जो व्यक्ति असली शिष्य बनना चाहता है उसको सेवा भाव से परिपूर्ण होना चाहिये।
उसके मन में मानवीय मूल्य पूर्णरूप से विद्यमान हो। उसमें असीम धैर्य होना चाहिये ताकि वह गुरू द्वारा ली गई परीक्षाओं में पूरा उतर सकें।
अगर शिष्य सेवा करता है और बहुत समय बीतने पर भी गुरू उससे एक भी शब्द न कहे और न ही उसे साधनाओं का ज्ञान प्रदान करें और फिर भी शिष्य अपनी सेवा या भावना में किसी प्रकार की न्यूनता न आने दे तो समझना चाहिये वह शिष्य बनने के लायक है।
अगर गुरू कोई ऐसा कार्य दे जो कि उसके बस की बात नहीं है लेकिन फिर भी वह पूरे मन से उसमें जुट जाता है तो समझना चाहिये उसमें गुरू के प्रति आस्था है।
परिश्रम की भावना शिष्य का मूल गुण है। वह केवल प्रदर्शन न करें, अपितु मन से कार्य समपन्न करें जो गुरू ने उसे सौंपा है।
कई बार शिष्य गुरू के समक्ष कोई बाधा प्रकट करे और वह फलीभूत न हो या फलीभूत होने में अधिक समय लग रहा हो और फिर भी शिष्य के मन में कोई विपरित विचार न आये तो समझे की शिष्य पूर्णतः समर्पित है।
शिष्य को आगे बैठकर गुरू का कार्य सम्पन्न करना चाहिये और गुरू को विश्वास दिलाना चाहिये कि वह ही इस कार्य के लिये सर्वथा योग्य है।
शिष्य के जीवन में धैर्य और विश्वास का सबसे अधिक महत्त्व है। समय उसके लिये कोई महत्त्वपूर्ण नहीं। उसे चाहिये कि वह आवश्यकता पड़े तो पूरा जीवन गुरू चरणों में समर्पित कर दें।
गुरू के प्रति शिष्य की आस्था पूर्णता बलवान हो। किसी भी स्थिति में, किसी भी समय उसकी आस्था में कमी न आने पायें।
जीवन में एक बार ही गुरू का चयन होता है जो शिष्य बार-बार गुरू बदलता है वह निकृष्ट है और उसे अयोग्य ही कहा जा सकता है।
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