मनु ने दो विवाह किये, पहला विवाह इड़ा से, ‘इड़ा का तात्पर्य बुद्धि, चालाकी, चतुराई, तर्क है।’ श्रद्धा का तात्पर्य ‘भावना, प्रेम, अपने पूर्वजों के प्रति आस्था तथा ममत्त्व, करूणा, दया, प्रेम है।’ इस प्रकार पूरे संसार का मानव समुदाय दो भागों मे बंट गया। जो इड़ा के गर्भ से उत्पन्न हुये, वे चालाक, होशियार, तर्क- विर्तक करने वाले बने और जो श्रद्धा के गर्भ से उत्पन्न हुये, उनमे भगवान के प्रति आस्था, पूर्वजों के प्रति आदर, मंत्र-तंत्र और शास्त्रें के प्रति रूची और विश्वास पूरे विश्व के प्राणियों के प्रति अपनत्त्व भाव रखने वाले बने और पुराण साक्षी है कि, मानव को पूर्ण शान्ति इड़ा के माध्यम से नहीं अपितु श्रद्धा के माध्यम से ही प्राप्त हो सकती है।
मेरा जन्म इन हिमालय उपत्यकाओं में ही हुआ, जहां मनु प्रलय से बच कर रह गये, उस स्थान को अभी मनाली कहा जाता है। जहां पर व्यास नदी अपनी पूर्णता के साथ प्रवाहित होती है। यह वही मनाली है, जहां प्रलय के बाद केवल मनु, श्रद्धा और इड़ा बचे रह गये थे। यह वही मनाली है जहां भगवान वेद व्यास ने बैठ कर चारों वेदों का सम्पादन कर विश्व को एक महान भेंट दी। यह वही मनाली है, जहां पग-पग पर देवता विचरण करते है। मेरा जन्म इसी मनाली में हुआ, परन्तु मैं अभी तक न तो मनाली का महत्त्व समझ सका था और न मनाली का ऐतिहासिक पौराणिक ज्ञान ही मुझे था। जबकि मैं अपने आपको बुद्धिजीवी और इतिहासज्ञ होने का दावा करता था।
अचानक मुझे सूचना मिली कि पूज्य गुरूदेव सपरिवार मनाली आये हुये हैं। मैं दौड़ कर उनके चरणों में पहुँच गया। वही शान्त, तेजस्वी मुखमण्डल, वही मुस्कुराता हुआ चेहरा, वही खिलखिलाहट और वहीं शान्त सौम्य स्वरूप, उनको देखते ही मुझे ऐसा लगा कि जैसे मैं ही नहीं पूरा मनाली धन्य हो गया है। पूज्य गुरूदेव सन्यासी जीवन में यहां कापफ़ी समय तक रहे है, और यहां का चप्पा-चप्पा उनके पैरों से नापा हुआ है। वे जरूर कुछ विशिष्ट सन्यासियों से मिलने और उच्च कोटि के सन्यासी योगियों को मार्गदर्शन करने के लिये आये थे। वह दूसरे ही दिन मुझे ज्ञात भी हो गया, जब उन्होंने रात्रि को लगभग 10 बजे मुझे कहा, मेरे साथ रोहतांग की तरफ़ चलना है। उस रात्रि को मैंने पांच सौ से भी ज्यादा सन्यासियों का सम्मेलन देखा, मैने देखा कि मनाली में आज भी अत्यन्त उच्चकोटि के योगी और सन्यासी विद्यमान हैं।
जिनके तेज, ज्ञान और तपस्या से यह सारा भूमण्डल व्याप्त है। मैंने उन सन्यासियों में से 100 से भी ज्यादा वर्ष प्राप्त सन्यासी देखे। उस रात्रि के चन्द्रमा के शीतल प्रकाश में उन सन्यासियों के तेजस्वी मुखमण्डल को देखा, सीने से भी ज्यादा नीचे की और बढी़ हुई शुभ्र दाढ़ी को देखा, लम्बी जटाये, ज्ञान से दैदीप्यमान आखें और साधना से अनुप्राणित तेजस्वी शरीर, वास्तव में ही एक अद्भुत दृश्य था, जिसको शब्दों में बाधां नहीं जा सकता।
मैं अकेला गृहस्थ इसका साक्षी रहा हूँ कि पूज्य गुरूदेव को देखते ही विभिन्न कंदराओं और गुफ़ाओं से आये हुए वे वयोवृद्ध सन्यासी कितने अधिक खुशी से ओतप्रोत हुये थे, उनके पैरों में चंचलता आ गई थी, उन्हें ऐसा लगने लगा था कि जैसे उन्हें पूरे संसार का खजाना मिल गया हो। वे सभी बैठे हुये थे और सामने ही पूज्य गुरूदेव अपनी मन्द मुस्कान के साथ एक उच्च शिला पर आसीन थे। पहली बार मैंने पूज्य गुरूदेव निखिलेश्वरानन्द जी के अद्भुत विराट व्यक्तित्व को देखा, पहली बार मैंने अनुभव किया कि यह सामान्य व्यक्ति अपने आप में विराटता को समेटे हुये है, और वास्तव में इनके पास एक अद्भुत ज्ञान, तपस्या और साधना का संगम है, तभी तो सैकड़ों-सैकड़ों सन्यासी उन्हें देखने के लिये व्यग्र है, उनके चरणों में बैठने के लिये आतुर है, उनसे कुछ प्राप्त करने के लिये अपना सब कुछ न्यौछावर करने को तत्पर हैं।
उस रात्रि को पूज्य गुरूदेव ने संस्कृत में तीन घन्टे तक धारा प्रवाह प्रवचन दिया। बीच-बीच में वे हिन्दी में भी बोलते थे। मैं सामान्य संस्कृत का विद्यार्थी रहा हूँ, और कालेज में लेक्चरार हूँ। मैंने देखा कि किसी भी विषय को वे कितनी गहराई के साथ समझाने में सक्षम हैं, उन्होंने प्रत्येक सन्यासी को उसके नाम से पुकारा, इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी उन्हें प्रत्येक सन्यासी का नाम ज्ञात था। उसकी कुशलता, क्षमता पूछते, अब तक की हुई साधनाओं के बारे में जानकारी प्राप्त करते और आगे की साधना का मार्गदर्शन करते और वह पूरी रात इसी प्रकार बीत गई, न सन्यासी थके न मुझे किसी प्रकार आलस्य का अनुभव हुआ। पूज्य गुरूदेव इतना परिश्रम करने के बाद भी उतने ही उत्साहित, उल्लासित थे, वास्तव में ही वह रात्रि मेरे पूरे जीवन का संचित पुण्य कहा जा सकता है।
पांच-छः दिन तक उनके साथ रहने का सौभाग्य मिला, प्रत्यक्ष रूप से भी और अप्र्रत्यक्ष रूप से भी। मैंने अनुभव किया कि कुल्लू और मनाली को हम भली प्रकार से समझ ही नहीं पाये है, यहां पर तो नये शादी-सुदा जोड़े आनन्द मनाने आ जाते है परन्तु जिन कारणों से इसे देवताओं की घाटी कहा जाता हैं, उसके बारे में तो मुझे भी ज्ञान नहीं था जबकि मैने तो पूरी मनाली और शिमला तक का भू-भाग नापा हैं, क्योंकि मुझें पुरातत्व और इतिहास का शौक रहा है। परन्तु उन पांच दिनों में उनके द्वारा जिन ऐतिहासिक स्थानों का ज्ञान प्राप्त हुआ, उनकी पौराणिक पृष्ठ भूमि मालूम पड़ी वह अपने आप में अद्वितीय है, मैं निश्चय ही इन पांच दिनों में गुरूदेव के साथ बिताये हुये क्षणों और बताये हुये ऐतिहासिक स्थानों तथा उनकी पौराणिक पृष्ठ भूमि पर एक पूरी पुस्तक अवश्य ही लिखूंगा जिससे कि आने वाली पीढि़यों को कूल्लू और मनाली का सही-सही ज्ञान प्राप्त हो सके। मैं इस छोटे से लेख में क्या वर्णन करू और क्या-क्या छोडू, कुछ समझ में नहीं आ रहा है, मैं चाहता तो यह था कि उस रात्रि को सन्यासी सम्मेलन में जो-जो उच्च कोटि के सन्यासी आये थे, उनके बारे मे जानकारी देता जिनमें किकंर स्वामी, त्रिजटा अघोरी, और दिव्यानन्द जैसे उच्चकोटि के योगी विद्यमान थे।
मैं चाहता तो यह था कि उन्होंने जिस प्रकार से पूज्य गुरूदेव का स्वागत सत्कार और अभिनन्दन किया, उसका विस्तार से विवरण लिखता और मेरी इच्छा थी कि मैं उस पूरे प्रवचन को सरल हिन्दी में लिपिबद्ध कर पत्रिका पाठकों के सामने रखता जिससे कि यह एक इतिहास का दस्तावेज बन सके परन्तु मैं यह सब तो उस पुस्तक में विस्तार में वर्णन लिखुंगा ही, इस लेख में मैं उन स्थानों का संक्षिप्त से विवरण देना चाहता हूं, जिन स्थानों के बारे में मनाली के निवासियों को तो क्या इतिहासकारों को भी जानकारी नहीं है, इन सभी स्थानों पर मुझे इन चार पांच दिनों में पूज्य गुरूदेव के साथ जाने का अवसर मिला और उन्होंने चलते-चलते ही कई नवीन बातें बताई, उन ऐतिहासिक और पौराणिक स्थानों का ज्ञान दिया तथा उन स्थलों को दिखाया जहां वास्तविक पौराणिक घटनाएं घटित हुई थी।
हिमालय में सात कैलाश कहे जाते है, उनमें से दो कैलाश इस हिमाचल प्रदेश में है जो कि विशेष रूप से दर्शनीय है, पूज्य गुरूदेव ने बताया कि माता पार्वती का यह जन्म स्थान तथा सती का तपोस्थल होने के कारण यहां शक्ति का प्रवाह विशेष रूप से हो रहा है। यहां के हर गांव का एक ‘‘दोओं’’ (देवता) होता है और इन लोगों को अपने दोओं पर इतना विश्वास होता है कि ये छोटे से छोटे कार्य भी अपने दोओं को पूछ करके ही करते है। यह पूरा क्षेत्र चामुण्डा का विशेष शक्ति क्षेत्र है जहां पर दस पर्वत चोटियां है और प्रत्येक चोटी एक-एक महाशक्ति या महाविद्या से संबंधित है। माता छिन्नमस्ता, महाकाली, धूमावती, त्रिपुर सुन्दरी आदि महाविद्याओं की पर्वत चोटिया केवल मनाली के चारों ओर ही विद्यमान है, जहां पर उस महाविद्या से संबंधित साधना करने से निश्चय ही शीघ्र सपफ़लता और उनके दर्शन प्राप्त होते है।
ज्वाला युक्त पार्वती के दर्शन तो पूरे विश्व में केवल इसी क्षेत्र में देखना संभव है, यदि हम रोहतांग दर्रे पर खड़े होकर देखे तो उन दसों महाविद्याओं की चोटियों को तो देखा ही जा सकता है। उसके चारों ओर 64 छोटी-छोटी चोटियां भी दिखाई देती है, जिन्हें चौसठ योगिनियां कहते है। इन दसो महाविद्याओं की सेवा में संलग्न हों, यही पर एक पहाड़ की चोटी का नाम कोघड़धार हैं जहां पर वायुविद्या जैसी तन्त्र क्रिया सम्पन्न की जाती है आज भी भाद्रपद मास की अमावस्या की रात्रि को यहां पूरे हिमालय के उच्चकोटि के तांत्रिक एकत्र होते है और वे अपनी अपनी विद्याओं का प्रदर्शन तो करते ही है, उनका मुकाबला भी देखने योग्य होता है। बंटवाड़ा तथा मालाणग गांवो के व्यक्तियों को ज्ञान है कि शून्य में विचरण किस तरह से किया जाये।
यह क्षेत्र योगियों की साधना स्थली के साथ-साथ विशाल स्वरूप में उच्चकोटि की जड़ी बूटियां आज भी विद्यमान है। पूज्य गुरूदेव ने मुझे एक जड़ी-बुटी का छोटा सा पफ़ल तोड़कर खाने को दिया और मात्र पांच मिनिट के भीतर मुझे इतनी गर्मी लगने लगी कि उस भयानक सर्दी में भी अपना कुर्ता और बनियान उतारने के लिये बाध्य होना पड़ा और तब भी सारे शरीर से पसीना छूट रहा था। पूज्य गुरूदेव ने बताया कि सन्यासी भयानक सर्दी में भी केवल इस फ़ल को खा कर बिना वस्त्रों के भी एक महीने तक सकुशल रह सकते है। इस पौधे का नाम उन्होने ‘‘पल्लम’’ बताया और इस प्रकार के पौधे मुझे कापफ़ी दिखाये, यद्यपी ये पौधे बारह हजार फ़ीट की ऊँचाई पर हैं।मनाली 6500 फ़ीट की ऊँचाई पर है और रोहतांग दर्रा लगभग 13000 हजार फ़ीट की ऊँचाईं पर है, रोहतांग दर्रे के आस पास ही मुझे ये पफ़ल और ये पौधे देखने को मिले थे। इस घटना को एक महीना बीत गया है, परन्तु अभी तक पूरे शरीर में गर्मी सी अनुभव करता हूँ, इसके साथ ही ताकत स्पफ़ूर्ति और चुस्ती अनुभव करने लगा हूँ।
इसके अलावा भी लगभग 50-60 विभिन्न जड़ी-बूटियों से संबंधित पौधों कि पत्तियों, फूलों और फलों का संग्रह किया है, जिसमें उस पुस्तक ‘‘गुरूदेव के साथ पांच दिन’’ में चित्रें सहित उल्लेख करूंगा। पर इससे यह सुखद आश्चर्य होता है कि इस व्यक्तित्व को जड़ी बुटियों का भी कितना विषद ज्ञान हैं, हमें चाहिये कि हम इन पौधों का संरक्षण करें और पौधों की यह जाति जो नष्ट हो रही है, बचाने का प्रयास करें।
हिमाचल के प्र्रवेश मार्ग (स्वार घाट) से उत्तर पश्चिम की और मणीकर्ण नाम से प्रसिद्ध यह महत्वपूर्ण मैना माता का जन्म स्थान माना जाता है, मणिकर्ण, कूल्लू से लगभग चालीस किलो मीटर दूर पर है।
दयोली रास्ते में गुरूदेव ने एक प्राकृतिक चमत्कार दिखाया, यहां एक बहुत बड़ा पत्थर है जिसे 15-20 व्यक्ति भी परिश्रम कर हिला नहीं सकते, पर विशेष बात यह है कि कोई भी व्यक्ति अपनी कनिष्ठिका उंगुली से इस पत्थर को हिला सकता है। यह हम सब ने बारी-बारी से अनुभव किया, पर उसका रहस्य हम नहीं जान सके। गुरूदेव को पूछने पर भी वे चुप रह गये, पर बाद में उन्होंने बताया कि इस पत्थर पर बैठ कर उच्च कोटि के मारण प्रयोग सिद्ध किये जाते हैं। यह वैरी नामक स्थान से तीन किलो मीटर दूर है।
वैरी गांव से लगभग 12 किलोमीटर दूरी पर काला बाबा रहते है, जो कि प्राय दो सौ वर्ष की आयु प्राप्त है, उन्हें वायु विद्या के साथ और भी काफी कुछ जानकारी है। गुरूदेव के साथ उनका मिलन अपने आप में दर्शनीय था, जिन काला बाबा को पूरा हिमाचल प्रदेश पूजता है, जब मैंने उन्हें गुरूदेव के चरणों मे गिरते हुये देखा तभी मुझे अहसास हुआ कि, उच्च कोटी के योगी पूज्य गुरूदेव को कितना अधिक सम्मान करते हैं।
वरमाणा कस्बे के पास में ही ‘‘वटवांड़ा’’ गांव हैं जो कि पूरा का पूरा तांत्रिक गढ़ है। कहते है की जब लंकापति रावण बीमार हो गया था, और उसका कहीं पर भी इलाज नहीं हो पाया तो इसी गांव में रहकर उसने अपना इलाज करवाया था। आज के इस वैज्ञानिक युग में भी यह चमत्कार देखा जा सकता है कि, यहां पर दूध से भरकर कटोरा कोई भी व्यक्ति अपने सामने रख दे और पिफ़र वह व्यक्ति ‘‘वतालु’’ शब्द का 15-20 बार उच्चारण करें, तो वह दूध का कटोरा खाली हो जाता है। कहते है कि रावण ने ही अपनी चिकित्सा पूरी होने पर वतालू नाम का भूत इस गांव को सेवार्थ दिया था। यह चमत्कार मैंने तो गुरूदेव के साथ देखा ही, इसके बाद भी 15-20 लोगों को जाकर अहसास कराया।
इसे सुखेत भी कहते है, शुकदेव के द्वारा बसाया हुआ यह गाँव अपने आप में महत्वपूर्ण है, यहां पर ताम्रकुट पर्वत के नीचे एक त्रयम्बक महादेव का मन्दिर है, जहां पर शिवलिंग के नीचे से गंगा यमुना की धाराये बराबर प्रवाहित होती रहती है।
पूज्य गुरूदेव ने बताया कि यहां से बीस किलो मीटर दूरी पर कमरूनाग गांव है, जो महामुनी पराशर की तपस्थली है, इसके पास ही योगी लोमश की तपस्या स्थली ‘‘रिवालसर’’ गावं है। उसके आस पास तिब्बत के लामा लोग आज भी तपस्या करते हुये दिखाई देते है।
मनाली से शिमला के रास्ते में मण्डी स्थान पड़ता है, जो अत्यन्त प्रसिद्ध है। यहां पर 80 मन्दिर और चार गुप्त मन्दिर है। कुछ समय यहां रहने से व्यक्ति चौरासी के चक्कर से छूट जाता है। आश्चर्य की बात यह है कि ये सभी मन्दिर बिल्कुल पास पास में है। यहां परमहंस नागा बाबा की समाधि देखी, आजकल भी यहां नागा बाबा रहते है, कहते है कि उसके वचनों में काफ़ी सत्यता है।
इसको कैलाश कहा जाता है, प्रकृति की दृष्टि से यह एक अद्भुत पर्वत खण्ड है यही पर भगवान शिव की पत्नी गौरी के माता पिता रहते थे। गौरी नित्य यहां से कैलाश तक शिव को रिझाने के लिये जाया करती थी। आते और जाते समय मां गौरी केसर छिड़क दिया करती थी, जिससे कि रास्ता भूल न जाये। आश्चर्य की बात यह कि आज भी सर्दियों में भयंकर बर्फ गिरने के बावजूद भी केसर के रंग की पगडंडी साफ देखी जा सकती हैं।
इसके अलावा हमने कूल्लू मे रघुनाथ जी मन्दिर, बिजली महादेव का मन्दिर आदि भी देखे। बिजली महादेव के बारे में गुरूदेव ने बताया कि साल में एक बार इस शिवलिंग पर आकाश की बिजली गिरती है और शिवलिंग टुकडे-टुकडे हो जाता है फिर पुजारी इन टुकड़ों को जोड़ कर शिवलिंग का आकार देता है। इसके अलावा मनाली में हिडिम्बा का मन्दिर भी देखा, जिसके पैरो के निशान मन्दिर में दिखाई देते है। यह अत्यन्त प्राचीन मन्दिर है यहां के लोग इसे ढूंगरी माता कहते है।
वास्तव में ही ये पांच दिन मेरे लिये तो पांच जन्मों के बराबर थे, जब मैं पूज्य सद्गुरूदेव व परम् वन्दनीय मां भगवती व शिष्यों के साथ इन सब स्थानों को देख सका और अपने जीवन को पवित्र पुण्यमय कर सका।
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