संस्कृत शब्द अम्लिका से अमली या इमली नाम हिन्दी में प्रचलित हुआ है। इमली दांतों को खट्टा कर देती हैं, इसलिए इसे दन्तषठा कहा गया हैं। हमेशा हरे-भरे रहने वाले इमली के 70-80 फीट और अधिक भी ऊंचे-ऊंचे वृक्षों का भाग उपयोगी होता हैं। पत्ते-नीम की सीकों की तरह की सींकों पर इमली के पत्ते दोनों ओर समानान्तर से छोटे-छोटे, गोल-गोल 20-40 तक लगे रहते हैं। ये पत्ते चौथाई इंच तक चौडे़ होते हैं। जिनके ऊपरी हिस्सों का रंग गहरा नीला जबकि निचले हिस्सों का रंग भूरा नीला होता है। स्वाद में खट्टापन लिये कोमल पत्तों की सब्जी भी बनायी जाती है, कढी़ में भी इन्हें डाला जाता हैं।
पुष्प छोटी-छोटी पतली शाखाओं के अगले भाग पर वर्षा, शरद ऋतु में असंख्य सफेद, पीले लाल छींटेदार छोटे-छोटे फल आने लगते हैं। पुष्प धाण करने वाली 2-6 इंच लंबी नीम पुष्पों जैसी सीकें पुष्पों के भार से झुक जाती हैं। मीठी-मीठी सुगंध लिए इन फूलों की चटनी भी बनायी जाती है तथा इन्हें कढी़ में भी डाला जाता है।
यह देखा गया है कि वृक्षों के अंकुरित होने के 8 वें वर्ष में आमतौर पर फल लगने लगते हैं। फल प्रायः जुलाई-अगस्त माह में लगतें हैं, जो जनवरी से मार्च मास तक पक जाते हैं। ये फल जब तक कच्चे रहते हैं, तब तक भूरे हरे रंग की तथा बहुत खट्टी होती हैं लेकिन पकते-पकते इनका रंग बदल जाता है, अब ये लालिमा युक्त भूरे रंग की हो जाती हैं। स्वाद भी इनका मिठास लिए खट्टा होता है जो स्वादिष्ट लगता है। इन कटारों की लंबाई 3 से 8 इंच और चौड़ाई पौन इंच से सवा इंच तक होती है।
दोनों ओर चपटी ये कटारें टेड़ापन लिए होती हैं। इन कटारों का छिलका पतला और पीला होता है, जो पकने पर शीघ्र ही अलग हो जाता है। छिलका उतर जाने पर अंदर का गूदा तीन बंधनों में बंधा हुआ दिखाई देता हैं। इस गुदे के भीतर एक महीन कागज जैसा सफेद परदा होता है जिसके भीतर तीन से लेकर दस बीज तक मिलते हैं।
इमली का गुदा जैसे-जैसे पुराना होता जाता है, वह अधिक गुणकारी बनता जाता हैं। यह गुदा बरसात के मौसम में रखा रहने पर जल्दी खराब हो जाता हैं, उसमें कीडे़ लग जाते हैं। लेकिन यदि पकी इमली को छीलकर उसके बीज और रेशों को दूर करके गूदे के बडे़ लड्डू बनाकर तेल से चिकना करके बांधकर सुरक्षित रखा लिया जाये तब वे खराब नहीं होते और वर्षों तक सुरक्षित रहते हैं।
इमली के बीज आधा इंच से कुछ ज्यादा लम्बें, चौरस, गोलकार 5 इंच तक के व्यास के होते हैं। इन बीजों का रंग कालापन लिए लाल या भूरा होता है, ये चिकने, चमकदार, चपटे और सुदृढ़ होते हैं। हर बीज के बीच के हिस्से में प्रायः चंद्रिका सी बनी होती हैं। बीज एक कोने पर कुछ सिकुडा हुआ सा होता है। इसे फोड़ने पर अंदर पीलापन लिए दो सफेद दालें निकलती हैं। इन बीज से तेल भी निकाला जाता है।
यदि इमली की छाल को जलाकर भस्म बनाकर इससे तांबे के बर्तन घिसे जायें तो वे साफ होकर चमकदार बन जाते हैं। देखा गया है कि इमली के गुदे से भी तांबे के बर्तन साफ हो जाते हैं परन्तु बाद में भस्म से बर्तन में दाग नहीं पड़ते, वे चमकदार ही बने रहते हैं। यदि इस भस्म में थोडा रांगा भी मिला लिया जाये और फिर तांबे या पीतल के बर्तन साफ किये जायें तो बर्तन पर रांगा की कलई चढ़ जाती हैं।
पत्ते- इमली के पत्ते रक्त विकार, सूजन और नेत्र रोगों में उपयोगी रहते हैं। पत्तों को मसलने पर स्वरस निकलता है जो मूत्रदाह तथा गले में होने वाले टांन्सिलस और छालों में फलप्रद रहता है। कोमल पत्तों को पानी के साथ पीसकर छानकर शक्कर मिलाकर सेवन कराने से संग्रहणी में, पत्तों के साथ थोडी हल्दी मिलाकर शीतल जल में पीस-छानकर पिलाने से मसूरिका या शीतला में, ताजे पत्तो को काथ में काला नमक मिलाकर पिलाने से खांसी में, कोमल पत्तों को दही और अनार के रस के साथ पकाकर धनिया, सोठ मिलाकर बनाई सब्जी सेवन करने से बवासीर में और पत्तों के 200 ग्राम रस में 25 ग्राम सेंधा नमक मिलाकर बार-बार पिलाने से सर्प के विष में फायदा होता है।
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