‘हरी रूठे गुरू ठौर है गुरू रूठे नहीं ठौर’ इस बात को ध्यान में रखके शिष्य के मात्र प्रयत्न गुरू को सुखी एवं प्रसन्न करने का होना चाहिए।
जो गुरू कहे वह करे, जो गुरू करे उस ओर ध्यान न दे, क्योंकि वे किसी क्षण क्या करते है यह अगर शिष्य समझ ही जाय तो वह स्वयं ‘गुरू’ बन जाता।
शिष्य के लिए गुरू ही माता, पिता, बंधु और सखा होते है, अतैव उसे अपनी समस्त चेतना गुरू चरणों में ही लगाए रखनी चाहिए।
शिष्य वह है जो नित्य गुरू मंत्र का जाप उठते, बैठते, सोते, जागते करता रहता है।
शिष्य को गुरू के सोने के बाद ही सोना चाहिए और गुरू के उठने से पहले ही शय्या का त्याग कर देना चाहिए।
चाहे कितना ही कठिन एवं असम्भव काम क्यों न सौंपा जाए शिष्य का मात्र कर्त्तव्य बिना किसी नानुकर के उस काम में लग जाना है।
गुरू शिष्य की बाधाओं को अपने ऊपर ले लेते है, अतैव यह शिष्य का भी धर्म है कि वह अपने गुरू की चिंताओं एवं परेशानियों को हटाने के लिए प्राणपण से जुटा रहे।
शिष्य का मात्र एक ही लक्ष्य होता है और वह है अपने हृदय में स्थायी रूप से गुरू को स्थापित करना। और फिर ऐसा ही सौभाग्यशाली शिष्य आगे चलकर गुरू के हृदय में स्थायी रूप से स्थापित हो पाता है।
जब होठों से गुरू शब्द उच्चारण होते ही गला अवरूद्ध हो जाए और आँखे छलछला उठे तो समझें कि शिष्यता का पहला कदम उठ गया है।
और जब 24 घण्टे गुरू का एहसास हो, खाना खाते, उठते, बैठते, हँसते, गाते अन्य क्रियाकलाप करते हुए ऐसा लगे कि वे ही है मैं नहीं हूँ, तो समझे की आप शिष्य कहलाने योग्य हुए हैं।
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