मैं तुम्हें इसी जीवन में ब्रह्मत्व तक पहुँचा दूँगा, यह मेरी गारण्टी है, पर गारण्टी तब हो सकती है जब तुम अपने आप को मिटा सको, जब तुम अपने आपको पूर्णता से समाप्त कर सको।
जिसमें समुद्र में छलांग लगाने की हिम्मत है, वह मोती प्राप्त कर सकता है और जो समुद्र के किनारे बैठा रहता है, जो छलांग लगाने की सोचता ही रहता है, लेकिन छलांग लगा नहीं पाता, बार-बार गुरू उकसावे भी, तब भी एक कदम चले और बैठ जाय, बार-बार याद आये कि मेरे पीछे समाज है, पुत्र है, बन्धु है, बान्धव है, वे क्या सोचेंगे? क्या सोचेंगे? क्या होगा? वह व्यक्ति समुद्र में छलांग नहीं लगा सकता।
अगर तुम जीवन में आनन्द प्राप्त करना चाहते हो, तो समर्पित होने की क्रिया सीखनी पडे़गी, अपने प्राणों को गुरू के प्राणों में समावेश करने की क्रिया सीखनी ही पडे़गी, अपने आप को भुलाना पडे़गा।
तुम्हें बिल्कुल खाली पात्र की तरह मेरे पास आना है, खाली कागज की तरह मेरे पास आना है, जिसमें मैं पूर्णत्व लिख संकूगा, मैं उस पर ब्रह्मत्व लिख संकूगा। मैं तुम्हें बता सकूंगा, कि जीवन की पूर्णता क्या है? जीवन का आनन्द क्या है? जीवन की सर्वोच्चता क्या है? श्रेष्ठता क्या है?
गुरू तो तुम्हें कहीं भी भगवा कपड़ों में मिल जायेंगे, मगर सद्गुरू न कोई भगवे कपड़े पहिनता है, न कोई चालाकी करता है, उनकी वाणी में ओज होता है, एक सत्यता होती है, एक दृढ़ता होती है, वह ठोकर भी मार सकता है, वह तुम्हें चेतना युक्त भी बना सकता है, यदि तुम तैयार हो तो,
मंत्रो के माध्यम से उस देवी सहायता को प्राप्त करना, जिसके माध्यम से हम जीवन में पूर्णता प्राप्त कर सकें, उसको साधना कहते हैं। साधना के लिये यह आवश्यक है, कि हम उन देवताओं से परिचित हो……. और यह परिचय मात्र और केवल मात्र सद्गुरू ही करवा सकते हैं।
पूर्णता तो तब सम्भव होती है, जब शिष्य गुरू के चरणों में सिर रखकर आंसुओं से उनके चरणों को धोए, अपने को पूर्ण विसर्जित करे, उसका हृदय गद्गद् हो जाये, गला भर जाये, और रूंधे हुए गले से जो कुछ शब्द निकले, तो ‘गुरूदेव’ शब्द ही निकले।
समर्पण हाथ जोड़ने से नहीं हो सकता और न ही गुरू की आरती उतारने से आ सकता है। समर्पण का तात्पर्य है, कि गुरू जो आज्ञा दे, उसका बिना नानूच किये पालन किया जाये।
शिष्य तो वह है, जिसकी हर समय मन में यही इच्छा हो, कि मैं गुरू के पास दौड़कर पहुँच जाऊं… हो सकता है कोई मजबूरी हो, नहीं आ सके, यह अलग चीज है, मगर मन में उत्कण्ठा हो, तीव्र इच्छा हो, छटपटाहट बनी रहे कि हर हालत में गुरू के पास पहुंचना है।
गुरू से प्राणगत सम्बन्ध होने चाहिए, देहगत नहीं यदि गुरू की तबीयत ठीक नहीं है और आपका मन बड़ा बैचेन होता हो, ऐसा लगे कि कुछ खाली सा है, मालूम नहीं होता हो कि यदि वेदना क्यों है, यह छटपटाहट क्यों है, किस कारण से है….. यही तो प्राणगत से है…. यही तो प्राणगत और आत्मा के सम्बन्ध होते हैं।
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