जो कुछ करते हैं, गुरू करते हैं, यह सब क्रिया कलाप उन्हीं की माया का हिस्सा है, मैं तो मात्र उनका दास, एक निमित्त मात्र हूं, जो यह भाव अपने मन में रख लेता है वह शिष्यता के उच्चतम सोपानों को प्राप्त कर लेता है ।
यदि कोई मंत्र लें, साधना विधि लें, तो गुरू से ही लें, अथवा गुरूदेव रचित साहित्य से लें, अन्य किसी को भी गुरू के समान नहीं मानना चाहिए ।
सच्चा और वीर शिष्य तो इस संसार का बोझ उठाकर भी सद्गुरू की ओर प्रसन्न भाव से निहारता है ।
यथा संभव व्यर्थ की चर्चाओं में न पड़ कर गुरूदेव का ही धयान, मनन करें। दूसरों की आलोचना अथवा निंदा करने से शिष्य का जो बहुमूल्य समय, अपने कल्याण में लगना चाहिए, वह व्यर्थ हो जाता है, उसका प्रभाव उसके द्वारा की गई साधनाओं पर भी पड़ता है ।
जीवन में एक बार ही गुरू का चयन होता है, जो शिष्य बार-बार गुरू बदलता है वह निकृष्ट है और उसे अयोग्य ही कहा जा सकता है ।
बीज को बोधा नहीं होता अपनी पूर्णता का, और इसी तहर शिष्य को भी अपनी पूर्णता का भाव नहीं होता, गुरू का कार्य मात्र अपनी पूर्णता का भाव नहीं होता, गुरू का कार्य मात्र उसे पूर्णता का बोध कराना ही होता है ।
संयम, श्रद्धा, आत्मविश्वास, प्रेम, निष्ठा और समर्पण ये छः गुण जब स्थापित हो जाएं तब ही जानिए कि आप सफ़लता की सीढि़यों पर चढ़ रहे हैं । कोई आपके सफ़लता के द्वार खोल कर नहीं खड़ा है । आपको ये छः गुण अपने अंदर विकसित करने हैं ।
शिष्य के लिए गुरू से बढ़कर कोई वेद, शास्त्र या ग्रंथ नहीं है, गुरू से बढ़कर कोई देव या इष्ट नहीं हैं, गुरू ही उसके लिए सर्वस्व हैं ।
गुरू-मंत्र और गुरू-साधना का अनुष्ठान करने से हृदय शनैःशनै पावन हो जाता है, मृत्यु-भय एवं सांसारिक भय समाप्त हो जाते हैं । अतः प्रत्येक शिष्य को गुरू-मंत्र का अनुष्ठान अपने जीवन में करना चाहिए ।
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