भौतिक जगत का पथ फूलों की बगिया नहीं होती, यह तो कांटों की पगडण्डी है। हर समय मनुष्य अपने जीवन में मानसिक, शारीरिक तथा आर्थिक कष्ट के निवारण के लिये तत्पर रहता ही है। परन्तु न तो उसे कोई सफलता मिलती है और न ही कोई सकारात्मक परिणाम। वह हर क्षण बैचेन रहता है, जिसे पाने के लिये वह व्याकुल और अतृप्त रहता है।
क्या सांसारिक मनुष्य उस जड़ वृक्ष से भी गया-गुजरा होता है जो हर वर्ष वंसत में अपना नूतन श्रृंगार कर लेता है? एक प्रकार से हर वर्ष ही अपना कायाकल्प करता रहता है वह प्रकृति स्वयं एक पाठशाला होती है, लेकिन उस पाठशाला में जाकर जीवन के पाठों को बुद्धि से नहीं, हृदय से पढ़ा जा सकता है। जो पढ़ लेता है फिर वही अपने जीवन को संवारने व सफलता प्राप्त करने की दृष्टि से सम्पन्न कर पाते हैं।
संसार में आज अधिकांश आबादी युवा वर्ग की है। जिनका मूल चिन्तन शिक्षा, नौकरी, कार्य-व्यापार, विवाह, सौन्दर्यता, चिरयौवन, मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य का विकास की ओर होता है। जिसकी प्राप्ति के लिये उन्हें नियमित रूप से अनेकों प्रकार के प्रयास करते हुये, नित्य चुनौतियों व बाधाओं से संघर्ष करना पड़ता है। इसके पश्चात् भी सफलता नहीं मिलती और वे पीछे ही रह जाते हैं। जिसका मूल कारण बाहरी सौन्दर्य के साथ आन्तरिक गुणों की न्यूनता होती है। जिसकी प्राप्ति केवल दैविक कृपा से ही संभव है।
इस बोझिल, सुप्त रोग, अज्ञानता, संशय युक्त जीवन को पुनः आनन्द, जोश, ऊर्जा, आत्मविश्वास, मधुरता, यौवन व सौन्दर्यता के गुणों से सींचने का सुश्रेष्ठ पर्व वंसत पंचमी है। मेधा सरस्वती अनंग दीक्षा आत्मसात करने पर दैवी सरस्वती द्वारा ज्ञान-बुद्धि-मेधा चेतना की वृद्धि से परीक्षा में उत्तीर्ण, प्रतियोगिता में सफलता, रचनात्मक कलाओं में वृद्धि, आध्यात्मिक वृद्धि प्राप्त कर पाते हैं। साथ ही अनंग शक्ति द्वारा मनोवांछित सौन्दर्य, चिरयौवनता, तीक्ष्ण धारदार सौन्दर्य, गौर वर्ण एवं, दाम्पत्य सुख की प्राप्ति संभव होती है। ज्ञान बुद्धि की चेतना से ही व्यक्ति अपने जीवन के हर क्षेत्र में पूर्णता प्राप्त कर पाता है।
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