इसी प्रकार मंत्र भी न तो अपने तरीके से उच्चारित किये जा सकते हैं और न उन्हें सामान्य वाक्यांश ही माना जा सकता है।
मंत्र साधना का तात्पर्य मंत्रें का वाचन नहीं है। जो व्यक्ति पुस्तकों से मंत्रें का चयन करके अपना अभीष्ट पूरा करने की चेष्टा करते हैं, उन्हें यह अवश्य ज्ञात होना चाहिये, कि किसी भी मंत्र सिद्धि के दो मुख्य आधार होते हैं-
1- गुरू निर्देशन में सही मंत्र का चयन,
2- उसका स्पष्ट उच्चारण।
अन्य गौण आधार में साधक का व्यक्तित्व, विशिष्ट आसनों पर बैठकर मंत्र जप करना, प्रत्येक दिशा में आती हुई विशिष्ट ध्वनियों को ध्यान में रखते हुए साधना के समय दिशा निर्धारण करना इत्यादि।
मंत्र अपने आप में अक्षरों का गुंफन और उच्चारण का सम्यक विज्ञान है। कविता की भांति मंत्र का निर्माण भाव प्रधान या अर्थ प्रधान नहीं होता, अपितु इसका आधार अक्षरों के क्रम का एक निश्चित संयोजन है, जिससे कि उसके क्रमबद्ध उच्चारण से ऐसी विशिष्ट ध्वनि निःसृत होती है, जो अभीष्ट पूर्ति के लिये सफलता दायक हो। जिस प्रकार वीणा के तारों को एक निश्चित क्रम में छेड़ने पर ही एक विशेष राग की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार एक निश्चित लय और शब्दों से बंधे समूह को ही मंत्र कहा जा सकता है।
अब प्रश्न यह उठता है, कि मंत्रें को कैसे जपना चाहिये? इसकी दो स्थितियां हैं- 1- गोपन, 2- स्फुट। वस्तुतः परमात्मलीन अथवा वर्चस्व तेजोद्भूत के लिये मंत्र जप मन ही मन बिना प्रस्फुटन के होना चाहिये। जबकि काम्य प्रयोगार्थ मंत्रें का प्रस्फुटन आवश्यक होता है। सामान्यतः साधक कामना पूर्ति हेतु ही साधना में प्रविष्ट होते हैं। अतः उन्हें मंत्रें का स्पष्ट उच्चारण करना चाहिये, क्योंकि मंत्र का शब्द संयोजन और साधक का विधिवत् उच्चारण, दोनों मिलकर ब्रह्माण्ड में एक विचित्र प्रकार की स्वर लहरी प्रवाहित करते हैं, जिससे मंत्रनुष्ठान में निश्चित सफलता प्राप्त होती है।
यह विश्व दो रूपों में विभक्त है, जिसमें एक ग्राहक और दूसरा ग्राह्य है। जब तक इन दोनों का पूर्ण सम्पर्क नहीं हो जाता, तब तक मनोरथ सिद्धि भी संभव नहीं। ग्राहक और ग्राह्य में सम्पर्क का आधार मात्र ध्वनि ही है, जो होठों से निःसृत होकर पूरे ब्रह्माण्ड में फैल जाती है।
उदाहरण के तौर पर यदि सूर्य से सम्बन्धित किसी मंत्र के सही मंत्रेच्चारण से विशिष्ट ध्वनि कम्पन उत्पन्न होते हैं और ये कम्पन ‘ईथर’ के माध्यम से ऊपर उठते हुए क्षाणांश में ही सूर्य तक पहुँच कर वापस लौट आते हैं। लौटते समय ये ध्वनि कम्पन सूर्य की सूक्ष्म शक्ति, तेजस्विता एवं गुणवता से युक्त होते हैं, जो पुनः साधक के शरीर से टकराकर उसमें इन दिव्य गुणों के प्रभुत्व को बढ़ा देते हैं। फलस्वरूप सूर्य मंत्र की साधना से सूर्य से सम्बन्धित तेजस्विता साधक को प्राप्त हो जाती है। वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है, कि ध्वनि (जो कि ऊर्जा ही है) के माध्यम से असम्भव कार्य भी सम्पन्न किये जा सकते हैं, परन्तु यह एक विशिष्ट ध्वनि हो। प्रत्येक ध्वनि प्रत्येक कार्य के लिए उपयुक्त नहीं।
मंत्र उच्चारण से भी एक विशिष्ट ध्वनि कम्पन बनता है, जो अवश्य ही साधक की समग्र चेतना को प्रभावित करता है। मंत्र ध्वनि का कम्पन ‘ईथर’ से मिलकर सम्पूर्ण अंतरिक्ष में व्याप्त होते हुए परिस्थितियों को अनुकूल बनाता है तथा शरीर के प्रत्येक रोम, स्थूल व सूक्ष्म शरीर नाड़ी गुच्छकों तथा सूक्ष्म शरीरस्थ चक्रों पर इन मंत्र ध्वनियों का प्रभाव पड़ता है। फल स्वरूप इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना जैसी प्रमुख नाडि़यों में विद्युत प्रवाह होने से पूरा वातावरण आप्लावित हो जाता है।
यह स्पष्ट है कि शब्द या उसके अर्थ मंत्र साधना में विशेष महत्व नहीं रखते, अपितु एक विशेष लय या ध्वनि महत्वपूर्ण स्थान रखती है। किसी शब्द की मूल ध्वनि क्या है, जिससे कि इसका निश्चित और स्थाई प्रभाव पड़ सके, यह पुस्तक के निर्जीव पृष्ठ नहीं बता सकते।
इस पर गुरू आज्ञा की नितान्त अनिवार्यता है, क्योंकि वही उच्चारण करके उस मंत्र की मूल ध्वनि को समझा सकता है। इसीलिये हमारे शास्त्रें में जोर देकर कहा गया है कि गुरूमुख से उच्चारित मंत्र की ही साधना करनी चाहिये।
यहां यह प्रश्न उठता है- मंत्रें की शक्ति का स्रोत क्या है?, कहां से वे अपनी शक्ति प्राप्त करते हैं? क्या साधक से या सम्बन्धित देवी-देवताओं से या वे स्वयं ही शक्तियों को समाहित किये हुए होते हैं?
वस्तुतः जब साधक मंत्र साधना में संलग्न होता है, तो उसकी स्वयं की अन्तश्चेतना (अन्तर्मन) ही उसके लिये सर्वाधिक सहायक होती है।
जब वह विशिष्ट मंत्र साधना की अन्तश्चेतना के साथ आप्लावित होता है, तभी वह मंत्र जाग्रत व प्राणवान होकर फलदायक बनता है। अतः मंत्रें की सामर्थ्य का कोई बाह्य स्रोत नहीं है, अपितु उसके भीतर से ही आती है। व्यक्ति अपने प्रयत्नों से अपनी अन्तश्चेतना को अधिक से अधिक सक्रिय कर सकता है उसे इसके लिये सतत् अभ्यास करना भी चाहिये, क्योंकि हमारे साधना क्षेत्र की आधारभूत यह अन्तश्चेतना ही है, जिसके उत्थान से और उपयोग से हम मंत्र में चैतन्यता दे सकते हैं।
हमारे पवित्र ग्रंथों में वाक् साधना को ही आत्मविद्या का प्रधान आधार माना गया है। उसके अनुसार साधक को मन, वचन और कर्म से एक विशेष उच्च स्तर का समन्वय करना पड़ता है, जिससे कि मंत्र का प्रभाव सही रूप से और प्रभावपूर्ण ढंग से हो। मंत्र हमारे चेतन शरीर के साथ-साथ अवचेतन मन से भी सम्पर्कित रहता है, अतः मन के चक्रों से जब तक शब्द सही प्रकार से नहीं टकराते, तब तक उसका विशिष्ट प्रभाव ज्ञात नहीं होता। मंत्र विशेष शरीर के किस चक्र से टकराकर पुनः होठों से बाहर निकले, यह मंत्रें के वर्गीकरण का मूल आधार है। इसलिये वह आवश्यक है, कि शरीरस्थ चक्र विशेष से ही मंत्र की ध्वनि टकराये और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये विशेष आसनों का विधान है।
यह रहस्य की बात है, कि एक निश्चित आसन पर बैठने से एक निश्चित चक्र उत्तेजित रहता है। परन्तु जो चक्र उत्तेजित होता है, उसी से वाणी टकराकर बाहर निकलती है, जिसके परिणामस्वरूप उस मंत्र में एक विशेष प्रभाव आ जाता है। इस प्रकार की ध्वनि ही सही अर्थों में मंत्र कहलाती है और इसी ध्वनि शक्ति से चमत्कारिक घटनाये घटित होती हैं।
साधना में सफलता हेतु जहाँ एक ओर साधक का प्रखर व्यक्तित्व कार्य करता है, वहीं उसके वचन और कर्म का संयोजन भी महत्वपूर्ण होता है। साथ ही साथ मंत्र का लययुक्त सही उच्चारण, उसका आरोह-अवरोह तथा सही आसन आवश्यक है। वैज्ञानिकों के अनुसार प्रत्येक दिशा से विशिष्ट ध्वनि तरंगे प्रवाहित होती रहती है।
अतः यदि हमारी दिशा ध्वनि तरंग के अनुरूप होती है, तो मंत्र सफलता देता है, परन्तु यदि हमारी ध्वनि तरंगों में अवरोध उत्पन्न करती है, तो सही प्रभाव नहीं हो पाता। इसीलिये साधक के लिये उचित दिशा की ओर मुँह करके बैठना भी आवश्यक माना गया है।
यदि सही रूप में मंत्र साधना की जाय, तो सफलता में तनिक भी संदेह नहीं होता, परन्तु ये सारे क्रम व्यावहारिक हैं, अतः सद्गुरूदेव जी के द्वारा ही सही ज्ञान और सही उच्चारण प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार साधक मन, वचन, कर्म से एक निष्ठ होकर मंत्र साधना में प्रवृत्त हो, तो उसे निश्चय ही पूर्ण सफलता प्राप्त होती है।
सस्नेह आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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