तुम सामाजिक वर्जनाओं की बात करते हो, तो समाज कब किसी को बढ़ने देता है! कौओं का झुण्ड कब चाहेगा कि उनमें से कोई हंस हो जाये, कीचड़ की गंदगी कब चाहेगी कि उसमें कोई कमल खिल जाये! गुलामी में सांस लेने वाले कब चाहेंगे कि कोई ताजी हवा की सुवास से सुगन्धित, मस्त और आनन्दित हो जाये।
भगवान चाहे हमें एक गुण दें, चाहे दस गुण दें, यदि हम उन्हीं का विकास करते रहेंगे तो निश्चय ही वृद्धि होगी। अपने आपको हीन समझना, तुच्छ समझना और बिना परिश्रम किये, ईश्वर को दोषी ठहराना अपने आप को धोखा देना है।
परमात्मा ने कृपा कर अवश्य ही हर व्यक्ति को कोई न कोई विशेषता, कोई न कोई गुण प्रदान किया ही है, आवश्यकता है तो अपने उस गुण को पहचानने की और उस गुण का विकास करने की, क्योंकि एक गुण से ही गुण की उत्पत्ति होती है।
सद्गुरूदेव ने कहा था कि मुझे तो आवश्यकता है जीवन्त शिष्यों की जो मुझ में आकर समा जाये, मैं बाहें फैलाये खड़ा हूँ और जहां कोई शिष्य अपने ही बन्धनों द्वारा, संशय द्वारा मृत हो गया, वह सद्गुरू रूपी समुद्र में स्थायी भाव से नहीं रह सका, उसे किनारे पर आकर गिरना ही पड़ा। समुद्र की भांति जीवन्त सद्गुरूदेव के पास जीवन्त शिष्य ही रह सकते हैं। वहां मन से बुझे निर्जीव शिष्यों के लिए स्थान नहीं है।
तुम्हारी इस मृत देह को प्राणो का स्पन्दन चाहिये और यह तभी हो सकता है, जब मेरे प्राणों को अपने हृदय को एकाकार कर सको, मेरे अन्दर अपने आप को समाहित कर सको, मेरे इस आनन्द के प्रवाह में मस्ती के साथ स्नान कर सको।
जब तुम अपने आप को शक्तिहीन अनुभव करो, जब तुम अपने आप को मृत तुल्य अनुभव करो, तब तुम मेरे साथ प्रकृति की तरह एकाकार हो जाओ और अपने आप को स्फूर्तिवान, तरोताजा बनाकर वापिस अपनी दुनिया में लौट जाओ।
समुद्र तो अपनी जगह स्थिर खड़ा, अपनी बाहें फैलाये प्रत्येक नदी को अपने आप में समेटने के लिए आतुर है, आवश्यकता तुम्हें नदी बनने की है, लहराती हुई, दौड़ती हुई समुद्र की बाहों में अपने आप को विसर्जित कर देने की है, अपना अस्तित्व मिटा देने की है और जब तुम ऐसे कर सकोगे, तब तुम में एक नया बुद्ध पैदा होगा, तब तुम में एक नया शंकराचार्य पैदा होगा, तब तुम में एक नया वशिष्ठ या विश्वामित्र पैदा होगा।
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