शिष्य ऐसा हो, जो कफन बांध कर निकले, जो समाज की परवाह नहीं करे, जो चुनौतियों को झेल सके, जिसकी आंखों में तेवर हों–अग्नि स्फुर्लिंग हो, जिसके हाथों में वज्र की तरह प्रहार करने की क्षमता हो, और जो सही अर्थों में चरणों में समर्पित होने की भावना रखता हो ।
इस ढंग से कोई हीरे नहीं लुटाता, जिस ढंग से मैं ज्ञान लुटा रहा हूं। यह आपका सौभाग्य है, कि मैं आपको उस जगह तक ले जाना चाहता हूं कि पूरे विश्व में आप विजयी हों, आप सफलता युक्त बन सकें और मैं अपने शब्दों पर दृढ़ं हूं, और मैं आपको अद्वितीय बना रहा हूं ।
मैं उस प्रकार का गुरू नहीं हूं कि तुम्हें उपदेश देना चाहता हूं। मैं तो तुम्हें सही रास्तें पर अग्रसर करने की क्रिया कर रहा हूं। तुम नहीं भी चाहोगे तो भी मैं तुम्हें घसीट कर उस मार्ग पर खड़ा करूंगा ही, जिस पर अग्रसर होने पर पूर्णता प्राप्त हो सकती है।
तुम्हें कभी जिन्दगी में ठोकर लगे, मैं तो ऐसा चाहता हूं कि जल्दी ही लगे। ऐसा तुम्हें अहसास हो सके कि तुम्हारी जिन्दगी का कुछ उद्देश्य, कुछ लक्ष्य है और तुम उस उद्देश्य के पथ पर गतिशील हो सको।
जिस क्षण गुरू यह निश्चय कर लेता है कि अब मुझे इस श्ष्यि को उठाकर परम अवस्था तक पहुंचा देना है तो फिर भले ही शिष्य में कितने ही विकार हों, गुरू सीधे उसे ध्यान के महासागर में उतार देता हैः परंतु इसके लिए आवश्यक है, कि गुरू से पूर्ण प्रेम हो ।
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