शिष्य जब तक अपने इष्ट से, गुरू से साक्षात नहीं कर लेता, तब तक उसके अन्दर विरह की एक आग धधकती रहती है और उसका इलाज किसी वैध के पास नहीं होता। उसका इलाज तो इष्ट के पास ही होता है, प्रिय के पास ही होता है कि जब वे आयेंगे तब मैं उसमें अपने आप को समाहित कर दूँगा। जब प्रियतमा का यह भाव साधाक में आ जाता है, जब उसमें कोमलता आ जाती है।
तुम साधनाओं के अजस्त्र भण्डार से जुडे हुये हो, तुम प्राण चेतना के प्रवाह से अनुप्राणित हो, इसलिये तुम्हें समाज को परिवर्तित करना है, उनकी सड़ी गली मान्यताओं को समाप्त कर देना है।
बिना गुरू स्पंदन के तुम्हरा शरीर एक खोखला, प्राण रहित रक्त मज्जा का पिंड मात्र हैं। ऐसा शरीर जीवित तो है परन्तु उसमें आनन्द नहीं है। तुम्हारे इस दुनिया के पास आनन्द का स्त्रोत नहीं है जहाँ जाकर तुम आनन्द में डूब सकों।
आप साधाना करें, नहीं करें, आप सिद्धियाँ प्राप्त करें अथवा नहीं करें। इस बात की कोई मुझे इच्छा है ही नहीं। मुझमें ज्ञान, तेजस्विता का अंश होगा, तो आप जैसे भी हों, जिस स्थिति में भी हों आपको कंधो पर बिठाकर भी लेकर चला जाऊँगा, इस बात की गारण्टी है क्योंकि मेरे अन्दर ब्रह्मत्व है और जाग्रत अवस्था में है।
परमात्मा ने कृपा कर अवश्य ही हर व्यक्ति को कोई न कोई विशेषता, कोई न कोई गुण प्रदान किया ही है, आवश्यकता है तो उस गुण को पहचानने की और उस गुण का विकास करने की, क्योंकि एक गुण से ही और गुणों की उत्पति होती है।
वस्तुओं के त्याग में भक्ति नहीं है। वह तो व्यक्ति की बहुमुखी प्रतिभा की अभिव्यक्ति है। धर्म कभी भी मुनष्य को दैनिक कार्यों का त्याग करने को नहीं कहता, अर्थात् धर्म उसे केवल मानसिक असंतुलन, नैतिक बुराईयों तथा आत्मिक अज्ञान से छुटकरा पाने को कहता है।
आप जिस प्रकार के है उसका कारण ये है कि आप एक जैसे ही होना चाहते हैं। यदि आप वास्तव में अलग बनना चाहते हैं तो आप आज से ही परिवर्तन की क्रिया प्रारम्भ कर दिजिए।
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