। इस पर जीवन द्वारा किये गये पाप-पुण्य अर्थात कर्मों के लेखे-जोखे का आवरण चढ़ा है, जो आने वाले शरीर को प्रारब्ध स्वरूप में प्राप्त होता है। आत्मा को सत् कहा गया है, जो सत्य और अपरिवर्तनीय है। शरीर को असत् कहा गया है जो वास्तव में सत्य नहीं है। वस्तुतः शरीर भौतिक है, जिसका कोई स्थायित्व नहीं है। यह समय-समय पर जन्म-मरण से बंधा है।
इसीलिये शास्त्रों ने मनुष्य को देह भाव से आत्म भाव में प्रविष्ट होने का मार्ग बताया है। छठी इन्द्रिय की चेतना भी इससे परे नहीं है, यह भी आत्मभाव की गूढ़तम क्रिया है, जब साधक, शिष्य देह भाव से आत्म भाव में प्रविष्ट होते हैं, तब उनकी चेतना विस्तृत स्वरूप धारण करने की ओर अग्रसर होती है और यही चेतना छठी इन्द्रिय की उच्चतम चेतना को जाग्रत व चैतन्य भाव प्रदान करती है।
इसलिये प्रत्येक साधक से उपनिषद वाणी के इस लेख के माध्यम से मैं अनुरोध करता हूं कि आप निरन्तर स्वयं के द्वारा यह प्रयास करें, कि आपको गंगोत्री-बद्रीनाथ यात्रा महोत्सव के दिव्यतम व सर्वोत्तम चेतना को जाग्रत बनायें रखने के लिये निरन्तर साधना, जप, तप की क्रियायें सम्पन्न करनी है और छठी इन्द्रिय मंत्र का निश्चित मात्रा में निरन्तर जप करते रहना है। साथ ही प्राप्त अन्य मंत्रों का भी समय-समय जप करते रहें, जिससे आपकी चेतना का सुविस्तार होता रहे और आपने इस महान-महान यात्रा में जो सुभावना प्राप्त की, जिस सुचेतना से आपूरित हुये उसका पूर्ण-पूर्ण लाभ जीवन भर सुक्रियाओं से युक्त रहे।
सद्गुरु नारायण व माँ भगवती आपके जीवन को और अधिक जाज्वल्यमान बनाये और आपकी चेतना का विस्तार हो सके आप पूर्णता तक की यात्रा सम्पन्न कर सके ऐसी ही कामना आप सभी के लिये व्यक्त करता हूं————कल्याण हो——-!!!!
यह सम्पूर्ण जीवन ही अपने आप में एक यात्रा है और मार्ग में अनेक छोटे-बड़े पड़ाव है, जहां पर आप थोड़ी देर के लिये रूकते हैं और पुनः आगे की ओर प्रस्थान करने लगते हैं और हमें यह भान होता है कि अभी अभी हम पहुंचे ही थे कि जाने का समय आ गया और आपको जाना ही पड़ता है आप स्वः इच्छा से रूक भी नहीं सकते क्योंकि सृष्टि निरन्तर गतिशील है इसीलिये चलते रहना——निरन्तर चलते रहना—-इसी का नाम जीवन है— इसी में ही जीवन—- है—-!!
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