गुरू जानता है शिष्य को जीवन की पगडंडी पर कहां और कब खड़ा करना है और जहां खड़ा करना है उसके लिये क्या आज्ञा देनी है। इसलिए शिष्य को आज्ञा पालन में विलंब नहीं करना चाहिये।
शिष्य की जो भी चिंतायें हैं, दुख हैं, परेशानियां हैं, बाधायें है उन सबको गुरू चरणों में समर्पित कर देना चाहिये।
शिष्य को साष्टांग प्रणाम के द्वारा निरन्तर गुरु का स्तुतिगान करते हुये उन्हें भजते रहना चाहिये, उनके सतत् भजन और चिन्तन से शिष्य की बुद्धि गुरु के प्राणों से जुड़कर निरन्तर पवित्र होती जाती है, उसके बाद पावन मति से ही गुरु का ब्रह्ममय स्वरूप प्रकट होकर, शिष्य का कल्याण करता है।
शिष्य को गुरु-आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिये, और उनसे पूछे बिना कोई कार्य नहीं करना चाहिये।
शिष्य को अपने गुरु से असत्य भाषण कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि गुरु स्वयं इतने अंतर्द्रष्टा है, कि वे शिष्य के हृदय या मन के एक-एक विचार, एक-एक भावना को पढ़ने में सक्षम हैं।
‘आज्ञा गुरुणां परिपालनीया’ गुरु और राजा की आज्ञा सदैव अनुल्लंघनीय होती है, अतः ये किसी भी कार्य के लिये आज्ञा दें, उस कार्य को प्रमाद या धृष्टावश न करना शिष्य की तुच्छता है।
गुरु की भावनाओं से आबद्ध शिष्य को चाहियें कि वह कभी भी जिधर गुरु विद्यमान हों, उस दिशा को नमस्कार किये बिना शयन न करे और न ही शय्या त्याग करे।
शिष्य को गुरु के सदृश दीक्षा आदि देना, व्याख्यान करना तथा अपनी प्रभुता का प्रदर्शन कभी नहीं करना चाहिये, क्योंकि इन क्रियाओं से शिष्य के अन्दर गर्व उत्पन्न होकर अहितकर करता है।
गुरु के रहते हुये शिष्य को उपदेश आदि किसी को भी नहीं देना चाहिये, यदि गुरु की भांति उपदेश कार्य को स्वयं शिष्य जब करने लग जायेगा, तो वह राक्षस जैसा माना जायेगा।
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