सुखदेव प्रसाद एक प्रतिष्ठित, विचारवान व्यक्ति था। उसने अपने से बहुत छोटी उम्र की लड़की से विवाह किया। एक संध्या सुखदेव समय से पहले घर लौटा तो उसके वफादार नौकर ने उससे कहा आपकी पत्नी बहुत संदेह जनक ढंग से पेश आ रही है। उनके कमरे में एक बड़ा संदूक है, इतना बड़ा कि उसमें एक आदमी भी समा जाये। पहले वह आपकी दादी के पास था और उसमें थोड़े से जड़ी के सामान थे, लेकिन अब उसके भीतर शायद बहुत कुछ है। मैं आपका सबसे पुराना नौकर हूँ, लेकिन मालकिन मुझे भी उस संदूक के भीतर नहीं झांकने देती।
स्मरण रखना, यदि आपका प्रेम सच्चा नहीं है, तो एक नौकर भी भयभीत कर सकता है। खतरे में डाल सकता है और सौ में से निन्यानवें मौके पर ऐसा ही होता है कि नौकर मालिक बन जाता है। तो नौकर सुखदेव को डरा सका क्योंकि नौकर ने कहा सुनो मालिक यह जो हो रहा है घर में, यह जो संदूक है वह इतनी बड़ी है कि वह आदमी को भी छिपा सकती है और फिर आप जवान पत्नी को ले आये हो। आपकी उम्र ज्यादा है और पत्नी की उम्र आपसे बहुत कम है। इसलिए खतरा है। प्रतिष्ठा भी दाव पर लग सकती है।
तो इस प्रकार नौकर भी आपको डरा सकता है यदि आपकी प्रतिष्ठा बाहरी है तो। लेकिन जिस व्यक्ति की बाहरी प्रतिष्ठा होती है वह कभी प्रेम नहीं कर सकता। क्योंकि प्रेम के लिये भीतर आधार चाहिये। लेकिन सुखदेव का प्रेम शायद सही न होगा। इसलिये सुखदेव अपनी पत्नी के कमरे में गया, तो देखता है कि पत्नी संदूक के पास उदास बैठी है। अतः उसे स्थिति संदेह जनक लगी और नौकर वफादार। क्योंकि नौकर पुराना वफादार था वर्षों से उसने जब भी जो भी कहा वह सत्य निकला। तो अब वह जब पुनः कहता है कि स्थिति संदेह जनक है और फिर पत्नी भी संदूक के पास बैठी है, संदूक में झांकने ही नहीं देती, तो जरूर कुछ दाल में काला है। इसलिये तो मुझें संदूक में झांकने नहीं देती। यदि संदूक में कुछ न होता तो वह संदूक में झांकने से क्यों मना करती?
लेकिन सच यह है कि इस प्रकार संदेह का नींबू अमृत रूपी दूध को फाड़ देता है, संदेह जीवन को नर्क बना देता है। प्रेम में, धर्म में, संदेह नहीं चलता, समर्पण चलता है। आस्था, विश्वास, भरोसे में ही परमात्मा के पुष्प खिलते हैं और जो आस्था पर संदेह का महल बनाता है, वह रेत पर अपना भवन खड़ा करता है। वह जीवन गिरता ही है। तो संदेही सुखदेव ने अपनी पत्नी से पूछा क्या मैं संदूक को देख सकता हूं, पत्नी ने कहा क्या एक नौकर के संदेह के कारण पूछते हो? और यदि नौकर के कारण पूछते हो तो आपने अपनी मालकियत खो दी। फिर आप मालिक नहीं नौकर बन बैठे या इस कारण पूछते हो कि आपको ही मुझ पर भरोसा न रहा? जरा सोचकर बताओ कि यह संदेह आपके भीतर से आया है या आपके बाहर से?
यह प्रश्न जरा सोचने जैसा है कि संदेह भी उधार लिया जा सकता है। कितनी दरिद्रता है कि संदेह भी अपना नही है। आपको अपनी पत्नी पर कितनी आस्था है कि संदेह भी दूसरा दे देता है। रास्ते पर आप जा रहे हो और यदि किसी ने कुछ कह दिया कि संदेह का जन्म हो गया। कोई किताब पढ़ ली कि संदेह पैदा हो गया। अनजान व्यक्तियों की बातचीत सुन ली कि संदेह पैदा हो गया। जरा आप सोचिये कि संदेह तक आपका नहीं है, वह भी प्रामाणिक नहीं है और जिनका संदेह तक अपना न हो वह क्या किसी पर आस्था कर सकता है?
पत्नी ने कहा बताईये क्या नौकर के संदेह के कारण पूछते हो या मुझ पर विश्वास नहीं? यदि नौकर के संदेह के कारण पूछते हो तो आपका संदेह दौ कौड़ी का, उसका कोई मूल्य नहीं अथवा उसका उतना ही मूल्य है जितना एक नौकर का है। क्योंकि आज आप से किसी ने कह दिया तो संदेह पैदा हो गया, तो कल फिर कोई कह देगा तो फिर संदेह हो जायेगा। इसलिये यदि उधार का संदेह है तो व्यर्थ है, उसमें पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है और यदि आपका अपना संदेह है तो उत्तर देने योग्य है।
सुखदेव विचारशील व्यक्ति था। अतः उसने कहा- इन बातों में गये बगैर क्या संदूक को खोलना मुमकिन नहीं होगा? यह बड़ी चालाकी का उत्तर है। वह उत्तर दिये बिना बच रहा है। जबकि बात सीधी पूछी गयी थी कि नौकर ने संदेह उठाया है या आपका अपना संदेह है। लेकिन सुखदेव ने वकीलों जैसा उत्तर दिया कि क्या इन बातों में गये बगैर संदूक को खोलना मुमकिन नहीं होगा। उसकी पत्नी ने कहा- नहीं, क्योंकि तथ्य से गुजरे बिना कोई सत्य तक नहीं पहुंचता। संदूक में झांकोगे कैसे? संदूक तो जीवन ही है और वकील जीवन से अपरिचित रह जाते हैं, क्योंकि वह हमेशा चालाकी से सोचते हैं।
तो जैसे ही पत्नी ने कहा कि नहीं, संदूक को खोलना मुमकिन नहीं होगा, कि तत्क्षण उसने दूसरी बात पूछी क्या इसमें ताले लगे हैं, क्योंकि यदि ताले नहीं डले तो वह पत्नी के बिना पूछे ही जबरदस्ती खोल लेगा, क्योंकि उसके पूछने में वास्तविकता नहीं है। वह मात्र ऊपर-ऊपरी पूछ रहा है। लेकिन समझदार पत्नी ने कहा- हां ताले डाले हैं। सुखदेव ने कहा तो फिर चाबी कहां है? पत्नी ने एक बहुत अनूठी बात चाबी दिखाते हुये कही- यदि आप नौकर को बरखास्त कर दो तो मैं आपको यह चाबी दे दूंगी अर्थात् संदेह को बरखास्त कर दो तो यह रही चाबी, नौकर को हटाओ तो यह द्वार खुला है।
स्मरण रखना, चाबी छिपाई नहीं गयी है, मात्र संदेह के कारण दिखाई नहीं पड़ रही है। चाबी तो पूरे समय पत्नी के हाथ में है, सामने है। प्रकृति के दरवाजे बंद ही कहां है? लेकिन संदेह के कारण आपकी आंखे धुंधली हो गयी हैं, जिससे आप देख नहीं पा रहे हो। सारे धर्म यही कहते हैं कि नौकर को बरखास्त कर दो तो यह रही चाबी। यह चाबी ले लो और सब ताले खोल डालो। लेकिन संदेह के रहते आप भीतर प्रवेश न पा सकोगे, क्योंकि यह मन मंदिर संदेह के लिये नहीं है।
प्रेम का द्वार, आस्था का द्वार, संदेह के द्वारा नहीं खुल सकता। जहां भरोसा न हो, वहां हृदय का द्वार खुलेगा ही कैसे? संदूक तो आप तोड़ लोगे, लेकिन हृदय को कैसे तोड़ोगे? और यदि हृदय को तोड़कर भी आप देखोगे, तो क्या पाओगे मात्र हड्डी मांस के अलावा वहां और कुछ नहीं मिलेगा, जो होगा वह तोड़ने में ही जा चुका होगा। कुछ चीजें हैं, जो तोड़ने में खो जाती हैं और जो तोड़ने में खो जाती है, उसे आप प्राप्त नहीं कर सकते। तो सुखदेव कि समझ में आ गया कि संदेह से द्वार न खुलेगा, चाबी न मिलेगी। अतः उसने नौकर को बरखास्त कर दिया। लेकिन पत्नी उदास होकर हट गई वहां से। यह उदासी इसलिये है कि नौकर को आपने बरखास्त तो किया, मगर संदेह के बाद। काश, यदि इस नौकर की बात मानी न होती तो पत्नी प्रफुल्लित होती। लेकिन सुखदेव के मन में संदेश समा गया था। इसलिये पत्नी से चाबी मांगता रहा। लेकिन जैसे पत्नी ने चाबी दी और वह उदास होकर अलग हट गयी कि फिर सुखदेव भी संदूक न खोल सका और अंत में चार नौकरों को बुलवाकर बिना संदूक खोले उसे जमीन में गड़वा दिया और उसके बाद फिर कभी यह बात भी नहीं उठाई गयी।
मगर पत्नी पर संदेह था, इसलिये प्रेम न रहा होगा। प्रेम कोई वस्तु नहीं है जो आप बाजार से खरीद लाओ। क्योंकि जबरदस्ती तो प्रेम पैदा होने की सब संभावनाएं समाप्त हो जाती है। और जब जबरदस्ती में किसी को प्रेम करते हो, तो वहां प्रेम कैसे होगा? प्रेम की जगह मात्र अभिनय हो सकता है। इसलिए सौ में से निन्यानवें पति-पत्नी अभिनय मात्र कर रहे हैं। वह एक-दूसरे को जतला रहे हैं कि प्रेम है लेकिन उनमें प्रेम नहीं है प्रदर्शन है। क्योंकि जबरदस्ती में तो प्रेम हो ही नहीं सकता है। प्रेम तो स्वेच्छा से दिया गया दान है, यदि उसे जबरदस्ती मांगा कि खो गया। इसलिये प्रेम की शिक्षा नहीं ले सकते। प्रेम को किसी से लूट नहीं सकते। प्रेम का शोषण नहीं कर सकते। क्योंकि वह स्वेच्छा से दिया गया दान है। उसे दूसरा देना चाहे तभी मिलता है, यदि कोई देना न चाहे तो जबरदस्ती नहीं लिया जा सकता।
यही सोचकर सुखदेव ने चाबी का उपयोग नहीं किया, किन्तु नौकरों से संदूक को दूर जमीन में गड़वा दिया। उसने सोचा यदि खोलता हूं तो साफ जाहिर हो जायेगा कि प्रेम नहीं है। इसलिये उसने अपनी बुद्धि से काम लिया और संदेह होने के कारण संदूक को दूर जमीन में गड़वा दिया, सोचा यदि इसमें कोई आदमी होगा तो मर ही जायेगा। फिर न रहेगी बांस न बजेगी बांसुरी, सारी झंझट समाप्त हो जायेगी। पत्नी का प्रेमी जब खत्म हो जायेगा तो वह फिर सिर्फ मुझे ही चाहेगी। मगर इस बात को पत्नी समझ गयी कि यदि सही प्रेम होता तो संदेह न होता, फिर वह चाबी ही क्यों लेता। संदूक की चर्चा ही क्यों करता।
वह तो मौका था कि सुखदेव चाबी फेंक देता और पत्नी को गले लगा लेता और संदूक को भी वहीं रहने देता और फिर उसकी चर्चा भी कभी नहीं उठाता। परन्तु उसने यह सोचा ही नहीं कि चाबी के लेने से मेरे और पत्नी के बीच में बहुत फासला हो जायेगा। जिसे फिर पूरा नहीं किया जा सकता। मात्र खाली संदूक के पीछे मैं पत्नी को गंवा दूंगा। मगर उसने बुद्धि से सोचकर संदूक को दूर गड़वा दिया कि फिर से पुनः प्रेम हो जायेगा। परन्तु संदेह की स्थिति में कभी सच्चा प्रेम नहीं उमड़ता। संदेही का प्रेम वापिस नहीं लौट सकता। जब प्रेम से संदेह की दुर्गंध आने लगे तो वह प्रेम नहीं रह सकता, क्योंकि प्रेम असंदिग्ध होता है। प्रेम निर्दोष होता है। भले ही सुखदेव ने सोचा पत्नी चाबी देकर उदास इसलिये हो गयी कि उसमें उसका प्रेमी छिपा होगा जिसका भंडा फोड़ हो जायेगा। लेकिन इस संदेह की आग ने सारे प्रेम को जला दिया। इसलिये आप प्रेम के बीच संदेह को मत आने देना, अन्यथा आपका सारा प्रेम नष्ट हो जायेगा, आपके जीवन में संदेह की खडि़या जहर बनकर सब कुछ नष्ट कर देगी।
बहुत वर्ष पहले की बात है, पुराने जमाने में एक बुद्धिमान, गुणी, पंडित एक गांव मे रहता था। वहीं पर उसका एक चेला युवक था जो उस पंडित की सेवा करता, किन्तु इस गांव में रहते हुये उन्हें कुछ प्राप्त नहीं हो रहा था। इस गांव के लोग न तो विशेष धनवान थे और न ही दानी। यही कारण था कि पंडित तोता राम दिन-रात इसी चिन्ता में डूबे रहते कि वे क्या करें। अब तो इस गांव में उनका गुजारा होना कठिन हो रहा था। दुःखी होकर वे गांव छोड़कर शहर जाने की बात सोचने लगे। एक दिन उन्होंने अपने चेले गंगाराम को बुला कर कहा- बेटे गंगाराम! अब तो हमें यह गांव छोड़ना होगा, यदि तुम भी साथ शहर चलो तो अच्छा रहेगा।
लेकिन गुरुजी, हम शहर जाकर भी क्या करेंगे? किसके पास रहेंगे? आखिर कुछ तो आपने सोचा ही होगा। बेटा, मैंने सुना है कि मगध देश के राजा प्रताप सिंह बहुत ही भले, दयालु और दानी हैं। फिर जब उन्हें यह पता चलेगा कि मैं वैदर्भ ज्ञाता हूं, तो वे मुझे अपने बराबर बैठा लेंगे, मेरी पूजा करेंगे। गुरु जी, क्या आप इस ज्ञान का स्वयं लाभ नहीं उठा सकते? जब आप यह भली-भांति जानते हैं कि इस वैदर्भ मंत्र का जाप करने से हीरे-मोतियों की वर्षा होने लगती है।
बेटा! इस मंत्र का लाभ दूसरों को पहुंचाया जा सकता है स्वयं इसका लाभ नहीं उठाया जा सकता। जो भी कोई व्यक्ति इस मंत्र को जानता होगा, यदि वह इसका लाभ उठाने का प्रयत्न करेगा, उसकी मृत्यु उसी समय हो जायेगी। गंगाराम वहां से चला गया और वहां से जाकर तैयारी करने लगा था। उसे पता था कि उसके गुरुजी के पास एक ऐसा रहस्यमयी मंत्र है जिसकी शक्ति से वे हीरे-मोतियों की वर्षा करवा सकते हैं। कितना भाग्यशाली होगा वह राजा जो इनकी इस विद्या का लाभ उठाएगा। वह राजा तो संसार का सबसे बड़ा धनवान बन जायेगा किन्तु वे स्वयं शायद जीवन भर ऐसे ही रहेंगे। सारा सामान तैयार हो गया था। सुबह होते ही, दोनों गुरु और चेला अपना सामान सिर पर रखे हुये मगध देश की ओर चल पड़े थे। उनका सफर काफी लम्बा था। रास्तें में एक ऐसा भयंकर जंगल पड़ता था, जिसमें बड़े भयंकर डाकू रहते हैं। मगर पंडित तोता राम जैसे फक्कड़ को किसी चीज का डर ही नहीं था। वह तो ऐसे इस जंगल में जा घुसे थे जैसे कोई अपने घर जाता है। यह जंगल वास्तव में ही बहुत भयंकर था। घने जंगल में कहीं भी तो प्रकाश नाम की कोई चीज नजर नहीं आती थी। दोनों गुरु-चेला राजा प्रताप सिंह के बारे में बाते करते हुये आगे बढ़ रहे थे कि अचानक ही उन्होंने एक भयंकर आवाज सुनी- ठहरो! इस आवाज के सुनते ही दोनों ने डर से इधर-उधर देखने लगे और एक वृक्ष के नीचे सावधानी से खड़े हो गये। उनके कानों में घोड़ों की टापों की आवाजे भी सुनाई दे रही थीं।
गुरु जी, लगता है डाकू हमारी जान लेने आ गये हैं। हां बेटे, मामला कुछ टेढ़ा है। ये तो वही डाकू हैं जिनसे आस-पास के सभी लोग डरते हैं। इसी बीच डाकुओं का सरदार उनके सामने आ गया था। उसने अपनी नंगी तलवार को हवा में घुमाते हुये उनके सामने आकर कहा- कहो पंडित तोताराम कहां जा रहे हो? मैं मगध देश के राजा प्रताप सिंह के पास जा रहा हूं, डाकू लखन सिंह। यदि मैं तुम्हें यही से परलोक भेज दूं तो कैसा रहेगा? नहीं-नहीं यह नहीं हो सकता, गंगाराम ने डाकू सरदार के आगे जाकर हाथ जोड़ते हुये कहा। देखो बेटे, यदि तुम अपने गुरु की जान बचाना चाहते हो तो तुम्हें एक हजार सोने की मोहरें हमें लाकर देनी होंगी। डाकू सरदार चीखकर बोला। एक हजार मोहरें! यह कैसे संभव हो सकता है, गंगाराम की आवाज भर आयी थी। हो सकता है। यदि तुम मगध के राजा प्रताप के पास जाकर रोते हुये सब बातें बता दो, तो वे अवश्य ही एक विद्वान ब्राह्मण की जान बचाने के लिये एक हजार मोहरें दे देंगे।
हां, ठीक है, मैं अभी महाराज के पास जाता हूं और आपके लिये मोहरे लेकर आता हूं। हमें तुम्हारी यह शर्त मंजूर है, तुम्हारे आने तक हम तुम्हारे गुरु को इसी वृक्ष के साथ बांधकर रखेंगे। जब तुम हमारा कहा हुआ धन लेकर आ जाओगे तो हम इसे मुक्त कर देंगे। गंगाराम ने डाकू सरदार की बात मान ली और अपने गुरु के चरण छूकर उनके कान में कहा- देखो गुरुजी, मैं तो अब मोहरों का प्रबन्ध करने जा रहा हूं, आप इन लोगों से बचकर रहना। यह बहुत ही भयंकर और खूनी लोग लगते हैं, इन लोगों को मोतियों और हीरों वाला मंत्र मत बता देना। ये लोग उसे पाकर भी आपको नहीं छोड़ेंगे। गंगाराम डाकुओं से ही एक घोड़ा लेकर मगध की ओर चल दिया।
गंगाराम तो चला गया था। अब तोता राम को कसकर उस वृक्ष के साथ बांध दिया गया था। इतनी जोर से रस्सियां बांधी गई थीं कि उसका सारा शरीर दर्द कर रहा था। उसे पता था कि राजा प्रताप सिंह उस गंगाराम को सोने की मोहरे नहीं देंगे। उस हालत में वह मर जायेगा। मौत का नाम सुनते ही पसीने आ गये, सारा शरीर डर के मारे कांपने लगा था। मौत का नाम ही ऐसा है कि इसकी कल्पना से ही इन्सान की हालत खराब हो जाती है। पंडित तोता राम तो बेचारे पहले से ही छोटे दिल के थे। अचानक तोता राम को ख्याल आया कि मेरे पास जो मंत्र है, उसका मुझे क्या लाभ हो सकता है? गंगाराम ने तो जाते-जाते कहा था कि उस मंत्र का लाभ इन डाकुओं को न पहुंचने देना, मगर उसे क्या पता कि मेरी मौत के पश्चात् इस मंत्र का क्या होगा? ये हीरे-मोती यहीं पर धरे रह जायेंगे। फिर इसका किसी को भी लाभ नहीं हो सकता। फिर क्यों न मैं आज इस मंत्र का लाभ उठाऊं। यह मंत्र वर्ष में केवल एक बार ही अपनी शक्ति दिखा सकता है। यदि ये डाकू हीरे-मोती ले भी लेंगे तो मेरा क्या जाता है, इससे मेरी जान तो बच जायेगी। यही ठीक रहेगा मेरे लिये, अपनी जान बचाने के लिये इंसान कुछ भी कर सकता है। मेरे सामने और कोई रास्ता नहीं रह गया है। यही सोचकर पंडित ने डाकू-सरदार को अपने पास बुलाया और बोला- देखो डाकू सरदार, यदि तुम मुझे अपने बंधन से मुक्त कर दो तो मैं तुम्हें बहुत कीमती-हीरे मोती दे सकता हूं।
पंडित की बात सुनकर डाकू बोला- अरे ओ कंगले पंडित! तेरे पास तो इस समय फूटी कौड़ी भी नहीं, तू कहां से देगा हीरे-मोती। डाकू सरदार, मेरे पास एक ऐसा मंत्र है जिसका एक हजार बार जाप करने से हीरे मोतियों की वर्षा होने लगती है। पंडित! तुम कहीं मेरे साथ धोखा तो नहीं कर रहे? नहीं, आप मुझ पर विश्वास करें, फिर आप जानते हैं कि मैं आपसे धोखा करके बच नहीं सकता। यदि तुम वास्तव में ही सच बोल रहे हो तो मुझे यह सौदा मंजूर है। मैं तुम्हें यह अवसर देता हूं। तुम हीरे-मोतियों की वर्षा करवा दो। मैं तुम्हे उसी समय छोड़ दूंगा। बोलो इसके लिये मुझे क्या करना होगा? पहले मुझे आजाद करो, फिर मैं नदी में नहाकर इसी वृक्ष के नीचे बैठकर उस मंत्र का जाप करूंगा, उसके पश्चात् हीरे- मोतियों की वर्षा आरम्भ हो जायेगी।
उसी क्षण पंडित की रस्सियां खोलकर उसे आजाद कर दिया गया। वह उसी समय नदी पर नहाने चला गया। थोड़ी देर में वह नहाकर आया तो, उसी वृक्ष के नीचे बैठकर विधिवत मंत्र का जाप करने लगा। कुछ ही समय के पश्चात् हीरे-मोतियों की वर्षा होने लगी। चारों ओर हीरे मोती बिखरे पड़े थे, डाकू लोग भागकर इन्हें इकट्ठा कर रहे थे, साथ ही खुशी से झूम रहे थे, इतना बड़ा धन उन्हें मिल गया था, कि अब तो वो किसी राजा से भी बड़े अमीर बन गये थे। डाकुओं ने सारे हीरे मोती इकट्ठे करके अपने खुफिया खजाने में भर लिये।
फिर पंडित से कहा- अब तुम यहां से चले जाओं, मगर जाने से पहले एक बात और सुन लो। क्या—-? पंडित तोता राम ने डरते-डरते पूछा। तुम्हें यह बात किसी से भी बतानी नहीं होगी कि हमारे पास इतना बड़ा खजाना है। अभी पंडित वहां से जाने के लिये ही उठा ही था कि उसे जंगल में से घोड़ों की टापों की आवाज सुनाई दीं, यह आवाज डाकू पान सिंह के कानों में पड़ी।
डाकू दिलावर सिंह ने डाकू पान सिंह को चारों ओर से घेर लिया था, पान सिंह और दिलावर सिंह दोनों पेशे से डाकू थे। लेकिन कभी भी इन दोनों का इस प्रकार आमना- सामना नहीं हुआ था। डाकू दिलावर सिंह को पता चल गया था, कि हीरे-मोती की वर्षा हुई थी और वह खजाना दिलावर सिंह के पास है। हीरे-मोती की वर्षा हुई थी और वो सारा खजाना तुम्हारे पास है, यह मैं कैसे सहन कर सकता हूं।तुम पागल हो दिलावर सिंह जो इतनी सी बात के लिये मारने-मरने पर तैयार हो जबकि हीरे-मोतियों की वर्षा कराने वाला यह पंडित है।
दिलावर ने कहा- ओ पंडित चल हमारे लिये भी हीरे-मोतियों की वर्षा कर, हमें इससे भी अधिक अमीर बना दे। लेकिन दिलावर सिंह, यह मंत्र केवल साल में एक ही बार अपनी शक्ति दिखाता है, अब आपको यदि अमीर बनना है तो एक वर्ष तक इंतजार करना होगा। पोंगे पंडित तू मुझे मत पढ़ा, मैं समझ गया तू ऐसे नहीं मानेगा, मैं अभी तेरा प्रबंध करता हूं, दिलावर सिंह गले से पकड़ कर पंडित को ऊपर उठा लिया। वर्षा नहीं हो सकती, तो तुम्हारी जान भी नहीं बच सकती, हम पेशेवर डाकू हैं।
मार-मार कर बेचारे पंडित की हालत खराब कर दी थी दिलावर सिंह ने। वह तो पहले से ही सूख-सूख कर हड्डियों का ढांचा हो रहा था, जीवन भर तो वह भगवान की पूजा करता रहा, लोगों की भलाई की दुआएं मांगता रहा, आज तक सबका भला ही किया था——-बेचारा पंडित पीटता रहा, उसके मुंह से खून निकल रहा था, सारा शरीर जख्मों से भरा पड़ा था। पंडित बेचारा पानी-पानी चिल्लाता हुआ मर गया।
उधर डाकू पानसिंह हीरे-मोतियों के खजाने के साथ भाग रहा था, आगे-आगे डाकू पान सिंह जा रहा था, उसका पीछा करते हुये डाकू दिलावर सिंह। फिर दोनों पक्षों में घमासान युद्ध छिड़ गया और पानसिंह- दिलावर सिंह के अलावा दोनों के सारे साथी मारे गये। अंत में दोनों ने एक-दूसरे को मारने के बजाय समझौता करना ज्यादा उचित समझा और आपस में दोस्ती कर ली, लेकिन दोनों के मन में एक-दूसरे के लिये पाप था। दोनों को भूख लगी थी तो पान सिंह खाना लाने चला गया। इधर दिलावर सिंह ने सोचा मैं पान सिंह को मार कर सदा के लिये समाप्त कर देता हूं, तो वहीं पान सिंह ने सोचा दिलावर तो बड़ा हरामी है, कभी भी धोखा दे सकता है, उससे पहले मैं इसे खाने में जहर डालकर मार देता हूं।
जैसे ही पान सिंह दिलावर सिंह के लिये खाना लेकर आया, छिपकर बैठे दिलावर सिंह ने एक ही झटके में पान सिंह के सिर को धड़ से अलग कर दिया, दिलावर सिंह को इस समय बड़ी जोर की भूख लग रही थी, दिलावर सिंह ने खाना देखकर उसे खाना शुरू कर दिया। देखते-देखते वह सारा खाना चट कर गया।
मगर कुछ समय बाद जहर ने अपना असर दिखाया और दिलावर सिंह जहां बैठा था, वहीं पर सदा के लिये ढ़ेर हो गया। खजाना वैसा का वैसा रखा रहा, परन्तु खजाने को पाने वाले सब के सब मर चुके थे।
यही दशा मनुष्य की है, वह सम्पूर्ण जीवन खजाना पाने के लिये नीच से नीच कर्म करता है। सबसे बड़ी बात आज का मनुष्य अपनो के बीच ही अपनों के साथ छल, झूठ, फरेब, विश्वासघात, कपट करके अपना खजाना भरता रहता है अथवा अपने स्वार्थ युक्त कार्यों को हर स्थिति में पूर्ण करना चाहता है। उसे इस बात की जरा भी फिक्र नहीं होती कि उसके इन हरकतो से सामने वाले को कितनी पीड़ा से गुजरना पड़ता होगा।
इस संसार में लोग खजाने के लिये कुछ भी करते हैं, परन्तु यह खजाना जहां का तहां रह जाता है और सारे मनुष्य यहां से चले जाते हैं, ध्यान रहे इस मृत्यु लोक से कोई भी जिन्दा नहीं जाता। इस संसार में मात्र मनुष्य ही अपनी इंसानियत से नीचे गिरता है, आदमी ही नीचे गिरता है पशु-पक्षी नहीं और इस दुनिया में मात्र आदमी ही ऐसा प्राणी है, जो पागल हो जाता है, जो दूसरों से सुख-शान्ति का रास्ता पूछता है, जो दूसरों से आनंद पूछता है, जो दूसरों से अपना भविष्य पूछता है। लेकिन फूल कभी किसी से नहीं पूछते कि कैसे खिले, कैसे अपनी सुभाष फैलाए। तारे नहीं पूछते कि कैसे जले, पक्षी नहीं पूछते कि कैसे आनंद से आकाश में उड़े।
मात्र आदमी को ही पूछना पड़ता है कि वह वहीं हो जाए जो होने को पैदा हुआ है। कैसे अपनी आत्मा को परमात्मा बना ले। यह आदमी की बड़ी अद्भुत भूल है। क्योंकि वह पैदा हुआ तो था स्वतंत्रता के लिये लेकिन परतंत्र हो जाता है। हुआ था पैदा संसार सागर से पार होने के लिये लेकिन बीच मझधार में ही भटक जाता है।
सोचता है धन से, हीरे-जवाहरत से, दुकान-मकान से, बीवी-बच्चों से शान्ति मिलेगी। जैसे आप भी सोचते हो, लेकिन क्या कभी इस से शान्ति मिल सकती है? हां सब यह वस्तुएं तो मिल सकती हैं, लेकिन इन से शान्ति खो जाती है। क्योंकि धन से रूपयों से सुख-शान्ति आनंद नहीं मिल सकता है। धन से गादी-रजाई तो मिल सकती है सुख की नींद नहीं। धन से पानी तो मिल सकता है पर प्यास नहीं। धन से रोटी तो खरीदी जा सकी है पर भूख नहीं। धन से मनोरंजन के साधन तो खरीदे जा सकते हैं, पर साधना समाधि, सुख-शान्ति आनंद नहीं।
परम पूज्य सद्गुरुदेव
कैलाश चन्द्र श्रीमाली जी
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