उपनिषद जीवन से सम्बन्धित सभी प्रश्नों की व्याख्या को लेकर लिखे गये है, कठोपनिषद में ‘मृत्यु’ उसका व्यक्ति से सम्बन्ध, कारण, निदान अपमृत्यु, अकाल मृत्यु, पर पूर्ण व्याख्या है, यह व्याख्या नचिकेता और यम के प्रश्नोत्तर पर आधारित है।
नचिकेता महर्षि उद्दालक का पुत्र था, महर्षि ने एक विशेष विश्वजित यज्ञ किया और अपना सारा धन ब्राह्मणें को दान में दे दिया, इस दान में बूढ़ी, बीमार, मरणासन्न गायें भी थी, जिसे देखकर बालक नचिकेता ने सोचा कि यह तो पाप हो जायेगा, पिता को रोकना चाहिये, उसने अपने पिता से कहा कि है पिताश्री! आप मुझे दान में किस को देंगे? उसके बार-बार पूछने पर पिता ने क्रोध में कहा कि मैं तुझे मृत्यु को देता हूँ, इस पर नचिकेता को बड़ा विचार आया उसने सोचा कि मैंने ऐसा कौनसा आचरण किया है, जिस कारण मेरे पिता ने मुझे ऐसा वचन कहा फिर भी उसने पिता को समझाया और कहा कि अब आप शोक न करें और सत्य का पालन करते हुए मुझ यमराज के पास जाने की अनुमति दें।
पिता की आज्ञा प्राप्त कर नचिकेता यमपुरी गया उस समय यमराज कहीं बाहर गये हुए थे, वह तीन दिन तक बिना भोजन, बिना जल उसके द्वार पर बैठा रहा, इन तीन दिन के पश्चात् यमराज जब आये तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ उन्होंने कहा कि है ब्राह्मण देवता! आप अतिथि है, आपने तीन दिन तक मेरे घर पर बिना भोजन किये निवास किया है, आप मुझसे तीन वर अवश्य मांगे, नचिकेता ने निम्न तीन वर मांगे-
यहां हम नचिकेता के दूसरे वर के सम्बन्ध में व्याख्या करेंगे, जिसमें उसे यम द्वारा स्वर्गदायिनी विद्या का ज्ञान कराया गया, स्वर्ग का तात्पर्य है, पीड़ा, दुःख, भय से मुक्ति, जीवन इच्छानुसार जिया जाय, अकाल मृत्यु का दोष न हो, अपमृत्यु न हो, यह विद्या ही स्वर्गदायिनी ‘अग्नि विद्या’ है।
माँ-बाप अपने बारे में जितना चिन्तित नहीं रहते, उससे अधिक चिन्तित बच्चों के प्रति रहते है, क्योंकि माँ-बाप के दोषों का सुफल, कुफल बच्चों को ही भोगना पड़ता है, जीवन प्रक्रिया में बच्चा पूर्ण रूप से विकसित प्राणी नहीं होता है, इस कारण बीमारी का प्रभाव भी उस पर ज्यादा पड़ता है, मृत्यु डर भी बालकों में ही ज्यादा रहता है।
बच्चे ही माँ-बाप की आशा का केन्द्र होते है, बच्चे उनकी स्वनिर्मित रचना होते है, और माँ-बाप चाहते है कि मेरे जीवन में जो कमियाँ रही वे मेरे बच्चे के जीवन में नहीं रहे, मै जो जीवन में प्राप्त नहीं कर सका वह मेरा बच्चा प्राप्त करें, मेरी संतान अपने जीवन में पूर्ण उन्नति कर माँ-बाप का नाम रोशन करे, बच्चो के सुख में ही माँ-बाप का सुख रहता है और ऐसे में जब कोई बालक अपमृत्यु प्राप्त कर लेता है, तो उसकी पीड़ा माँ-बाप के लिये असहनीय होती है, इससे बड़ा दुःख हो ही नहीं सकता।
इसी महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर नचिकेता द्वारा पूछने पर यमराज ने जो कि मृत्यु के अधिपति है, विस्तार से अग्नि विद्या का ज्ञान दिया, इसकी पूर्ण रचना आज पत्रिका पाठको के सम्मुख इसके सार रूप में एक विशेष नचिकेता प्रयोग दिया जा रहा है, जो इस यम द्वितीया को सम्पन्न कर जीवन का एक महादोष जो बालकों की अपमृत्यु, अकाल मृत्यु से सम्बन्धित है, दूर किया जा सकता है ।
मृत्यु का पाश अपने ही सामने काट कर जीवन में स्वर्ग के समान आनन्द प्राप्त करने की क्रिया का नाम ही नचिकेता अग्नि विद्या है, इसमें केवल आवश्यकता है निर्दोष श्रद्धा, अडिग ओज की, आकांक्षा, क्षुद्र प्रलोभन से रहित होकर धैर्य के साथ कार्य करने की, तभी वह आनन्द पूर्ण रूप से बना रहता है।
जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इसका आधार अग्नि है, अग्नि को साक्षी रखते हुए अनुष्ठान सम्पन्न किया जाता है और इस प्रयोग को केवल यम द्वितीया को ही सम्पन्न करना है।
इस साधना हेतु एक अग्नि कुण्ड पात्र जो कि लोहे का अथवा तांबे का बना हो, व्यवस्था पहले से कर लेनी चाहिये, सुविधानुसार जमीन पर यज्ञवेदी मिट्टी से बना सकते है, मूल अनुष्ठान इसी पर सम्पन्न किया जाता है।
इसके अतिरिक्त साधना में ‘बारह सविता चक्र’, ‘हिरण्मयेन पात्र’ अग्नि प्रोक्त यन्त्र, आवश्यक है, साथ ही लाल चन्दन, धूप, दीप, नैवेध, सुपारी, तिल, कुश, चावल, दूध, अष्टगंध आवश्यक है।
यम द्वितीया के दिन प्रातः सूर्योदय से पहले उठकर स्नान कर लाल वस्त्र धारण करें, तथा एक लोटे में जल लें, उसमें चन्दन और सरसों डाले, बाएं हाथ से जल को अपने पूरी देह पर थोड़ा छिड़कर पवित्रीकरण रूप से स्पर्श कराएं तथा शेष जल को बाई नासिका के स्पर्श कर अपनी देह में भगवान शंकर का चिन्तन करें, अब एक ताम्र पात्र में गन्ध, जल, चन्दन, तिल, कुश, चावल, दूध, अष्टगंध मिलाकर सूर्य की ओर मुँह कर सूर्य को नमस्कार कर उसे अर्घ्य अर्पित करें, सूर्य नमस्कार करते समय निम्न मंत्रों द्वारा सूर्य का आह्वान करें-
इस प्रकार तीन बार अर्घ्य अर्पित करने के पश्चात् साधक अपने पूजा स्थान में जाय, तथा संक्षिप्त रूप में गुरू, गणपति पूजन तथा शिव पूजन सम्पन्न करें, तत्पश्चात् अपने हाथ में जल लेकर संकल्प करें, कि मैं अपने बच्चों (यहां बच्चों का नाम लें ) के दुःस्वप्न नाश हेतु, आयु वृद्धि हेतु, दृश्यमान और अदृश्यमान राक्षसी बाधाओं के नाश हेतु, अपने गुरू, सूर्य, शिव और गणेश को साक्षी रखते हुये यह अग्नि विद्या सम्पन्न कर रहा हूँ, सभी देव मेरी साधना में सहायक हों।
अब अपने सामने एक बाजोट पर सफेद वस्त्र बिछाकर मध्य में ‘हिरण्मयेन पात्र’ एक चावल की ढे़री पर स्थापित करे, और इसके आगे मंत्र सिद्ध ‘अग्नि प्रौक्त यंत्र’ रखे, इस पर चन्दन का तिलक लगाए और पूजन प्रारम्भ करे, एक दीपक बांई ओर तथा दांई ओर जला दें।
रक्त चन्दन से जिस बालक या बालकों हेतु यह साधना कर रहे हैं, उन्हें तिलक अवश्य लगा ले, अब अग्नि मंत्र जप करते हुए ‘हिरण्मयेन पात्र’ पर चन्दन, सुपारी, दूध, अष्टगंध अर्पित करें-
अब यज्ञ कार्य प्रारम्भ किया जाता है, इस हेतु श्रेष्ठ लकड़ी, उपले (गोबर के कण्डे), तिल, जौ, यज्ञ सामग्री पैकेट की व्यवस्था कर ले, अग्नि जला कर थोड़ी प्रचण्ड होने दें और उसके पश्चात् तिल, जौ से मिश्रित यज्ञ सामग्री से आहुतियाँ प्रारम्भ करें।
सर्व प्रथम अग्नि का बारह स्त्रोत्र का आह्वान किया जाता है और निम्न मंत्रों का जप करते हुए आहुति दें-
अब अग्नि के बारह स्वरूपों का यज्ञ करना है, इस हेतु पूजा सामग्री में लाये हुए ‘बारह सविता चक्रो’ का प्रयोग करे, ये बारह निम्न स्वरूप है-
इन ‘बारह सविता चक्रों की आहुति देने के पश्चात् अग्नि मंत्र बोलते हुए 108 आहुति तिल जौ की और 108 आहुति घी की देनी है, इस प्रकार कुछ 226 आहुतियां सम्पन्न करनी है।
इसके पश्चात् उपसंहार आहुति सम्पन्न की जाती है जिसमें दोनों हाथ जोड़ कर प्रार्थना करते हुये कि जिस प्रकार अग्नि से अन्धकार का नाश होता है, उसी प्रकार हमारे सभी दोष का दुष्प्रभाव नष्ट करें, यह पूर्ण यज्ञ आपको समर्पित है ऐसा बोल कर शेष बची सारी सामग्री यज्ञ कुण्ड में अर्पित कर देनी चाहिये।
जब यह प्रयोग पूर्ण हो जाय तो गुरू आरती सम्पन्न करें तथा सामने पात्र में रखा हुआ जल पूरे घर में छिड़के बच्चों पर जल का स्पर्श कराऐं तथा प्रसन्न मन से ब्राह्मण भोजन कराएं अथवा इच्छानुसार दान इत्यादि सम्पन्न करें।
यह अग्नि विद्या रहस्यात्मक विद्या है, और इसका प्रभाव चमत्कारिक रूप से स्पष्ट होता है, सिद्ध होने पर अग्नि देव साक्षात् साधक के भीतर समा कर उसे तेजोमय बना देते है, बालको की अभय रक्षा करते है, और जिस प्रकार अग्नि में कोई भी वस्तु भस्म हो जाती है, उसी प्रकार रोग, शोक, दुःख भस्म हो कर समाप्त हो जाते है।
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