शिष्य की व्यक्तिगत कोई इच्छा या आकांक्षा नहीं होती, जब वह मुक्त गुरू के सामने होता है, तब सरल बालक की तरह ही होता है, गुरू के सामने तो शिष्य कच्ची मिट्टी के लौंदे की तरह होता है, उस समय उसका स्वयं का कोई आकार नहीं होता, ऐसी स्थिति होने पर ही वह सही अर्थों में शिष्य बनने का अधिकारी हो सकता है। इसलिये शिष्य को चाहिये कि वह जब गुरू के सामने उपस्थित हो, तब वह सारी उपाधियों और विशेषताओं को परे रखकर उपस्थित हो, ऐसा होने पर ही परस्पर पूर्ण तादात्म्य संभव है।
शिष्य आधारभूत रूप से भावना प्रधान होना चाहिये, तर्क प्रधान नहीं, क्योंकि तर्क ही आगे चलकर कुतर्क का रूप धारण कर लेता है, आपने अपने जीवन में अपने से ज्यादा उन्हें महत्व दिया है, इसलिये गुरू को भावना से ही प्राप्त किया जा सकता है।
यदि गुरू कोई आज्ञा देता है, तो उसमें क्यों और कैसे विशेषण लगते ही नहीं है, उनकी आज्ञा जीवन की सर्वोपरिता है, और उस आज्ञा का पालन करना ही शिष्य का प्रधान और एक मात्र धर्म है, यदि आपमें क्यों और कैसे विचार विद्यमान हैं, तो आपको चाहिये कि आप किसी को गुरू बनावें ही नहीं। और जब एक बार आपने किसी को गुरू बना दिया, तो कम से कम संसार में उसके सामने तो क्यों और कैसे विशेषण आने ही नहीं चाहिये ऐसे होने पर ही पारस्परिक संयोग- सम्बन्ध और एकाकार होना सम्भव है।
शिष्य परीक्षक नहीं होता, उसे यह अधिकार नही है, कि वह गुरू की परीक्षा ले, यह कार्य तो गुरू बनाने से पहले किया जा सकता है, आप जिस व्यक्तित्व को गुरू बना रहे हैं, उसके बारे में भली प्रकार से जांच लें, विचार कर लें उसके व्यक्तित्व को परख लें और जब आप सभी तरीके से सन्तुष्ट हो जाये, तभी आप उसे गुरू बनावे, पर एक बार जब उसे गुरू बना दिया, तब फिर परीक्षा लेने की स्थिति नहीं आती, न अपनी तुलना गुरू से की जा सकती है, न एक गुरू की तुलना दूसरे गुरू से की जा सकती है, गुरू की आज्ञा में किसी प्रकार की हिचक या व्यवधान समर्पण की भावना में न्यूनता ही देता है।
शिष्य का अर्थ निकटता होता है, और वह जितना ही गुरू के निकट रहता है, उतना ही प्राप्त कर सकता है, आप अपने शरीर से गुरू के चरणों में उपस्थित रह सकते हैं। गुरू से बराबर सम्बन्ध बनाये रखना और गुरू के साथ अपने को एकाकार कर लेना ही शिष्यता है।
गुरू आज्ञा ही सर्वोपरि है, जब आप शिष्य हैं तो यह आपका धर्म है, कि आप गुरू की आज्ञा का पालन करें, गुरू की आज्ञा में कोई न कोई विशेषता अवश्य छिपी रहती है।
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