भगवान गणपति का स्वरूप अत्यन्त मनोहर एवं मंगलप्रद है। वे एकदन्त और चतुर्भज हैं। वे अपने चारो हाथों में पाश, वीणा, धान्य मंजरी और वर मुद्रा धारण किये हुए हैं। वे रक्त वर्ण हैं, लम्बोदर हैं, शूर्पकण तथा रक्त वस्त्रधारी हैं। रक्त चन्दन के द्वारा उनके समस्त अंग अनुलेपित हैं। उनकी पूजा रक्त पुष्पों द्वारा होती है। वे अपने साधकों पर कृपा करने के लिए साकार रूप में उपस्थित होते हैं। भक्तों की कामना पूर्ण करने के लिए ज्योतिर्मय जगत के कारण तथा प्रकृति और पुरुष से परे होकर वे आविर्भूत हुए हैं।
शास्त्र अनुसार जिस स्वरूप में भी ब्रह्म व्यक्त होते हैं वे गणपति ही हैं। भगवान श्री गणपति का तत्व रहस्य अत्यन्त गूढ़ है। उच्चकोटि के साधक भगवान श्री गणपति का ध्यान व पूजन केवल उनके प्रथम पूज्य होने के कारण अथवा विघ्न विनाशक होने के कारण ही नहीं करते वरन् इससे भी अधिक उनके परब्रह्म स्वरूप होने के कारण करते हैं तथा उनके उस स्वरूप को प्रणाम करते हैं, जो अचिन्त्य ऊँकार स्वरूप है।
गणपत्यथर्वशीर्षम में कहा गया है कि- श्री गणेश वाग्ड्मय हैं, चिन्मय हैं, आनन्दमय हैं, ब्रह्ममय हैं, वे सच्चिदानंद अद्वितीय परमात्मा हैं। प्रत्यक्ष ब्रह्म और ज्ञानमय हैं- त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोसि। जिस प्रकार भागवत् गीता, वेद आदि ग्रन्थ के अध्ययन से पूर्व गणेश का स्मरण करने की परम्परा है। इसी तरह हजारों, लाखों ग्रंथ हैं, जिनमें मंगलाचरण के रूप में विनायक की वंदना की गई है। देवालयों में गर्भगृह के द्वार पर गणेश की प्रतिमा उनके प्रथम ध्यान करने और सम्मान देने का सूचक है।
प्राचीन काल में समुद्र और समुद्रतट पर चलने वाली गज हवाओं को विनायक के रूप में पूजा गया। समुद्र से यात्रा करने वाले सार्थवाह (व्यापारी) इन विनायकी हवाओं से रक्षा की कामना से श्री गणेश की स्तुति करते थे। कालांतर में शैव, शात्तफ़, वैष्णव और सौर की तरह ही गाणपत्य सम्प्रदाय के विकास के उदाहरण हैं जिनमें विनायक की उत्पत्ति की विभिन्न लीलाओं का वर्णन है।
मंत्र महोदधि में कहा गया है कि भगवान गणेश को तर्पण बहुत प्रिय है। अतः यदि विनायक के नाम से तर्पण किया जाये तो वे शीघ्र प्रसन्न होते हैं।
अर्थात् गणेश का स्वरूप शक्ति और शिवतत्व का साकार स्वरूप है और इन दोनों तत्वों का सुखद स्वरूप ही किसी कार्य में पूर्णता ला सकता है। गणेश शब्द की व्याख्या अत्यन्त महत्वपूर्ण है, गणेश का ग मन के द्वारा, बुद्धि के द्वारा ग्रहण करने योग्य, वर्णन करने योग्य सम्पूर्ण भौतिक जगत को स्पष्ट करता है और ण मन, बुद्धि और वाणी से परे ब्रह्म विद्या स्वरूप परमात्मा को स्पष्ट करता है और इन दोनों के ईश अर्थात स्वामी गणेश कहे गये हैं। उनका गजवदन एवं मूषक वाहन सूचित करता है कि इस मन को जो मूषक की भांति ही चंचल है, उस पर गज के समान गाम्भीर्य होकर ही नियंत्रण किया जा सकता है।
भगवान गणपति की विनायक स्वरूप में साधना श्रेष्ठतम साधनाओं में मानी जाती है। महर्षि विश्वामित्र, भगवद शंकराचार्य तथा गुरु गोरखनाथ ने इस साधना को जीवन के लिये पूर्ण सौभाग्यदायक बताया है।
इस साधना से जीवन के सभी अशुभताओं का निवारण संभव है, जो जीवन की प्रथम अनिवार्यता भी मानी जाती है। जो भी जीवन में निरन्तर कुलाभों से ग्रसित हों, कुलाभ का तात्पर्य है कि उचित सुकर्म करने के पश्चात् भी समुचित लाभ की प्राप्ति ना हो पाना अथवा लाभ की अपेक्षा हानि की स्थितियां निर्मित हो जाना। हमारे द्वारा जो भी कार्य सम्पन्न हों उसमें लाभ की जगह हानि की प्राप्ति होना। उनके लिये अशुभता कुलाभ निवारण विनायक साधना वरदान स्वरूप है, क्योंकि इस साधना द्वारा भगवान विनायक गणपति साधक जीवन की सभी विषम स्थितियों, न्यूनताओं का शमन कर शुभ-लाभ की चेतना से आप्लावित करते हैं। जिससे साधक ऋद्धि-सिद्धि युक्त सर्व लक्ष्मियों से युक्त होता है।
भगवान गणपति अपने साधक के लिए कल्पवृक्ष के समान फल प्रदायक हैं, उनकी साधना करने वाले साधक को समस्त भौतिक सुख, सम्पत्ति, समस्त नौ निधियां प्राप्त होती हैं। भगवान गणपति अपने साधक को कुशाग्र बुद्धि प्रदान करते हैं और इसके साथ ही ओंकारवत होने के कारण अपने साधक को आध्यात्मिक रूप से भी परिपूर्ण करते हैं।
वास्तव में यह साधना अति महत्वपूर्ण और दिव्य है। जब आपसे लक्ष्मी रूठने लगी हो, आपका व्यापार या कारोबार बन्द होने लगे, रोगों से त्रस्त होकर जीवन से आप निराश होने लगे हों या कर्ज के बोझ से दबते चले जा रहे हों या जीवन के किसी भी क्षेत्र में असफल होने लगे हों तो आपके लिये यह साधना राम बाण है। भगवान गणेश विघ्नहरण करने वाले मंगलदायक देवता है, उनके उपासक कभी भी निराश या असफल नहीं होते हैं।
जीवन में सर्वमंगलता का विस्तार केवल गणपति साधना से ही संभव है, यही कारण है श्री गणेश को मंगलमूर्ति कहा गया है जिसका तात्पर्य है जो जीवन में सर्वत्र मंगलमयता का संचार करते हैं और जहां ऐसी शुभ चेतना का संचार हो, वहीं ऋद्धि-सिद्धि शुभ-लाभमय स्थितियां निर्मित होती हैं।
गणेश चतुर्थी अथवा किसी भी बुधवार को प्रातः 6 बजे स्नानादि से निवृत्त होकर पीला वस्त्र धारण कर पीले आसन पर बैठ जायें, पवित्रीकरण, न्यास, आचमन आदि सम्पन्न कर, अपने सामने एक ताम्र पात्र में कुंकुम से स्वस्तिक अंकित कर चावल की ढे़री बनायें उसके ऊपर गणपति यंत्र स्थापित कर दें, ढ़ेरी के दोनो ओर श्रीं बीज अंकित कर दायीं तरफ शुभ व बायीं तरफ लाभ जीवट स्थापित करें। पश्चात् सद्गुरुदेव का स्मरण कर संकल्प करें पश्चात् पूजन प्रारम्भ करें-
ध्यानः भगवान गणपति का ध्यान करें-
ऊँ गणनां त्वा गणपति (गूं) हवामहे
प्रियाणां त्वा प्रियपति (गूं) हवामहे
निधिनां त्वा निधिपति (गूं) हवामहे
वसो मम् आहमजानि गर्भधमा त्वम जासि गर्भधम्
ऊँ गं गणपतये नमः ध्यानं समर्पयामि
यंत्र पर चंदन, अक्षत, धूपादि अर्पित करें-
चन्दनः ऊँ गं गणपतये चन्दनं समर्पयामि।
अक्षतः ऊँ शुभं गणपतये अक्षतानि समर्पयामि।
पुष्पः ऊँ लाभं गणपतये पुष्पाणि समर्पयामि।
दूर्वाः ऊँ रिद्धि-सिद्धि गजाननं दूर्वाकुरान् समर्पयामि।
धूपः ऊँ मंगलमूर्तये धूपं आघ्रापयामि।
दीपः ऊँ वक्रतुण्डाय गजाननं दीपं दर्शयामि।
नैवेद्यः ऊँ कार रूपाय विनायकं नैवेद्यं निवेदयामि।
जीवट पर कुंकुम, अक्षत अर्पित कर धूप, दीप दिखायें
फिर विनायक माला से निम्न मंत्र का 3 माला मंत्र जप करें-
मंत्र जप पश्चात् यंत्र व अन्य सामग्री किसी लाल कपड़े में लपेट कर तिजोरी में 27 दिन रखें पश्चात् श्री गुरुदेव से व्यक्तिगत रूप से मिलकर उनके चरणों में अर्पित कर मनोवांछित कार्य सिद्धि का आशीर्वाद आत्मसात करें।
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