प्रेम भगवान और भक्त का आंतरिक सम्बन्ध है, एक पूर्ण हृदय का हृदय से सम्बन्ध है, प्राणों का प्राणों से सम्बन्ध है, उसमें वासना नहीं है। गुरू या ईश्वर से एकाकार होने के लिये मन में प्रेम का बीज बोना पड़ता है।
शिष्य यदि सच्चे हृदय से पुकार करे तो ऐसा होता ही नहीं कि उसका स्वर सद्गुरू तक न पहुंचे। उसकी आवाज गुरू तक पहुंचती ही है, इसमें कभी संदेह नहीं होना चाहिये।
ध्यान लगाने से आत्मा परमात्मा में लीन नहीं हो सकती, मंत्र जप से भी ऐसा संभव नहीं, क्योंकि आत्मा का परमात्मा तक पहुंचने का जो रास्ता है वह वेदना का है, तड़फ का है, विरह का है, प्रेम के सागर में डूब जाने का है, तो ही जीवन में सब कुछ प्राप्त हो सकता है।
ज्ञान, चेतना, सुख, सौभाग्य, आनन्द, मस्ती, भौतिक सफलता हो मगर तब भी यह जरूरी नहीं है कि प्रेम प्राप्त हो।
मैं तुम्हें समुद्र में छलांग लगाने की क्रिया सिखा रहा हूं। मैं तुम्हें वह क्रिया सिखा रहा हूं कि तुम आत्म साक्षात्कार कर सको, यही प्रेम की पूर्णता है।
यदि चारों वेदों का अर्थ स्पष्ट करूं तो चारों का सारभूत तथ्य एक ही है कि जीवन का प्रारंभ प्रेम है और जीवन का अंत भी प्रेम ही है।
प्रेम की गहराई में उतरने का अपना ही एक आनन्द है, अपना ही एक अलौकिक सौन्दर्य है। ज्यों-ज्यों व्यक्ति प्रेम में डूबता है, उसके चेहरे की तेजस्विता बढ़ती जाती है।
जिस क्षण गुरू यह निश्चय कर लेता है कि अब मुझे इस शिष्य को उठाकर परम अवस्था तक पहुंचा देना है तो फिर भले ही शिष्य में कितने ही विकार हों, गुरू सीधे उसे ध्यान के महासागर में उतार देता है, परन्तु इसके लिए आवश्यक है, कि गुरू से पूर्ण प्रेम हो।
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