





ऐसे व्यक्ति दया के पात्र है। उन्होंने जाना ही नहीं प्रेम क्या है। और प्रेम को बिना जाने कोई समर्पण नहीं है। और जो समर्पित नहीं है, वह शिष्य नहीं है। शिष्य होने का ढोंग एक बात है, शिष्य होना बड़ी दूसरी बात।
शिष्य तो वही है, जो अपने सिर को काटकर जमीन पर रख दे, जो अपने को पोंछ ले, मिटा ले। अहंकार जरा-सा भी बचा हो तो शिष्यत्व कहां! जो ऐसा झुके कि उठे नहीं, वही शिष्य है। शिष्य को कहां फुरसत! शिष्य को अपने गुरू में सब मिल गया। शिष्य को अपने गुरू में सार बुद्धपुरूष मिल गये-अतीत के, वर्तमान के, भविष्य के। उसने सारी-संपदा पा ली। अब कहां जाना? अब क्यों जाना? अब किसलिये जाना?
तुम्हारी प्यास बुझ गयी हो तो तुम झरने नहीं खोजते फिरोगे, कुएं नहीं खोदते फिरोगे। प्यास न बुझी हो तो अनिवार्यतया झरने खोजने पड़ेगे, कुएं खोदने पड़ेगे।
शिष्य और विद्यार्थी का यही फर्क है। विद्यार्थी का अर्थ हैः जो ज्ञान बटोर रहा है। जहां से मिल जाये! कहीं से भी मिल जाये! विद्यार्थी अपने अहंकार को ज्ञान से भर लेने में उत्सुक है। जितना ज्यादा जान लेना, उतना ज्यादा होगा। जानकारी उसका लक्ष्य है। …… तो ऐसा ही नहीं है कि बुद्धपुरूषों को सुनने जायेगा, जो बुद्धपुरूष नहीं है, उनको भी सुनने चला जायेगा। कहीं भी कुछ हो, विद्यार्थी तो सिर्फ ज्ञान बटोर रहा है। अज्ञानी से भी मिलता हो तो उसको भी बटोर लेना है। ज्ञानी से ही थोड़े! ज्ञान और अज्ञान का विद्यार्थी हो तो उसकी भी बटोर लेना है। ज्ञान और अज्ञान का विद्यार्थी को क्या प्रयोजन ! कहीं से कुछ सूचनायें मिल जायें, कुछ तथ्य मिल जाये, थोड़ी संपति ज्ञान की और बढ़ जाए…। उस ज्ञान की संपदा की तलाश में लोग खोजते हैं, भटकते हैं।
और मजा ऐसा है कि ज्ञान बटोरने से नहीं मिलता। ज्ञान के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा यही जानकारी है।
शिष्य वह है, जो अपनी जानकारी छोड़ देता है, जो कहता है, ‘अब मुझे जानना ही नहीं- अब मुझे होना है।’ होने के लिये एक काफी है। जानने के लिये अनेक भी काफी नहीं हैं!
बुद्ध और महावीर एक साथ हुये, एक ही समय में हुये, एक ही प्रदेश में हुये। कभी-कभी ऐसा हुआ कि एक गांव में बुद्ध गुजरे, दूसरे दिन महावीर गुजरे। कभी ऐसा हुआ कि एक ही गांव में दोनों ठहरे भी, चौमासा एक ही गांव में हुआ। एक बार तो ऐसा हुआ कि एक ही धर्मशाला के आधे हिस्से में बुद्ध ठहरे, आधे में महावीर ठहरे।
यह सवाल तब भी उठता था। यह सवाल पुराना है। यह कोई नया सवाल नहीं है। बुद्ध का कोई शिष्य महावीर को सुनने गया कि महावीर का कोई शिष्य बुद्ध को सुनने गया, तो दूसरे शिष्यों के मन में स्वभावतः प्रश्न उठा कि बुद्ध का जो शिष्य महावीर को सुनने गया है, क्या उसे बुद्ध से नहीं मिल रहा है? बुद्ध तो बरसा रहे हैं। औरों को मिल रहा है, उसे नहीं मिल रहा है? कहीं चूक उससे हो रही है। जो महावीर का शिष्य है, उसे महावीर से नहीं मिल रहा है। महावीर तो बरसा रहे है। लेकिन उसके पात्र में नहीं समाता, नहीं आता। उसके द्वार बंद है। तो बजाय द्वार खोलने के, वह यही सोचता है कि शायद महावीर के पास नहीं है, बुद्ध के पास मिल जाये, बुद्ध के पास नहीं है, मक्खली गोशाल के पास मिल जाये, मक्खली गोशाल के पास नहीं है, अजित केशकंबल के पास मिल जाये! यहां जाऊं, वहां जाऊं-कहीं से बटोर लूं!
और मजा यह है कि उसे पाने की कला नहीं आती। तो बुद्ध के पास भी चूकेगा और महावीर के पास भी चूकेगा और अजित केशकंबल के पास भी चुकेगा। सदियों-सदियों तक चूकेगा। क्योंकि पाने का बहुत संबंध बुद्ध और महावीर से नहीं है।
ऐस समझो कि एक अंधा आदमी है। उसे दिखाई नहीं पड़ता, तो वह कहता है, ‘यह दीया रोशनी नहीं देता, मैं दूसरा दीया तलाशूंगा । मैं और अच्छा दीया खरीदूंगा। मैं ऐसा दीया लाऊंगा, जिसमें मुझे दिखाई पड़ना शुरू हो जाये।’ वह दूसरा दीया ले आता है। लेकिन अंधे आदमी को क्या फर्क पड़ता है! यह दीया हो कि वह दीया हो- सब दीये बराबर हैं! अंधा आदमी अंधरे में रहता है। फिर इस दीये से भी थक जाता है तो और दीया खोजता है। मगर एक बात उसे ख्याल नहीं आती कि मैं अपनी आंख का इलाज करूं, उपचार करूं।
बुद्ध में भी मिल जायेगा, महावीर में भी मिल जायेगा, कृष्ण में भी मिल जायेगा। हजारों दीये जले है। सभी दीयों में एक ही रोशनी है। मगर अंधे को किसी में न मिलेगा। पर अंधे का अहंकार यह भी मानने के लिये राजी नहीं होता कि मेरी आंखों की कोई खराबी है, इसलिये नहीं दिखाई पड़ता। अंधे का अहंकार यहीं कहता है, इस दीये में रोशनी न होगी, कोई और दीया तलाशु, इस कुएं में पानी नहीं है, किसी और कुएं को खोजू। और मेरे कंठ को पीना नहीं आता, यह बात अहंकार स्वीकार नहीं करता अहंकार दोष अपने पर नहीं लेता।
प्रेम शिष्य वे दया के पात्र है! दूसरे सद्गुरू का दूसरा ढंग होता है। इस तरह के लोग बिबूचन में पड़ जाते हैं। इस तरह के लोग न यहां के होते हैं न वहां के। न घर के न घाट के- धोबी के गधे हो जाते है। आधे में लटक जाते है! विपरीत बातें सुन लेते है। और मुश्किल बढ़ जाती है, घटती नहीं। क्योंकि एक ने ऐसा कहा, दूसरे ने ऐसा कहा। और दोनों ठीक ही कहते होंगे। अपने-अपने रास्ते पर बात ठीक ही होगी।
लेकिन इस तरह के आदमी की हालत वही हो जाती है, जैसे कोई बीमार होम्योपैथ के पास जाये, आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास जाये, ऐलोपैथिक डॉक्टर के पास जाए, नेचरोपैथिक डॉक्टर के पास जाये, हकीम के पास जाए, और सब की बाते सुन ले! और उन सब की बातें बीमारी को तो हटायेगी नहीं, इस बीमार के शरीर को ही बीमार नहीं, इसके मन को भी बीमार कर देगी। यह अब और मुश्किल में पड़ जायेगा। क्योंकि वे अलग-अलग मार्ग है। उन सब की अलग-अलग दृष्टियां है। अलग-अलग बिंदु से देखा गया सत्य है।
तुम्हारे पास आंख नहीं है। इसलिये तुम एक भी बिंदु को नहीं समझ पा रहे हो। सारे बिंदुओं को तो कैसे समझ पाओगे! तुम सिर्फ उलझन में पड़ जाओगे। तुम्हारी गांठ और उलझ जायेगी। ग्रंथि खुलेगी नहीं- ग्रंथियां ही ग्रंथियां हो जायेगी। फिर ऐसी मुसीबत होगी कि तुम यह करोगे, तो भीतर से एक स्वर कहेगाः यह गलत। और जो स्वर कह रहा है गलत, वह करोगे, तो दूसरा स्वर कहेगाः यह गलत!
मेरे पास कृष्णमूर्ति को मानने वाले कोई व्यक्ति कभी आ जाते है। मैं उनसे पूछता हूं कि यहां आने की जरूरत क्या! वे कहते हैः लेकिन कृष्णमूर्ति के पास रहकर बीस वर्षो से हम सुनते है, अभी कुछ हुआ नहीं। तो मैं कहता हूं कि यह बात साफ हो गयी कि कुछ नहीं हुआ? तो ध्यान करो। वे कहते हैं लेकिन ध्यान से क्या होगा? कृष्णमूर्ति तो कहते हैं ध्यान करने से कुछ न होगा।
अब यह उलझन हो गयी। कृष्ण जो कहते है, उससे हुआ नहीं। अगर मैं कुछ कहता हूं तो उसमें कृष्णमूर्ति बाधा बनेंगे, क्योंकि कृष्णमूर्ति कहते है, ध्यान से क्या होगा?
मेरे पास कोई है। ध्यान कर रहा है और ध्यान से नहीं हो रहा। और कृष्णमूर्ति के पास जायेगा और उनसे कहेगा कि मैं वहा हूं और उनसे कहेगा कि मैं वहां हूं और ध्यान करता हूं, ध्यान से कुछ नहीं हो रहा। वे कहते है, ध्यान से कभी कुछ हुआ ही नहीं!
तब तुम जो मुझे सुनते रहे हो, बार-बार, निरंतर-तुम्हारे मन में भीतर ख्याल उठेगा, ‘बिना ध्यान के कैसे हो सकता है?’ और ध्यान से कुछ हुआ नहीं!
तब तुम जो मुझे सुनते रहे हो, बार-बार, निरंतर-तुम्हारे मन में भीतर ख्याल उठेगाः ‘बिना ध्यान के कैसे हो सकता है?’ और ध्यान से कुछ हुआ नहीं! नहीं तो तुम जाते क्यो? जाने का प्रयोजन क्या था?
लेकिन अब एक और झंझट हो गयी, अब ध्यान करोगे तो कृष्णमूर्ति बाधा बनेंगे। और कृष्णमूर्ति की मानकर चलोगे तो मैं बाधा बनूंगा। अब तुम दो तरफ खींचे जाओगे।
यह तो मैं सरल उदाहरण ले रहा हूं। अगर तुमने दस-पच्चीस मार्गो की बातें जान लीं तो तुम पच्चीस तरफ खींचे जाओगे। तुम वैसी ही मुर्दा हो, और मर जाओगे।
पूछा है तुमनेः ‘यदि समर्पित शिष्य चुपचाप चोरी-छिपे किसी दूसरे बुद्ध-पुरूष को सुनने जाएं…….’
तो पहली तो बातः जो दूसरे को सुनने जाये वे शिष्य नहीं है, विद्यार्थी होंगे। विद्यार्थियों में कुछ ऐसा मूल्यवान नहीं है, जिसके लिये चिंता करने की कोई जरूरत हो। विद्यार्थी ही हैं।
मुझे बचपन में एक ख्याल आता है- मेरे गांव में वह शब्द चलता है। पता नहीं, तुम्हें पता है या नहीं। बड़े बच्चे जब खेलते हैं और कोई छोटा बच्चा भी बीच में आ जाता है, ऊधम करने लगता है कि मैं भी सम्मिलित होऊंगा……. तो मेरे गांव में उसे सम्मिलित कर लिया जाता था। और उसका एक खास नाम थाः दूध की दुहनियां। उसकी कोई फिकर नहीं करता था! उसको उछलने-कूदने दो, उसको ख्याल रहने दो कि वह सम्मिलित है। लेकिन वह सम्मिलित नहीं है। जो खेलनेवाले है, वे जानते हैं कि वह हिस्सा नहीं है। मगर उसको हटाना मुश्किल है। वह रोता है, शोरगुल मचाता है, पंचायत खड़ी करता है। तो उसको स्वीकार कर लिया। लेकिन एक कोडवर्ड थाः दूध की दूहनियां! ठीक है। अभी दूधमुंहा बच्चा है, खेलने दो। इसको उछलने-कूदने दो। वह नाहक ही उलछकूद रहा है और बड़ा प्रसन्न हो रहा है। खेल का वह हिस्सा है ही नहीं। उसकी कोई गणना नहीं है खेल में। उससे न हार होगी, न जीत होगी। न उसके उछलने-कूदने का कोई परिणाम होगा।
जो विद्यार्थी है, वह दूध की दुहनियां है! वह आये, जाए, जहां सुनना हो, जिसको सुनना हो, जैसा करना हो, करें। लेकिन शिष्य वह नहीं है। शिष्य का जाना-आना समाप्त हुआ, वही शिष्य है।…… समर्पित भी वह नहीं है। समर्पण का अर्थ ही होता है, बात समाप्त हो गयी। मुझे मेरा सत्य मिल गया। मुझे वे आंखे मिल गयीं, जिनके द्वारा मैं देखना चाहूंगा। मुझे मेरा सत्य मिल गया। मुझे वे आंखे मिल गयीं, जिनके द्वारा में देखना चाहूंगा। मुझे वे हाथ मिल गये, जिन हाथों के द्वारा में चलना चाहूंगा मेरे लिये सारा संसार खाली हो गया।
समर्पण का क्या अर्थ होता है? यह व्यक्ति मेरा गुरू और इस व्यक्ति के अतिरिक्त मेरा कोई गुरू नहींः समर्पण का यह अर्थ होता है। इसका यह अर्थ नहीं होता कि दूसरे गुरू नहीं हैं। दूसरे गुरू है। वे किन्हीं दूसरे समर्पित लोगों के गुरू होंगे। जब तक तुम किसी के प्रति समर्पित नहीं हो, तब तक वह व्यक्ति तुम्हारे लिये गुरू नहीं है।
ख्याल रखना, गुरू कोई ऐसी चीज नहीं है कि किसी के ऊपर छाप लगी है गुरू होने की। गुरू तो शिष्य और ज्ञानौ के संबंध का नाम है।
समझो, एक गुरू के पास हजारों शिष्य हैं। वे सब शिष्य छोड़कर चले गये, अकेला गुरू रह गया। तब भी तुम उसे गुरू कहोगे? तब वह गुरू नहीं है। ज्ञानी होगा, परम ज्ञानी होगा, मगर गुरू नहीं है। गुरू तो होता है वह किसी शिष्य के संदर्भ में।
कृष्णमूर्ति किसी के गुरू होंगे। रमण किसी के गुरू होंगे। रामकृष्ण किसी के गुरू होंगे। ‘किसी’ के होंगे। गुरू होना कोई ऐसा गुण नहीं है कि जैसे सोना-सोना है, ऐसा गुरू गुरू है- कि चाहे कोई छोड़कर चला जाये तो भी सोना तो सोना रहेगा। गुरू गुरू नहीं रह जायेगा।
ऐसा ही समझो कि कोई पत्नी है। अब, पत्नी होना कोई गुणधर्म नहीं है। यह पति के संदर्भ में है। अगर पति न रहा तो पत्नी नहीं रही। फिर वह स्त्री होंगी। पत्नी नहीं होगी। पुरूष होगा, पति नहीं होगा। ये संबंध है।
गुरू एक अंतर्सबंध है। शिष्य समर्पित होकर गुरू को जन्म देता है। उसके समर्पण में दो घटनायें घटती है। एक तरफ शिष्य घटता है, दूसरी तरफ गुरू घटता है। उसके समर्पण के दो छोर हैं। एक तरफ वह स्वयं है- मिट गया, शून्य हुआ। और दूसरी तरफ कोई है, पूर्ण हुआ- जिसको वह अपने भीतर आमंत्रित करता है।
तो जो ऐसा करते हो, वे न तो शिष्य है, न समर्पित हैं।
और फिर चोरी-छिपे करने की तो कोई जरूरत ही नहीं है। चोरी-छिपे इसलिये करते है कि है तो विद्यार्थी, लेकिन दिखलाना चाहते है कि शिष्य है! क्योंकि शिष्य होने की जो गरिमा है वह भी अहंकार छोड़ना नहीं चाहता। यह मानकर मन में कष्ट होता है कि मैं और विद्यार्थी! …….. तो चोरी-छिपे करते हैं।
कुछ हर्जा नहीं है। जो करना हो सीधे-सीधे करना चाहिये। चोरी-छिपे करने की क्या जरूरत है? चोरी छिपे तो और उल्टा पाप हुआ! चोरी-छिपे तो यह मतलब हुआ कि तुम मुझसे छिपाते हो। मुझसे छिपाना है, तो मुझसे सारे संबंध टूट गये। मेरे सामने खुलोगे तो संबंध गहन होंगे। मेरे साथ छिपाओगे तो कैसे संबंध गहन होंगे!
कृष्णप्रिया को जाना था कृष्णमूर्ति को सुनने। कोई हर्ज की बात नहीं है। मेरे मन में कृष्णमूर्ति का अपार सम्मान है-उतना ही जितना बुद्ध का, उतना ही जितना कृष्ण का, उतना ही जितना कबीर का। गयी तो ठीक किया। लेकिन बताकर गयी कि बीमार है और अस्पताल में भर्ती होने जा रही है।
अब यह हद हो गयी! कृष्णमूर्ति के पास जाने में कोई हर्ज नहीं था। लेकिन यह मुझसे झूठ इस तरह बोलना, इससे हानि हो गयी। कृष्णमूर्ति के पास जाने से कुछ हानि नहीं हो गयी थी। अच्छा था। शुभ था। किसी भी सत्पुरूष के पास थोड़ी देर बैठना शुभ है। लेकिन जो मेरे पास रहकर इतना झूठ बोलती हो, जो मेरे पास नहीं हो सकती। वह कृष्णमूर्ति के पास कैसे हो सकेगी! जो मेरे पास वर्षो रहकर झूठ बोलती हो, वह एक घंटे भर के लिये कृष्णमूर्ति के पास जाकर सच कैसे हो सकेगी? अंसभव है। कृष्णमूर्ति से तो जोड़ बनेगा नहीं, मुझसे जोड़ टूट गया। लाभ नहीं हुआ, हानि हो गयी। चोरी-छुपे इसलिये गयी कि ताकि यहां भी ख्याल रहे कि वह मेरी शिष्या है, जाने की कहीं कोई जरूरत नहीं है। इसलिये अस्पताल का बहाना करके गयी।
और भी दो-चार लोग गये। सब के अलग-अलग कारण होंगे। तुमने पूछा है कि जो इस तरह के लोग है, वे जिज्ञासा से जाते है, अवज्ञा से या और अधिक की खोज से? अलग-अलग लोगों के अलग-अलग कारण होंगे?
जो विद्यार्थी हैं, वे जिज्ञासा और कौतुहल से जायेंगे। वे बचकाने हैं। क्योंकि जो दीया यहां जला है, वही दीया कृष्णमूर्ति में जला है। अगर कुछ भेद होंगे, तो वे मिट्टी के दीये में होंगे, रोशनी में नहीं है। अगर यहां रोशनी नहीं दिखी, वहां भी रोशनी नहीं दिखेगी। रोशनी देखने की कला आनी चाहिये, तो कहीं भी दिखेगी। वहां भी दिखेगी, यहां भी दिखेगी। और मजा तो यह है कि जिसे रोशनी देखने की कला आती है, उसे उनमें भी दिखायी पड़ती है रोशनी, जो बिलकुल बुझे मालूम होते हैं।
इसलिये बुद्ध ने कहाः जिस दिन मैं बुद्ध हुआ, मेरे लिये सारा जगत बुद्ध हो गया। जिस दिन मैंने जाना कि मैं कौन हूं, उसी दिन मैंने सबको पहचान लिया कि कौन हैं। उस दिन मुझे सबके भीतर छिपा हुआ सत्य दिखायी पड़ गया।
जिसको देखना आता है, उसे तो बुझे दीयों में भी रोशनी दिखायी पड़ेगी। उसे तुममें भी रोशनी दिखायी पड़ेगी। तुम्हारी तो बात ही छोड़ दो, उसे वृक्षों में, पत्थर-पहाड़ों में परमात्मा दिखायी पड़ेगा। उसके लिये सारा जगत परमात्मा से भर गया।
तो कोई जिज्ञासा से गये होंगे। वे विद्यार्थी हैं। जैसे स्वामी योग चिन्मय गये। वे विद्यार्थी है। उनकी जिज्ञासा पंडित होने की जिज्ञासा है। ज्ञान घटित नहीं होगा इस जिज्ञासा से। उन्हें शिष्य होने का कुछ भी पता नहीं है। शायद शिष्य होने से पहले गुरू होने की धारणा है। शिष्य भी शायद इसलिये बने है कि किसी तरह गुरू हो जाये! तो जितना ज्यादा इकट्ठा कर लें, जहां से इकट्ठा कर ले जिस तरह से भी जो कुछ जानकारी पकड़ में आ जाये, सबको बांधकर रख लेना है- वह काम पड़ेगी! तिजोड़ी भर लेना है!
और मजा यह है कि जो खाली हो जाते है, उन्हें भरना नहीं पड़ती है- तिजोड़ी भर जाती है। उस शून्य में पूर्ण अपने से उतर आता है।
फिर कोई अवज्ञा से भी गये होंगे। क्योंकि मेरे पास रहते हो, तो सदा मीठा ही मीठा नहीं होता। हो ही नहीं सकता। कल तुमने धनी धरमदास के वचन देखेः ‘अति कडुवा, खट्ठा घना….’ तो जो सत्य मैं तुमसे कह रहा हूं वह कई बार बहुत कड़वा होता है। तुम नाराज भी होते हो। कई बार चोट में सीधी करता हूं। तुम तिलमिला भी जाते हो। तुम मुझसे बदला भी लेना चाहते हो। बदला लेने का तुम्हारे पास कोई उपाय भी नहीं है।
इस तरह तुम बदला ले सकते हो। यह अवज्ञा से भी कोई जा सकता है। और अगर मुझे तुम्हें बदलना है तो मुझे चोट करनी ही पड़ेगी। अब कोई मूर्तिकार अगर अनपढ़ पत्थर को मूर्ति बनाना चाहता है तो छैनी-हथौड़ा उठाना ही पड़ेगा। तुम अनपढ़ पत्थर हो। तुमसे बहुत से टुकड़े पत्थर के तोड़ डालने है। पीड़ा भी होगी, क्योंकि उन टुकड़ों को तुमने अपनी आत्मा समझा है, यद्यपि वे तुम्हारी आत्मा नहीं है। उनके टूटने पर ही तुम्हारी आत्मा प्रगट होगी। मगर अभी तो तुमने उन्हें अपनी आत्मा समझा है। अभी तो मैं तुमसे जो भी छीनता हूं, तुम्हें लगता है कि ‘बड़ा कष्ट हो रहा है। मुझे घटाया जा रहा है, मुझे छोटा किया जा रहा है, मुझे काटा जा रहा है।’
जब कोहिनूर हीरा मिला तो आज जितना बड़ा है, उससे तीन गुना बड़ा था। लेकिन तब तुम्हें मिलता अगर तो तुम पहचानते भी नहीं। जिसको मिला था, वह पहचाना भी नहीं था। उसने बच्चो को खेलने को दे दिया था। पत्थर समझ कर! चमकदार पत्थर ! आज दुनिया का सबसे बड़ा हीरा है। हालांकि उसका वजन तीन गुना कम हो गया। क्योंकि निखारा गया, काटा गया। पहलू रखे गये उस पर। कारीगर की छैनी चलती रहीं। जितनी छैनी चली है उतनी चमक आयी है। वजन कम हुआ है, चमक बढ़ी है। मूल्य बढ़ा है। तब हीरा नहीं था, तब अनपढ़ पत्थर था। अब हीरा है।
तुम अनपढ़ पत्थर की तरह मेरे पास आये हो। आये ही इसलिये हो कि अनपढ़ पत्थर हो। खदान से सीधे निकाले गये हो। मैं तुम्हें काटूंगा, छाटूंगा, तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े करूंगा। पीड़ा भी होगी, कष्ट भी होगा। तुम्हारी बहुत दिन की पोषित मान्यतायें टूटेगी। तुम्हारे बहुत दिन के माने हुये विचार खंडित होंगे।
लेकिन अगर समर्पण है तो तुम उस संघर्ष को आनंद भाव से स्वीकार करोगे। तुम मुझे शत्रु नहीं मानोगे, तुम मुझे सर्जन मानोगे कि मैं अगर काट रहा हूं और तुम्हें पीड़ा भी दे रहा हूं, तो तुम्हारे हित के लिये दे रहा हूं।
इसलिये केवल शिष्य पर ही काम किया जा सकता है, विद्यार्थियों पर नहीं। शिष्य का मतलब हैः वह ऑपरेशन की टेबल पर लेटने को तैयार है। इतना भरोसा करता है कि तुम बेहोश करके जब उसका पेट काटोगे तो उसे मार ही नहीं डालोगे। इतनी उसकी श्रद्धा है, कि तुम्हारे हाथों में अपना जीवन सौंप देता है।
गुरू सर्जन है। अब तुम उससे लड़ने लगोगे कि यह मेरा खून निकाल दिया, कि यह मेरी चमड़ी काट दी, कि क्या मुझे मार ही डालोगे, मैं तो वैसे ही पीड़ा से भरा आया हूं और तुम पीड़ा दे रहे हो! तो फिर सर्जन काम नहीं कर पायेगा।
तो बहुत है, जिनके मन में अवज्ञा भी आती होगी। ज्यादा नहीं है। कोई पांच सात लोग गये थे। उनमें कुछ, जिनके मन में अवज्ञा है। कुछ ऐसे भी है जिनके मन में लोभ है कि यहां तो इतना मिल रहा है, थोड़ा और कहीं से मिल जाये।
समर्पण का अर्थ होता है, शिष्य होने का अर्थ होता हैः अब जाने को कोई जगह न रही, मिल गया मंदिर। न मिला हो तो खोजो! मैं तुम्हारा दुश्मन नहीं हूं। अगर यह मंदिर तुम्हारा मंदिर नहीं है तो निश्चित ही तुम खोजो। मैं तुम्हें खुद ही धक्के दूंगा कि तुम जाओं और खोजो।
लेकिन तब यहां लौटकर आने की जरूरत नहीं है। जब यह मंदिर मुश्किल नहीं है, तो इस मंदिर के तुम नहीं हो।
मगर तुम बेईमान हो! तुम दो नावों में पैर रखना चाहते हो। तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। दो नावों में कोई यात्रा नहीं कर सकता।
और ध्यान रखना, मैं तुमसे यह नहीं कर रहा हूं कि तुम इसी नाव में सवार हो जाओं। मैं सिर्फ इतना कह रहा हूं: किसी एक नाव में सवार हो जाओ। मुझे कोई निस्वत नहीं है कि तुम इसी नाव में सवार हो जाओं। तुम उस किनारे पहुँच जाओ, यह लक्ष्य है।
मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। उस किनारे पहुंच जाओ। मगर एक नाव में ही पहुंच सकते हो। तुम चाहो कि सब नावों में सवार हो जाओ, कि एक नाव को हाथ से पकड़े है, एक नाव पर पैर रखे हुये है, एक पर लेटे हुये है- तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। ये नावें सब अलग ढंग से चलेंगी। इनकी गति अलग-अलग है। कोई पाल से चलती है, कोई पतवार से चलती है। किसी में मोटर का इंजिन लगा है। ये सब अलग-अलग हैं। इनके ढंग अलग-अलग है। ये सब उस तरफ पहुंचा देती है, यह सच है।
और उस तरफ पहुंचना गंतव्य है। आम थोड़े ही गिनने है, आम खाने हैं। लेकिन तुम किसी के तो पूरे हो जाओ। तुम्हारे किसी के भी पूरे हो जाने में तुम मुक्त हो जाओगे।
ऐसे आधे-आधे, बंटे-बंटे चलोगे, तुम खंड-खंड हो जाओगे।
परम् पूज्य सद्गुरू
कैलाश श्रीमाली जी
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