प्राचीन काल से लेकर वर्तमान समय तक शक्ति की महत्ता से संबंधित अनेक उपासनाएं और साधनाएं प्राप्त होती रही है। प्राचीन शास्त्रों में, उपनिषदों में जहां मुख्य विवेच्य विषय ब्रह्म रहा वहां भी स्पष्ट घोषित किया गया कि जिस प्रकार से ईश्वर का अंश-सत् एवं चित् इस ब्रह्माण्ड के कण-कण में व्याप्त है, उसी प्रकार शक्ति अर्थात् देवी का ‘‘आनन्द अंश’’ भी सर्वत्र व्याप्त है एवं इसी कारणवश व्यक्ति अपने जीवन के विविध क्रिया कलापों में सुख एवं तृप्ति की अनुभूति करता है। इस वर्णन से सहज ही ज्ञात हो जाता है कि जहां जीवन में सुख एवं आनन्द की तृप्ति का अनुभव करना है, वहां देवी की आराधना करनी ही होंगी। उनके द्वारा प्रदत्त शक्ति से आपूरित होना ही होगा, अन्यथा जीवन में किसी सुख की बात करना भी दूर, सामान्य क्रियाशील की अपेक्षा करना भी संभव नहीं।
मनुष्य के जीवन में भौतिक कामनाएं मूल-भूत रूप से बहुत अधिक नहीं होती है। मूलभूत आवश्यकताएं तो कुछ एक ही होती है, किन्तु उनके अभावों में विविध समस्याएं और बाधाएं आकर खड़ी हो जाती है। योग्य साधक जीवन की मूल-भूत आवश्यकताओं को समझ कर उनका समाधान कर लेता है और विविध कष्टों से स्वयं को निरापद बना लेता है, जबकि एक सामान्य व्यक्ति जीवन की विविध बाधाओं में घिर कर ऐसा समझने लगता है कि उसके साथ अनन्त कठिनाइयां चल रही है। जीवन की मूल-भूत आवश्यकताएं तो उंगलियों पर गिनी जा सकती है, स्वस्थ शरीर होना, पर्याप्त धन होना, शत्रु बाधा न होना, राज्य कष्ट न होना, सुयोग्य पत्नी होना, श्रेष्ठ संतान होना और इन सबसे ऊपर जीवन में धार्मिक चिंतन एवं मोक्ष प्राप्ति की दशाएं होना, जीवन के यही सात सुख मुख्य माने गये है और जीवन के नितांत भौतिक पक्ष से आरम्भ कर, उसे सर्वोच्च लक्ष्य मुक्ति तक पहुँचा देने की निर्विघ्न यात्रा, केवल शक्ति के साहचर्य से संभव होती है। यही जीवन की पूर्ण यात्रा है और शक्ति अथवा देवी इस सम्पूर्ण यात्रा में केवल एक सहायक तत्व ही नहीं है वरन नितांत आवश्यक तत्व है ।
जैसा कि प्रारम्भ में स्पष्ट किया गया है कि शक्ति अपने प्रभावों में तीन प्रकार से उत्पन्न हो सकती है, प्रभाव, उत्साह एवं मंत्र से उत्पन्न। जीवन में शक्तिमयता की दशा, देवी की अहेतु की कृपा से भी उत्पन्न हो सकती है, भक्ति और भावविह्लवता की निश्छल दशा आ जाने पर मन में होने वाले आनन्द के स्फुरण से उत्पन्न उत्साह के द्वारा भी हो सकती है, अथवा सामान्य दशाओं में श्रेष्ठ साधक इसे साधना के द्वारा मंत्रोच्चर की विशिष्ट पद्धति को अपना कर भी प्राप्त कर सकते है। शक्ति प्राप्ति की तृतीय स्थिति मंत्रोच्चार अथवा मंत्र के द्वारा उत्पन्न शक्ति ही जीवन में प्राप्ति की ऐसी दशा है जो कि निश्चित एवं तुरंत फलदायक है। यही व्यवहारिक मार्ग है, जिसे एक गृहस्थ साधक अपने जीवन में उतार सकता है।
शक्ति साधना का उपाय देवी साधना ही है और वह भी तब सफलता दायक है, जबकि उसके निश्चित क्रम और पद्धति का अनुसरण किया जाए। प्राचीन काल में जबकि विशिष्ट योगीजन पारद के माध्यम से स्वर्ण निर्माण करने की ओर गतिशील थे तब उन्होंने एक विशिष्ट तथ्य यह भी पाया कि यदि तंत्र का एवं पारद का संयोग कर दिया जाता है, तो उसी तांत्रोक्त क्रिया में पहले की अपेक्षा प्रभाव कई गुना अधिक बढ़ जाते है। जहां तंत्र पद्धतियों में पारद विज्ञान का प्रवेश हुआ, वहां तंत्र की मूल आराध्या शक्ति भगवती दुर्गा से इसका संबंध होना स्वाभाविक ही था। ऐसे ही एक गोपनीय पद्धति है ‘पारदेश्वरी दुर्गा साधना पद्धति’ जिससे पारद की दुर्गा का निर्माण कर, साधना सम्पन्न की जाती है। पारदेश्वरी दुर्गा का निर्माण अत्यंत कठिन है क्योंकि पारद का बद्धिकरण दुरह होने के साथ-साथ मूर्ति का निर्माण केवल एक आकार ही देने की प्रक्रिया मात्र ही नहीं होती। किसी भी मूर्ति का निर्माण करते समय कुछ गुह्य क्रियाओं, एवं प्राण प्रतिष्ठा की, तो साधारण मूर्ति में भी आवश्यकता पड़ती है, फिर जहां किसी विशिष्ट धातु से मूर्ति का निर्माण किया गया हो, वहां तो प्रक्रियाएं भी विशिष्ट होती है। पारद विज्ञान से संबंधित ग्रंथ अधिकतर हस्तलिखित ही रहे और गुरू अपने किसी एक शिष्य को ही परम्परा से सौंपते रहे। पारद तो एक ऐसी धातु है, जो संस्कारित होने के पश्चात् अनेक शास्त्रोक्त नियमों और बंधनों सें मुक्त होती है, और जिससे निर्मित विग्रह या की जाने वाली साधना सदैव फलदायक होती है।
किन्तु पारद से संबंधित ज्ञान केवल परंपरा से ही ज्ञेय है और उसका पूर्ण व विस्तृत विवरण इन पन्नों के माध्यम से स्पष्ट नहीं किया जा सकता।
किसी भी पवित्र दिवस को जब मन में उत्साह हो, माँ भगवती दुर्गा के सुखद स्पर्श की कामना और उनके आशीर्वाद प्राप्ति की भावना मन में बलवती हो, मन में दिव्य तरंगों का आवागमन हो तथा जीवन की आपाधापी से कुछ क्षण परे हटकर माँ भगवती के चरणों में शिशुवत बैठने की भावना उमड़े, तब इस साधना को सम्पन्न करें। पीले रंग के वस्त्र धारण कर पीले ही आसन पर बैठें दिशा पूर्व हो और एक चौकी पर पीला वस्त्र बिछाकर किसी ताम्रपात्र में पुष्प की कुछ पंखुडियां बिछा कर मां भगवती दुर्गा के पारदेश्वरी विग्रह को सम्मान पूर्वक स्थापित करें। घी का दीपक जलायें और प्रार्थना करें- ‘माँ भगवती जगदम्बा इस विग्रह के माध्यम से आप मेरे घर और जीवन में स्थायित्व ग्रहण करें।’’ सुपारी, अक्षत पुष्प, सिन्दुर, कुंकुंम, लौंग एवं इलायची से उनका पूजन करें और प्रार्थना कर निम्न ध्यान का उच्चारण करें-
अर्थात् ‘जिनका वर्ण अग्नि के समान है जो स्वयं ही प्रकाशवान है और अपनी तपः शक्ति के द्वारा जाज्वल्यमान हो रही है, जो इस लोक और परलोक की पूर्णता प्रदान करने के लिए साधकों के आहावान पर उपस्थित होती है, मैं उन्हीं देवी दुर्गा की शरण ग्रहण करता हूँ, हे माँ! तुम संसार सागर को पार करने के लिए श्रेष्ठ सेतु हो, तुम्हीं मुक्ति प्रदान करने वाली हो, मैं तुम्हें ही प्रणाम करता हूँ।’’
उपरोक्त ढंग से ध्यान करने के उपरांत ‘कामदा माला’ से निम्न पारदेश्वरी दुर्गा मंत्र का जप करें।
यह माला अपने आप में इस प्रकार से चैतन्य की गयी होती है कि इसका उपयोग भविष्य में किसी भी शक्ति साधना अथवा महाविद्या साधना में कर सकते है, साथ ही ऐसी माला को निरंतर गले में धारण करना भी साधक के जीवन का पुण्य होता है, जिसके स्पर्श से उसके अंदर निरंतर ऊर्जा का अतिरिक्त प्रवाह होता रहता है।
इस माला से निम्न मंत्र का 21 माला मंत्र जप करें। इसमें दिवसों की संख्या निर्धारित नहीं है और यदि साधक इस मंत्र का नित्य प्रति 21 माला मंत्र जप करे, तो श्रेष्ठ माना गया है, अन्यथा प्रति सप्ताह एक दिन निश्चित कर इस मंत्र की 21 माला का जप अवश्य करें।
उपरोक्त् मंत्र की पूर्ण सिद्धि सवा लाख मंत्र जप करने से प्राप्त होती है यदि साधक नवरात्रि में केवल उपरोक्त मंत्र का अनुष्ठान मात्र कर लें तो उसे दुर्गा सिद्धि के साथ-साथ माँ भगवती महालक्ष्मी की भी पूर्ण सिद्धि मिल जाती है क्योंकि संस्कारित पारद से निर्मित विग्रह अपने आप में लक्ष्मी तत्व का समावेश भी किए होता है।
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