जो कुलीन हो, सदाचारी हो, सिद्धि के लिए तत्पर हो, वेदपाठी हो, चतुर हो और कामवासना से रहित हो, जो प्राणियों का हित ही चाहता हो, आस्तिक हो, नास्तिकों का साथ छोड़ चुका हो, अपने धर्म से प्रेम रखता हो, भक्तिभाव से माता-पिता के हित में संलग्न हो, कर्म, मन, वाणी और धन से गुरूसेवा करने के लिए लालायित रहता हो, गुरूजनों के सामने जाति, विद्या, धन आदि का अभिमान न रखता हो, गुरू की आज्ञा-पालन के लिए मृत्यु तक के लिये तैयार हो, अपने काम छोड़कर भी गुरू सेवा में लगा रहने वाला हो, जो गुरू के पास दास की भांति निवास करता हो, शिशु के समान आज्ञा पालन करता हो, वही शिष्य रूप में स्वीकार करने योग्य है, दूसरा नहीं। जो मंत्र और पूजा रहस्यों को गुप्त रखता है, त्रिकाल नमस्कार करता है और शास्त्रीय आचार के तत्वों को जानता है वही शिष्यरूप में स्वीकार करने योग्य है, दूसरा नहीं। जो इन गुणों से युक्त होता है, वही शिष्य होता है।
जीवन में तीन दुःख प्रधान होते हैं – 1. बीमारी, 2. वाद-विवाद, मुकदमा, और 3. ऋण । उनमें यदि आपके पास तीसरा दुःख ऋण अर्थात् लक्ष्मी की कमी नहीं है तो आप बीमारी की बाधा को पार कर सकते हैं, मुकदमे, वाद-विवाद, लड़ाई-झगड़े के कुचक्र से निकल सकते हैं, लेकिन यदि धन का ऋण है तो ये तीनों दोष वृद्धि करते हैं।
जितनी बड़ी बीमारी होती है उसके लिये यह आवश्यक नहीं कि उसका इलाज भी उतना ही बड़ा हो, कई बार बड़ी-बड़ी औषधियां काम नहीं करती, वही साधरण सी औषधि से रोग जड़ से समाप्त हो जाता है।
ऋण की माता का नाम है निर्धनता और निर्धनता को नष्ट कर देने वाली देवी है लक्ष्मी और जब तक साधक लक्ष्मी की विशेष साधना नहीं करता तब तक उसे ऋण से मुक्ति नहीं मिल सकती और जिस दिन साधक यह संकल्प कर ले कि मैं इस निर्धनता के नाश के लिए कृत संकल्पित हूँ, क्रियाशील हूँ, परिश्रम के लिए तैयार हूँ लक्ष्मी की आराधना के लिए, लक्ष्मी के सम्मान के लिए तत्पर हूँ, तभी वह अपने जीवन में दोष से मुक्त हो सकता है।
लक्ष्मी उपासना में ऋण दोष को दूर करने के लिये विभिन्न प्रकार के प्रयोग वेदोक्त ग्रंथो में दिये गये हैं। विश्वामित्र संहिता में भी एक अत्यन्त श्रेष्ठ प्रयोग दिया गया है और इसके अतिरिक्त साबर साधनाओं में भी ऋण-निवारण प्रयोग हैं, लेकिन व्यक्ति जब तक अपने जीवन में माता-पिता की सेवा और गुरू सेवा और इसके साथ इन दोनों के प्रति अपने ऋण के महत्व को नहीं समझेगा, तब तक उसे धन ऋण से पूर्ण मुक्ति नहीं मिल सकती।
विश्वामित्र ने जब अपना राजपाट छोड़ संन्यास धारण कर लिया तो उन्होंने देखा कि निर्धनता के कारण व्यक्ति का जीवन कष्टमय हो जाता है और वह संसार के कुचक्र में ही फंसा रहता है। इसलिये उन्होंने ज्येष्ठा लक्ष्मी साधना की रचना की। इस प्रयोग को जो साधक सात दिन तक सम्पन्न करता है और उसके उपरान्त ज्येष्ठा लक्ष्मी मंत्र का प्रतिदिन जप करते हुए एक लाख मंत्र जप सम्पन्न कर देता है तो उसे किसी न किसी माध्यम से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है और वह अपना ऋण उतारने में समर्थ होता है।
इस साधना में मुख्य रूप से मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठा युक्त ‘ऐश्वर्य लक्ष्मी यंत्र’, ‘9 लक्ष्मी सिद्धि श्रीफल’ तथा ‘ज्येष्ठा लक्ष्मी माला’ आवश्यक है। ये फल ज्येष्ठा लक्ष्मी की शक्तियों के स्वरूप हैं और इनका पूजन अवश्य करना चाहिये।
विनियोग
ऊँ अस्य श्री ज्येष्ठा लक्ष्मी मंत्रस्य ब्रह्माऋषिः अनुष्टुप्छंदः।
ज्येष्ठालक्ष्मी देवता ह्रीं बीजम्।
श्रीं शक्तिः ममाभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः।
अब ज्येष्ठा लक्ष्मी का ध्यान कर उस यंत्र को ताम्र के पात्र में पुष्प का आसन देकर स्थापित करें-
ऊँ रक्त ज्येष्ठायै विद्महे नील ज्येष्ठायै
धीमहि तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्।
अब हाथ में सुगन्धित पुष्प लेकर यंत्र में ज्येष्ठा लक्ष्मी की भावना रखते हुए निम्न मंत्र पढ़ें-
ऊँ संविनमये परे देवि परामृत रस प्रिये।
अनज्ञां देहि ज्येष्ठायै परिवारार्चनाय मे।
अब नौ श्रीफल को जो ज्येष्ठा की नौ शक्तियों के प्रतिक हैं उनको पूर्व दिशा से प्रारम्भ करते हुए क्रमशः निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुए स्थापित करना चाहिये-
अब साधक अष्टगंध से इस पूरी सामग्री के चारों ओर एक घेरा बना दें तथा चारों दिशाओं में चार दीपक जलाकर रखें तथा ज्येष्ठा लक्ष्मी माला से 5 माला मंत्र जप अवश्य करें।
इसके पश्चात साधक सारी सामग्री को एक थाली द्वारा ढक दें और दूसरे दिन पुनः इस प्रयोग को सम्पन्न करें, इस प्रकार सात दिन तक प्रयोग करने के पश्चात साधक बाद में केवल ज्येष्ठा लक्ष्मी का मंत्र ही जपें।
जो साधक एक लाख मंत्र जप कर लेता है तो उसे जीवन में ऋण सम्बन्धी किसी प्रकार की बाधा का सामना नहीं करना पड़ता है। मंत्र जप पूरा होने पर सारी सामग्री नदी या तालाब में विसर्जित कर दें।
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