जब गुरू से दीक्षा प्राप्त होती है तब व्यक्ति को ज्ञान होता है कि मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है, मेरे जीवन का कर्तव्य क्या है, उद्देश्य क्या है और मुझे किस जगह पहुंचना है।
गुरू तो शिष्य के लिये सदैव खुली बाहों से खड़ा रहता है। उसका निमंत्रण हर क्षण बना रहता है और केवल एक क्षण की आवश्यकता होती है उसकी बाहों में समाने की, उसकी आत्मा में एकाकार होने की। गुरु की ओर से कोई विलंब नहीं होता।
हमारा पूरा शरीर अपने आप में शुद्रमय है और यह शुद्रमय शरीर ब्रह्ममय शरीर बने यही जीवन का धर्म यही जीवन का लक्ष्य होना चाहिये।
अणु से विराट बनाने की क्रिया केवल गुरू जानता है, मनुष्य से देवता बनाने की क्रिया केवल गुरू जानता है, मूलाधार से सहस्रार तक पहुंचाने की विद्या केवल गुरू जानता है। इसीलिए जीवन का आधार केवल गुरू ही है।
जब गुरू शक्तिपात करता है तो अपने प्राणों को निचोड़ कर सारा सत्व शिष्य में प्रवाहित कर देता है। अगर शिष्य में समर्पण एवं विश्वास की भावना है तो गुरू अपने पास कुछ रखता ही नही, अपना सारा ज्ञान, सारी चेतना शिष्य में उडे़लने को तत्पर हो जाता है।
जो प्रश्न पुस्तक से उठेंगे उसके उत्तर पुस्तको से मिल पायेंगे। किन्तु जो प्रश्न जिन्दगी से उठेंगे उनके समाधान साधना से ही सभंव है।
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