इसे हिन्दी में गठिया रोग या ग्रन्थिवात कहते हैं। यह रोग अत्यन्त कष्टप्रद होता है। इसमें हाथ, पैर, घुटने, कन्धे, पेट आदि के साथ शरीर के विभिन्न जोड़ों के स्थानों पर पीड़ा उत्पन्न होती है। अंग पीड़ा के साथ पाचन तंत्र ठीक से कार्य नहीं करता, जिसके कारण अरुचि, अग्निमांद्य, स्वाद बिगड़ना, मुंह से पानी आना, अनिद्रा, उल्टी, कब्ज, प्यास, दाह की उत्पत्ति होती है। रोग बढ़ने की स्थिति में ज्वर भी संभावित है। प्रायः प्रौढ़ावस्था के बाद इस रोग की उत्पत्ति अधिक देखी जाती है। यदि आहार-विहार का उचित अनुशीलन न किया जाये तो कम आयु में भी यह रोग हो सकता है।
व्यायाम न करना, अग्नि तत्व का मन्द होना, आवश्यकता से अधिक भोजन करना, चिकना भोजन करना, खाये हुये पदार्थों का कच्चा रस आदि स्थितियों में आमवात रोग उत्पन्न होता है। विरूद्ध आहार-विहार करने वाले एवं मन्दाग्नि वाले व्यक्तियों के भारी गरिष्ठ पदार्थों के सेवन से आम दूषित होकर वायु की प्रेरणा से धमनियों में प्रवेश कर पीड़ा की उत्पत्ति करती है। आमवात रोग उत्पन्न होने के और भी कारण होते हैं- सीलन भरे घर में रहना, शीतल हवा में रात के समय बिना कपड़े ओढ़े खुले सोना, पसीने को रोकना, गर्मी या धूप से तपे शरीर में ठण्डे जल से नहाना, व्यायाम न करना इत्यादि।
आमवात से जठराग्नि मन्द हो जाती है मुंह में थूक आता है या मुंह एवं नाक से पानी गिरता है, अरुचि होती है, शरीर में भारीपन होता है, मुंह का स्वाद बिगड़ जाता है, दाह या जलन होती है, पेशाब अधिक आता है, पेट कड़ा हो जाता है, शूल चलता है, नींद नहीं आती, प्यास अधिक लगती है, वमन होती है, बेहोशी आती है, हृदय में जड़ता होती है, मल रूक जाता है, शरीर जड़ हो जाता है, पेट अफारा हो जाता है।
सभी रोगों में अत्यन्त कष्ट जनक जब यह आमवात अधिक कुपित होता है, तब हाथ, पांव, मस्तक, गुल्फ, त्रिक, घुटने, सांथल और घुटनों के जोड़, इनमें पीड़ा युक्त सूजन उत्पन्न करता है। यह आमवात बिच्छू के कांटे हुये के समान घोर पीड़ा करता है। आमवात से जठराग्नि निर्बल हो जाती है, मुख में थूक आने लगता है, उत्साह का नाश, दाह, मूत्र की बहुलता, पेट में कठिनता, शूल, निद्रा का नाश, तृषा, वमन मूर्च्छा, हृदय में जड़ता, मल का अवरोध, जड़ता आंतों का कूंजना, अफारा और दूसरे भी दुःखदायक उपद्रव होते हैं।
यदि शूल की अधिकता हो तो वायु का आमवात होता है। शरीर में दाह एवं लाली होने पर पित्त से प्रकुपित आमवात होता है। यदि शरीर में गीलापन लगे एवं खुजली चले तो कफ से प्रकुपित आमवात समझना चाहिये। दो या तीन दोषों के लक्षण मिले हुये भी पाये जा सकते हैं। जो आमवात एक दोष का हो तो साध्य होता है दो दोषों का हो तो याप्य समझना चाहिये और जो तीनों दोषों का हो यथा सम्पूर्ण शरीर में सूजन हो तो ऐसा असाध्य होता है।
आयुर्वेद में इस रोग को दूर करने हेतु अनेक औषधि योग उपलब्ध है। यदि उनका उचित रूप से लक्षणानुसार प्रयोग किया जाये तो रोग निवृत्ति संभव है। यदि रोग नया हो तो लाभ शीघ्र होता है, अतः रोग होते ही फौरन इलाज करना चाहिये क्योंकि देर होने पर रोग कष्ट साध्य हो जाता है। यदि रोग नया हो तो साधारण औषधियों को प्रयोग करना चाहिये। रोग के पुराने या बढ़ने पर बहुमूल्य रस या भस्मों के मिश्रित योगों का सेवन करना उचित है।
चिकित्सा- लंघन, स्वेदन एवं विरेचन आमवात की प्रमुख चिकित्सा है अर्थात् उपवास करने, पसीना निकालने एवं दस्त होने से आमवात रोग में शीघ्र आराम मिलता है। आमवात में अगर दर्द हो तो दर्द शान्ति हेतु कपड़े में बालू भरकर (आग पर गर्म करके) दर्द के स्थान पर सेंक करना चाहिये। इसे रूक्ष स्वेदन कहते हैं।
इसके अलावा निम्न उपाय कर सकते हैं-
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