जीवन का मूलभूत तात्पर्य ही विरह है और विरह के माध्यम से ही एक शिष्य पूर्ण रूप से अपने गुरू में आत्मसात हो सकता है। गुरू तक पहुँचने के लिये शिष्य के अन्दर एक वेग, एक तीव्रता होनी चाहिये, मन में एक ज्वर होना चाहिये कि उठु और गुरू में समाहित जो जाऊ।
समुद्र खुद आगे चलकर गंगोत्री के पास नहीं जायेगा कि गंगा तुम आओं मुझे मिल लो, गंगोत्री से गंगा खुद उतर कर समुद्र तक जाती है। यदि गंगा नहीं जायेगी, बीच में सूख जायेगी, तब भी समुद्र अपनी जगह को नहीं छोड़ेगा। समर्पण तो शिष्य को करना पडे़गा और गुरू के पास स्वयं को जाना पड़ेगा।
प्रत्येक युग में और प्रत्येक परिस्थिति में सिद्धाश्रम के योगी अलग-अलग नामों से, अलग-अलग रूपों में पृथ्वी तल पर अवतरित हुये हैं और आम लोगो की तरह रहकर ही उन्होंने जीवन यापन किया है, चाहे वे कृष्ण, राम या शंकराचार्य हो।
मनुष्य की दुषित प्रवृत्तिया स्वतः अपने आप में जन्म लेती है, उनको बैलेंस करने के लिये सिद्धाश्रम कुछ विशिष्ट योगियों, कुछ विशिष्ट महात्माओं को इस धरा पर भेजता है उनके बीच जो अपनी पवित्रता और दिव्यता के सन्देश के माध्यम से उन लोगों में आध्यात्मिक चेतना पैदा करते हैं।
शिष्य वही है जो भौतिकता को भोगे परन्तु अपने मूल उद्देश्य से न डगमगाये। उसकी दृष्टि हमेशा अपने लक्ष्य पर टिकी रहे।
गुरू कृपा प्राप्त होते ही शिष्य की आत्मा पूर्णरूप से ब्रह्म स्वरूप बन जाती है और उसका जीवन सार्थक एवं धन्य हो जाता है। देवता भी इस प्रकार की कृपा प्राप्ति के लिये लालायित रहते है।
गुरू का अर्थ है- अंधकार को समाप्त कर ज्ञान का दीपक प्रज्ज्वलित करना। शिष्य के अज्ञान को समाप्त करने वाला वह गुरूत्व ब्रह्म से भिन्न नहीं है।
प्रेम जीवन का अद्वितीय वरदान है और मैंने तुम्हारे होठों को गुनगुनाहट देकर तुम्हारे जीवन में वसन्त का आगमन किया है।
गुरू तो अपने आप में सजीव आशीर्वाद है जो पृथ्वी पर मानव रूप में विचार करते है क्योंकि उनके देह दिव्यात्मा है, चैतन्यता है, उन्होंने जो कुछ कहा वह काव्य हो गया जो कुछ देखा वो सौन्दर्य हो गया जो कुछ व्यक्त किया वह संगीत बन गया।
मेरी करूणा, मेरा स्नेह, मेरी आत्मीयता और मेरा प्रेम ही उत्तराधिकारिता के रूप में अपने शिष्यों को देना चाहता हूँ
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