इस दिन घरों में तरह-तरह के पकवान बनाये जाते हैं, घर के दरवाजे के पास गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाते हैं और आस-पास गायों की छोटी-छोटी मूर्तियां, इन्द्र, वरुण, अग्नि आदि देवताओं की मूर्तियां या चित्र रखते हैं और बीच में भगवान कृष्ण की मूर्ति रखते हैं। गोवर्धन पर्वत के पास सभी पकवान सजा दिये जाते हैं। विधिवत पूजन कर लेने के बाद कथा सुनी जाती है और फिर भोग लगा कर प्रसाद बांट दिया जाता है।
कृष्ण मंदिरों में यह दिन बहुत चहल-पहल का होता है। भगवान का विशेष गोप श्रृंगार किया जाता है। गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाया जाता है, उसके पास गाय व बछड़े बांध दिये जाते हैं, छप्पन भोग लगाये जाते हैं और पूजा के बाद सारा प्रसाद बांट दिया जाता है। राजस्थान के श्रीनाथद्वारा मंदिर और कांकरोली के द्वारकाधीश मंदिर में इस छप्पन भोग को लूटने आस-पास का भील समुदाय नाचता-गाता हुआ आता है और इसी के साथ मंदिर प्रांगण में उत्सव मनाया जाता है। बज्रमण्डल मंदिरो में अन्नकूट की और गोवर्धन पूजा की शोभा तो अवर्णनीय है। सारा नगर गोवर्धन पर्वत को रंग-बिरंगी झण्डियों और गुलाल से सजा दिया जाता है। इन्हीं दिनों गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा भी होती है।
एक बार कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन श्री कृष्ण अपने गोप सखाओं के साथ गायें चराते-चराते गोवर्धन पर्वत के पास जा पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि एक स्थान पर तरह-तरह की भोजन सामग्री रखी है, जमीन धो-लीपकर साफ कर ली है और पूजा का आयोजन भी कराया हुआ है। उन्होंने वहां उपस्थित गोप-गोपियों से पूछा कि यह किस उत्सव की तैयारी है, उन लोगों ने उन्हें बताया कि आज इन्द्रदेव की पूजा का दिन है। इन्द्र वर्षा के देवता है, इन्द्र की कृपा से हम सब और यह पशु धन सुरक्षित रहते हैं। तब कृष्ण ने उन्हें गोवर्धन पर्वत की महिमा बताई और इन्द्र की बजाए गोवर्धन पर्वत की पूजा करने के लिये सभी को समझाया। श्रीकृष्ण ने बताया कि गोवर्धन पर्वत की छाया के नीचे हरी-हरी घास उगती है, जिसे खाकर उन सभी के पशु धन हष्ट-पुष्ट रहते हैं, गोवर्धन पर्वत उन्हें रहने के लिये स्थान देता है और गोवर्धन पर्वत तो भगवान तुल्य है, जो सभी ब्रजवासियों की अनेक विपदाओं से रक्षा करता है और जो उन्हें खाने को भोजन और रहने के लिये स्थान देता है, इन सभी योगदान के कारण इन्द्रदेव के स्थान पर गोवर्धन पर्वत की पूजा होनी चाहिये। कृष्ण ने इन्द्र यज्ञ के लिये एकत्रित सामग्री से ही गिरिराज पूजन की व्यवस्था बताई। तब सारे गोपों ने गायों को हरी-हरी घास खिलाई। गोवर्धन पर्वत को छप्पन व्यंजनों का भोग लगाया और उस पर्वत की प्रदक्षिणा की। सब को विश्वास दिलाने के लिये कृष्ण ने एक विशाल शरीर धारण करके वह सारी भोजन सामग्री खा ली। सभी ने उनको गोवर्धन पर्वत ही समझा और प्रणाम करके भक्तिपूर्वक घर लौट आये।
इन्द्र देव की पूजा बंद कर दिये जाने से उन्होंने उसे अपना अपमान समझा और प्रलय के मेघों को सम्पूर्ण व्रजमण्डल तहस-नहस करने को भेज दिया। ब्रज पर मेघों ने मूसलाधार वर्षा शुरु कर दी और भयंकर तूफान में मनुष्य-पशु सभी कांपने लगे।
सब चिल्लाने लगे कि इन्द्र पूजा बंद कर देने से अब इंद्र सबको नष्ट कर देंगे। यह स्थिति देखकर श्री कृष्ण ने अनायास ही गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठा लिया और सारे ग्वाले अपने पशुओं, गायों, बछड़ो व परिवार सहित गोवर्धन पर्वत के नीचे आ गये। सात दिनों तक इन्द्र ने मूसलाधार वृष्टि और आंधी चलाये रखी, परन्तु व्रजवासियों का कुछ नहीं बिगाड़ सके। सभी गोवर्धन पर्वत के नीचे सुरक्षित रहे। थक-हार कर इंद्र ने आंधी पानी बंद कर दिये, उनका घमंड टूट गया और इन्होंने श्री कृष्ण के समक्ष जाकर क्षमा याचना की। कृष्ण ने उन्हें बताया कि गो अर्थात् गाय और पृथ्वी, इन दोनों का संवर्धन करना ही गोवर्धन है और यह पर्वत-पहाड़, हरियाली-पेड़, पशु-पक्षी भगवान के ही रूप हैं, हमें इनकी महत्ता को समझना चाहिये, पूजना चाहिये, क्योंकि ये ही मानव जाति के संरक्षक हैं। इसके बाद से भगवान श्रीकृष्ण को गोवर्धनधारी और गिरिधारी नाम से भी जाना जाने लगा और कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन गोवर्धन पूजा, पर्व मनाया जाने लगा।
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