मां कोई भी कार्य क्यों न कर रही हो, किसी भी प्रकार से व्यस्त क्यों न हो उसका सम्पूर्ण ध्यान केवल अपने बच्चे में ही लगा रहता है। हाथ कार्य में व्यस्त रहते है और आँखे उचक-उचक कर प्रतिक्षण अपने शिशु को निहारने में! बच्चे की कोई भी भाषा नहीं होती फिर भी मां उससे बात कर ही लेती है, और भाषा का ज्ञान भी तो उसे मातृ-सुख से ही होता है। इसी से ‘मातृभाषा’ की संज्ञा प्रचलित हुई। अपने मधुर, स्नेह, सिक्त चुम्बनों के माध्यम से मानो वही वाक्-शक्ति, प्राण, चैतन्यता सब कुछ अपने शिशु में प्रवाहित करती रहती है, वह केवल अपने हृदय का रक्त अपना दुग्धपान कराकर ही उसका पोषण नहीं करती और इसी से प्रत्येक जीवन में अपने मातृत्व के प्रति विशेष आग्रह, प्रेम, ललक और सम्मान होता ही है।
साधक भी यथार्थतः एक शिशु ही होता है। कोई इस शिशुत्व को सहज स्वीकार कर लेता है और किसी को आगे चलकर स्वीकार करना पड़ता है। जिसे हम अपनी साधना का बल कहते हैं वह वास्तव में क्या उसी मातृस्वरूपा भगवती जगदम्बा द्वारा दिये गये भाषा-ज्ञान के समान ही नहीं है? समस्त ज्ञान-विज्ञान, साधना और तप उसी दिव्य पुंज से ही निकलकर तो सूर्य के प्रकाश की तरह प्रत्येक व्यक्ति तक आ रहा है। जीवन की और इस युग की आपाधापी के मध्य यह बात जितनी जल्दी स्वीकार कर लें, उतना ही हितकर होगा, न केवल आध्यात्मिक रूप से वरन् भौतिक रूप से भी।
यह युग कलियुग की संज्ञा से जाना जाता है और जो प्रवृत्तियां, जैसी मानसिकता के बीच जीवन जिया जा रहा है उससे कोई भी अपरिचित नहीं। हम आपको कलियुग के दोष और सदाचार या नैतिकता की दुहाई देने अथवा नाम जपने की शिक्षा देने की अहंमन्यता करने के इच्छुक नहीं, क्योंकि ऐसा करने से आपकी समस्या हल नहीं होने वाली। यह अवश्य हो सकता है कि कुछ क्षणों के लिये कि एक मीठी गुदगुदी भरा स्वप्निल जगत सामने तैर जाये और फिर वही नित्य की आपाधापी।
सही अर्थों में यह तंत्र का एक माह ही नहीं, सम्पूर्ण रूप से तंत्र का युग है। कलियुग पर अर्थात् ‘कलि’ पर नियंत्रण करने का रहस्य भक्ति, आराधना या निरन्तर तोते की तरह दोहराये जा रहे धार्मिक प्रवचनों में नहीं, अपितु साधनाओं में छुपा है और वह भी तांत्रोक्त साधनाओं में। साक्षात् मां भगवती जगदम्बा द्वारा उद्भूत ज्ञान की सत्यता में। ‘कलि’ पर केवल ‘काली’ ही विजय प्राप्त करने में सक्षम है और काली का तात्पर्य ही तांत्रोक्त साधना है। मां भगवती जगदम्बा के मूल स्वरूप महाकाली के साधना के विधान तो अथ से इति तक केवल तांत्रोक्त ही हैं, कोई भी साधना ग्रंथ उठाकर देखा जा सकता है। इन्हीं महाकाली की सर्व सौभाग्यदायक साधना प्राचीन काल से ही ललिताम्बा साधना के नाम से विख्यात रही। ललिताम्बा कोई पृथक महादेवी नहीं, वास्तव में महाकाली का ही एक विशेषण है, महाकाली की तेजस्वी व सौन्दर्यमय स्वरूप का ही नाम ललिता है-
ललिता ही सम्पूर्ण तंत्र शास्त्र की मूल देवी एवं आराध्या मानी गई है और यह विद्या इतनी अधिक तीव्र, गोपनीय और दुर्लभ मानी गई है इसको गुरू पुत्र तक को भी बताना निषिद्ध कर दिया गया। इसी से यह विद्या या साधना लुप्त एवं अप्रचलित हो गई। ललिता देवी के नाम से शक्तिपीठ अवश्य विद्यमान हैं लेकिन ललिता साधना सर्व साधारण के बीच में रहस्यमय ही बनी रही। इसका कारण मात्र इतना ही था कि इसकी जो साधना विधि उपलब्ध थी वह इतनी अधिक तीव्र थी की सामान्य साधक उनकी तेजस्विता सहन ही नहीं कर सकता था। प्राचीन काल में जब शिष्य, गुरू के सामीप्य में रहते थे तब सेवा के मध्य गुरू धीमे-धीमे शक्तिपात करते हुये उसे इस योग्य बना देते थे कि वह कालान्तर में ललिता के मूल रहस्य एवं साधना को आत्मसात् कर सके।
नीचे विभिन्न ग्रंथों में इस साधना के बारे में जो कुछ लिखा गया है, उसे स्पष्ट किया गया है-
गोरख संहिता में बताया गया है, कि ललिताम्बा साधना अत्यन्त गोपनीय है, इस साधना को भूल कर भी अपने पुत्र या शिष्य को नहीं देना चाहिये।
शंकर भाष्य में कहा गया है, कि ललिताम्बा साधना सिद्ध करने के बाद साधक पूरे संसार में विजयी होता है और ललिताम्बा यंत्र को धारण करने के बाद वह जिस व्यक्ति से भी मिलता है, उसको प्रभावित करता है और उस पर विजय प्राप्त करता है।
तंत्रसार में बताया गया है कि सौभाग्यशाली साधक ही ललिताम्बा यंत्र को प्राप्त कर सकते हैं, इसे सिद्ध करने पर उसके शत्रु स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं और जीवन में उसे किसी भी प्रकार का कोई भय नहीं रहता।
रसतंत्र में बताया है कि ललिताम्बा साधना एक प्रकार की कायाकल्प साधना भी है इसके मंत्र जप से नपुंसक व्यक्ति भी पूर्ण यौवनमय एंव कामदेव के समान सौन्दर्यवान बन जाता है। यह साधना बुढ़ापे को समाप्त कर पुनः यौवन प्रदान करने में समर्थ है।
मंत्र विज्ञान ग्रंथ में स्पष्ट रूप से कहा गया है, कि एक तो ललिताम्बा यंत्र और उससे सम्बन्धित मंत्र गोपनीय और सर्वथा दुर्लभ है। पर यदि किसी को यह प्राप्त हो जाये, तो उसे ‘शून्य सिद्धि’ स्वतः प्राप्त हो जाती है और साधना सिद्धि होने पर वह वायु में से कोई भी पदार्थ प्राप्त करने में सफल हो जाता है और ऐसा व्यक्ति सिद्ध योगी कहलाता है।
विश्वामित्र संहिता में ललिताम्बा साधना की प्रशंसा करते हुये बताया है कि गुरू अपनी तेजस्विता से ललिताम्बा यंत्र को सिद्ध कर शिष्य को प्रदान करें और जब शिष्य ऐसा यंत्र धारण कर साधना सम्पन्न करता है, तो उसका तृतीय नेत्र स्वतः ही स्पन्दित हो जाता है।
व्यास समुच्चय ग्रंथ में बताया गया है, कि हजार काम छोड़ करके भी साधक को यह साधना सम्पन्न कर लेनी चाहिये, क्योंकि अन्य साधनायें तो फिर भी प्राप्त हो सकती है, पर यह साधना तो कई-कई जन्मों के पुण्यों से ही प्राप्त हो सकती है।
इस दिशा में सिद्धाश्रम स्थित योगिराज गुणातीतानन्द जी का आभार मानना चाहिये, जिन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को केवल ललिता साधना में ही संलग्न कर एक ऐसी पद्धति खोज निकाली जो एक गृहस्थ द्वारा भी उतनी ही सहजता से अपनाई जा सकती है, जिस प्रकार के सभी मनोवांछित कार्य महाकाली की ललिता स्वरूप में समाहित तीक्ष्ण शक्ति से सम्पन्न किये जा सकते हैं।
स्वामी गुणातीतानन्द जी ने अपनी साधना में यह अनुभव किया कि यदि एक विशेष प्रकार का यंत्र रचित कर उसमें ललिता की शक्तियों को विभाजित कर उनकी पृथक-पृथक स्थापना की जाये और फिर सम्बन्धित विशेष ललिता मंत्र का जप किया जाये तो सामान्य साधक को भी कोई दुष्प्रभाव नहीं देखना पड़ता और शक्ति इस प्रकार विभाजित होकर धीरे-धीरे साधक के शरीर में समाहित होती हुई उसे प्रत्येक दृष्टि से परिपूर्ण कर देती है।
योगीराज गुणातीतानन्द जी ने इस विशिष्ट ललिता यंत्र की संज्ञा रत्नोल्लसत् महायंत्र की थी तथा ललिता की आठ पीठ शक्तियों प्रभा, माया, जया, सूक्ष्मा, विशुद्धा, नंदिनी, सुप्रभा एवं विजया का अंकन बीज रूप में तांत्रोक्त पद्धति द्वारा किया, जिससे यह यंत्र पूर्ण फलप्रद बन जाये। इन आठ पीठ शक्तियों में रक्षात्मक, धनदायक, रोगनिवारक, शत्रु निवारक जैसी शक्तियां आठ रूपों में विभाजित हैं। इस यंत्र की स्थापना मात्र ही अपने आप में दुर्गति का विनाश करने वाली कही गई है।
इस साधना के लिये किसी भी दिवस का कोई बन्धन नहीं है और न ही ऐसा कोई विशेष नियम है कि साधक दिन अथवा रात्रि में साधना सम्पन्न करें।
जिस प्रकार से एक बालक कष्ट में होने पर कभी भी अपनी मां को पुकार सकता है, यह साधना भी ठीक ऐसी ही पुकार है। वस्त्र या तो पीले हों अथवा लाल। पीले वस्त्र पहन कर साधक पूर्वाभिमुख होकर बैठें और विशेष प्रभाव के लिये लाल वस्त्र धारण कर दक्षिण दिशा की ओर मुख करके बैठें।
इस साधना में इस विशिष्ट ललिता महायंत्र का पूजन देवी की प्रत्येक शक्ति का ध्यान करते हुये और उसे अपने अंदर समाहित करने की प्रबल भावना रखते हुये गन्धाष्टक की आठ बिन्दियों द्वारा ही करनी है, अन्य कोई विधान आवश्यक नहीं है क्योंकि यह यंत्र ही अपने-आप में पूर्ण चैतन्य और फलप्रद है।
साधक को चाहिये कि वह श्री सुंदरी माला के द्वारा मूल मंत्र की एक माला मंत्र-जप करे। वह मंत्र जो कि केवल इस विशेष महायंत्र से ही सम्बन्धित है, इस प्रकार है-
यद्यपि मूल प्रयोग तो एक दिन का ही है फिर भी साधक को चाहिये आगे भी नित्य कम से कम पांच बार मंत्र-जप उच्चारण करता रहे, जिससे ललिताम्बा देवी की समस्त शक्तियां उसे निरन्तर प्राप्त होती रहे अन्यथा प्रतिदिन इस यंत्र का दर्शन एवं सम्बन्धित पूजन तो करे ही। किसी विशेष कार्य पर जाते समय इस यंत्र को पीले कपड़े में लपेट कर अपने साथ रखा जा सकता है। इससे आकस्मिक विपत्तियों आदि से साधक भय रहित हो सकता है।
साधना सिद्ध होने के बाद जो इस प्रयोग से लाभ बताये गये हैं, वे स्वतः प्राप्त होने लगते हैं और साधक कुछ ही दिनों में सिद्ध योगी बनने की क्षमता प्राप्त कर लेता है।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,