वर्तमान समय में प्रेम और समर्पण की परिभाषा में परिवर्तन आ गया है। इन तत्वों में अत्यधिक ह्रास पूर्ण स्थितियां उत्पन्न हुई हैं। पूर्व काल में ऐसा नहीं था, मनुष्य अपने सम्बन्धों की महत्ता, गरिमा के साथ-साथ आत्मीय रूप से जुड़ाव बनाये हुये था। परन्तु समय के अनुसार लोगों के आत्मीय भाव में अत्यधिक गिरावट आयी, जिसका मूल कारण स्वयं का स्वार्थी होना है। आज कोई भी किसी भी निकटतम सम्बन्ध पर भी बिना शंका भाव के पूरी तरह विश्वास नहीं कर पाता। इस समय मनुष्य अपनी मनुष्यता के सबसे निचले स्तर पर है, ऐसी ही गिरावट गुरु-शिष्य सम्बन्ध में भी हुयी, शिष्य का समर्पित ना होना, उसकी असफलता का मूल कारण है।
सत्युग में माता कैकेयी की इच्छा और राजा दशरथ की मूक आज्ञा से भगवान श्रीराम वन जाने को तैयार हुये। उनके वन जाने की बात सुनकर लक्ष्मण ने भी साथ चलने की आज्ञा मांगी। भगवान श्रीराम ने कहा- भैया! जो लोग माता, पिता, गुरु और स्वामी की सीख को स्वभाव से ही सिर चढ़ाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने ही अपना जन्म पूर्ण रूप से सार्थक किया है, अन्यथा इस जगत में जन्म व्यर्थ है। मैं तुम्हें साथ ले जाऊंगा तो अयोध्या अनाथ हो जायेगी। गुरु, माता, पिता, परिवार, प्रजा- सभी को बड़ा दुःख होगा। तुम यहां रहकर सबका परितोष करो, नहीं तो बड़ा दोष होगा।
श्रीराम जी की इन बातों को सुनकर लक्ष्मण जी व्याकुल हो गये और उन्होंने श्रीराम के चरण पकड़ कर कहा-स्वामी! आपने मुझे बड़ी अच्छी सीख दी, परन्तु मुझे तो अपने लिये यह असम्भव ही लगा, यह मेरी कमजोरी है। शास्त्र और नीति के तो वे ही नरश्रेष्ठ अधिकारी हैं, जो धैर्यवान और धर्म के अनुयायी हैं। मैं तो प्रभु के स्नेह से पाला-पोसा हुआ छोटा बच्चा हूं। भला! हंस भी कभी मन्दराचल या सुमेरु को उठा सकता है। मैं आपको छोड़कर किसी भी गुरु या माता-पिता को नहीं जानता। यह मैं स्वभाव से ही कहता हूं, आप विश्वास करें। जगत् में जहां तक स्नेह, आत्मीयता, प्रेम और विश्वास का सम्बन्ध वेदों में बताया गया है, वह सब कुछ मेरे तो बस केवल आप ही हैं, आप मेरे दीनबन्धु हैं। धर्म-नीति का उपदेश तो उसे कीजिये, जिसको कीर्ति, विभूति या सद्गति प्यारी लगती है। जो मन, वचन, कर्म से आपके चरणों में ही रत हो, कृपा सिन्धु! क्या वह भी त्यागने योग्य है?
ऐसे दिव्य भावों से आपूरित सम्बन्ध आज-कल देखने को नहीं मिलते। लक्ष्मण ने यहां भाई होने का अधिकार नहीं मांगा वे एक भक्त की भांति परम परमेश्वर से याचना कर रहें हैं। प्रेम को बिना जाने कोई समर्पण नहीं हो सकता और जो समर्पित नहीं है, वह शिष्य नहीं बन सकता है। शिष्य होने का ढोंग एक अलग बात है, शिष्य होना दूसरी बात है। शिष्य तो वही है, जो अपने सिर को काटकर जमीन पर रख दे अर्थात् अपने भीतर समस्त अहंकार को गुरु चरणों में अर्पित कर दे, अहंकार जरा सा भी बचा हो तो शिष्यत्व कहां रह जाता है ? जो ऐसा झुके कि फिर उठे ही नहीं, वही शिष्य है। शिष्य को कहां फुरसत, शिष्य को अपने गुरु में सब मिल गया। शिष्य को अपने गुरु में सारे बुद्ध पुरुष मिल जाते हैं, अतीत के, वर्तमान के, भविष्य के, उसने सारी सम्पदा पा ली। अब कहां जाना ? अब क्यों जाना? अब किस लिये जाना? किसके पास जाना? जब प्यास बुझ गयी हो तो झरने नहीं खोजे जाते, कुएं नही खोदे जाते।
शिष्य और विद्यार्थी में बड़ा अन्तर है, विद्यार्थी का अर्थ है, जो ज्ञान बटोर रहा है। जहां से मिल जाये, कहीं से भी मिल जाये। विद्यार्थी अपने अहंकार को ज्ञान से भर लेने में उत्सुक है। जितना ज्यादा जान लेगा, उतना ज्यादा होगा। जानकारी उसका लक्ष्य है। तो ऐसा ही नहीं है कि बुद्ध पुरुषों के पास ही जायेगा। जो बुद्ध पुरुष नहीं है, उनके पास भी चला जायेगा। कहीं भी कुछ हो, विद्यार्थी तो सिर्फ ज्ञान बटोरने में लगा रहता है। अज्ञानी से भी मिलता हो तो उससे भी बटोर लेना चाहता है। भले ही वह उसे कूड़ा-करकट दे, उसे भी ले लेता है। ज्ञान और अज्ञान से विद्यार्थी का कोई प्रयोजन नहीं, उसे सिर्फ इकठ्ठा करना है। कुछ तथ्य मिल जाये, थोड़ी सम्पत्ति ज्ञान की और बढ़ जाये—! लेकिन ज्ञान बटोरने से नहीं मिलता। ज्ञान के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा यही जानकारी है।
शिष्य वह है, जो अपनी जानकारी छोड़ देता है, जो कहता है, अब मुझे जानना ही नहीं- अब मुझे होना है। होने के लिये एक काफी है, जानने के लिये अनेक भी कम हैं। संसार भर में भटकते रहो जानने के लिये, लेकिन जानकारी पूरी नहीं होगी। बुद्ध और महावीर एक साथ हुये, एक ही समय में हुये, एक ही प्रदेश में हुये। कभी-कभी ऐसा हुआ कि एक गांव से बुद्ध गुजरे, उसी गांव में दूसरे दिन महावीर गुजरे। कभी ऐसा हुआ कि एक ही गांव में दोनो ठहरे भी, चौमासा एक ही गांव में हुआ। एक बार तो ऐसा हुआ कि एक ही धर्मशाला के आधे हिस्से में बुद्ध ठहरे, आधे हिस्से में महावीर ठहरे। बुद्ध का कोई शिष्य महावीर के पास गया, कि महावीर का कोई शिष्य बुद्ध के पास गया, तो दूसरे शिष्यों के मन में स्वभावतः प्रश्न उठा कि बुद्ध का जो शिष्य महावीर के पास गया है, क्या उसे बुद्ध से नहीं मिल रहा है? बुद्ध तो बरसा रहें हैं औरों को तो मिल रहा, उसे नहीं मिल रहा है? कहीं चूक उससे हो रही है। उसके पात्र में नहीं समाता, नहीं आता। उसके ही द्वार बंद है। तो बजाय द्वार खोलने के, वह यही सोचता है कि शायद बुद्ध के पास नहीं है, महावीर के पास मिल जाये, महावीर के पास नहीं है, रामकृष्ण के पास मिल जाये, रामकृष्ण के पास नहीं है, रामदास के पास मिल जाये! यहां जाऊं, वहां जाऊं? कहीं से बटोर लूं।
बड़ी बात यह है कि उसे प्राप्त करने की कला ही नहीं आती। तो बुद्ध के पास भी चूकेगा और महावीर के पास भी चूकेगा और रामकृष्ण के पास भी चूकेगा, सदियों-सदियों तक चूकेगा। ऐसा समझों कि एक अंधा आदमी है। उसे दिखाई नहीं पड़ता, तो वह कहता है, यह दीया रोशनी नहीं देता, मैं दूसरा दीया तलाशूगां। मैं और अच्छा दीया खरीदूंगा। मैं ऐसा दीया लाऊंगा, जिसमें मुझे दिखाई पड़ना शुरु हो जाये। वह दूसरा दीया ले आता है। लेकिन अंधे आदमी को क्या फर्क पड़ता है। यह दीया हो कि वह दीया हो। सब दीये बराबर है। अंधा आदमी अंधेरे में रहता है। फिर इस दीये से भी थक जाता है तो और दीया खोजता है। मगर एक बार भी उसे ख्याल नहीं आता कि मैं अपनी आंख का इलाज करूं, उपचार करूं।
बुद्ध में भी मिल जायेगा, महावीर में भी मिल जायेगा, कृष्ण में भी मिल जायेगा, क्राइस्ट में भी मिल जायेगा, हजारो दीये जले हैं। सभी दीयों में एक ही रोशनी है। मगर अंधे को किसी में नहीं मिलेगा। पर अंधे का अहंकार यह भी मानने के लिये राजी नहीं होता कि मेरी आंखों में कोई खराबी है, इसलिये दिखाई नहीं पड़ता। अंधे का अंहकार यही कहता है, इस दीये में रोशनी न होगी, कोई और दीया तलाशूं, इस कुएं में पानी नहीं है, किसी और कुएं की खोज करूं और मेरे कंठ को पीना नहीं आता, यह बात अहंकार स्वीकार नहीं करता। अहंकार दोष अपने ऊपर नहीं लेता। ऐसे लोग दया के पात्र हैं। जो इस तरह भटकते हैं, उन्हें भटकने से कुछ भी नहीं मिलेगा। भटकने से हो सकता है, कुछ कूड़ा-करकट इकठ्ठा कर लें, कुछ जानकारियां इकट्ठी कर लें। वे जानकारियां उसके जीवन के लिये और बाधा बन जायेंगी।
इधर-उधर भटकने वाले लोग, न यहां के होते हैं न वहां के। न घर के न घाट के- धोबी के गधे हो जाते हैं। आधे में लटक जाते हैं। विपरीत बातें सुन लेते हैं और मुश्किल बढ़ जाती है। क्योंकि महावीर ने कुछ और बुद्ध ने कुछ और कहा और दोनों ठीक ही कहते होंगे। अपने-अपने रास्ते पर बात ठीक ही होगी। लेकिन इस तरह के आदमी की हालत वही हो जाती है, जैसे कोई बीमार होम्योपैथ के पास जाए, आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास जाये, ऐलोपैथिक डॅाक्टर के पास जाये, नेचरोपैथिक डॅाक्टर के पास जाये, हकीम के पास जाये और सब की बातें सुन ले! और उन सब की बातें बीमारी को हटायेंगी नहीं, इस बीमार के शरीर को ही बीमार नहीं, बल्कि मन को भी बीमार कर देंगी। वह तब और मुश्किल में पड़ जायेगा। क्योंकि वे अलग-अलग मार्ग है। उन सब की अलग-अलग दृष्टियां है। तुम्हारे पास आंख नहीं है। इसलिए तुम एक भी बिन्दु को नहीं समझ पा रहे हो। सारे बिन्दुओं को कैसे समझ पाओंगे! तुम सिर्फ उलझन में पड़ जाओगे। तुम्हारी गांठ और उलझ जायेगी। ग्रंथि खुलेगी नहीं- ग्रंथियां ही ग्रंथिया आ जायेंगी। फिर ऐसी मुसीबत होगी कि तुम यह करोगे तो भीतर से एक स्वर कहेगा, यह गलत और जो स्वर कह रहा है गलत, वह करोगे तो दूसरा स्वर कहेगा यह गलत।
मेरे पास किसी गुरु को मानने वाले कोई व्यक्ति कभी आ जाते हैं। मैं उनसे पूछता हूं कि यहां आने की जरूरत क्या? वे कहते हैं लेकिन कृष्णनारायण के पास बीस वर्षों से हम हैं, अभी तक कुछ हुआ नहीं। तो मैं कहता हूं कि यह बात साफ हो गयी कि कुछ नहीं हुआ? तो ध्यान करो, वे कहते हैं लेकिन ध्यान से क्या होगा? वे तो कहते हैं ध्यान करने से कुछ न होगा। अब यह उलझन हो गयी! वे जो उसके गुरु हैं, कहते हैं, उन्होंने जो बताया उससे कुछ हुआ नहीं। अगर मैं कुछ कहता हूं तो उसमें उसके गुरु की बात बाधा है कि इससे क्या होगा ?
मेरे पास कोई है। ध्यान कर रहा है और ध्यान से नहीं हो रहा और दूसरे के पास जायेगा और उनसे कहेगा कि मैं वहां उनके पास हूं और ध्यान करता हूं, ध्यान से कुछ नहीं हो रहा। वे कहेगें ध्यान से कभी कुछ हुआ ही नही। अब तुम्हारी झंझट और बढ़ गयी, अब ध्यान करोगे तो वे दूसरे गुरु बाधा बनेंगे और उनकी मानकर चलोगे तो मैं बाधा बनूंगा। अब तुम दो तरफ खीचे जाओंगे। यह तो मैं सरल उदाहरण ले रहा हूं। अगर तुमने दस-पच्चीस मार्गो की बातें जान लीं तो तुम पच्चीस तरफ खीचें जाओगे। तुम वैसे ही मुर्दा हो और मर जाओगे।
पहली बात जो शिष्य अपने गुरु को छोड़कर दूसरे के पास जाये वह शिष्य नहीं है, विद्यार्थी होगा वह। विद्यार्थियों को आज्ञा है, जहां उसकी मर्जी हो जायें। विद्यार्थियों में कुछ भी ऐसा मूल्यवान नहीं है, जिसके लिये चिंता करने की कोई आवश्यकता है। बचपन में गांव के बच्चे जब खेलते थे, अब तो ऐसा होता नहीं, पहले होता था। बड़े बच्चे जब खेलते हैं और कोई छोटा बच्चा भी बीच में आ जाता है, ऊधम करने लगता है कि मैं भी सम्मिलित होऊंगा तो उसे सम्मिलित कर लिया जाता था और उसका एक खास नाम था दूध की दुहनियां। उसकी कोई फिक्र नहीं करता था। उसको उछलने-कूदने दो, उसको ख्याल रहने दो कि वह सम्मिलित है। लेकिन वह सम्मिलित नहीं है। जो खेलने वाले हैं, वे जानते हैं कि वह हिस्सा नहीं है।
मगर उसको हटाना मुश्किल है। वह रोता है, शोर-गुल मचाता है, पंचायत बड़ी करता है। तो उसको स्वीकार कर लिया जाता था। लेकिन एक कोडवर्ड था दूध की दूहनियां। अभी दूधमुहां बच्चा है, खेलने दो। इसको उछलने-कूदने दो। वह नाहक ही उछल-कूद रहा है और बड़ा प्रसन्न हो रहा है। खेल का वह हिस्सा है ही नहीं। उसकी कोई गणना नहीं है खेल में। उससे न हार होगी, न जीत होगी। न उसके उछलने-कूदने का कोई परिणाम होगा।
जो विद्यार्थी है, वह दूध की दूहनियां है! वह आये, जाये, जहां सुनना हो, जिसको सुनना हो, जैसा करना हो करे। लेकिन वह शिष्य नहीं है। जिसका बार-बार आना-जाना समाप्त हो जाता है, वही शिष्य है। समर्पित भी वह नहीं है, समर्पण का अर्थ ही होता है बात समाप्त होगी। मुझे मेरा सत्य मिल गया। मुझे वे आंखें मिल गयीं। जिनके द्वारा मैं देखना चाहूंगा। मुझे वे हाथ मिल गये, जिन हाथों के द्वारा मैं चलना चाहूंगा मेरे लिये सारा संसार खाली हो गया। समर्पण का क्या अर्थ होता है? यह व्यक्ति मेरा गुरु और इस व्यक्ति के अतिरिक्त मेरा कोई गुरु नहीं। इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं होता कि दूसरे गुरु नहीं हैं। दूसरे गुरु हैं, वे किन्हीं दूसरे समर्पित लोगों के गुरु होंगे। जब तक तुम किसी के प्रति समर्पित नहीं हो, तब तक वह व्यक्ति तुम्हारे लिये गुरु नहीं है। ख्याल रखना, गुरु कोई ऐसी चीज नहीं है कि किसी के ऊपर छाप लगी है गुरु होने की। गुरु तो शिष्य और ज्ञानी के सम्बन्ध का नाम है। कृष्णनारायण किसी के गुरु होंगे। रमण किसी के गुरु होंगे। रामकृष्ण किसी के गुरु होंगे।
जो ऐसा करते हैं, कभी इनके पास, कभी उनके पास वे न तो शिष्य हैं, न समर्पित हैं और फिर चोरी-छिपे करने की तो कोई जरूरत ही नहीं है। चोरी-छिपे इसलिये करते हैं कि हैं तो विद्यार्थी, लेकिन दिखलाना चाहते हैं कि शिष्य हैं, क्योंकि शिष्य होने की जो गरिमा है, वह भी अहंकार छोड़ना नहीं चाहता। यह मानकर मन में कष्ट होता है कि मैं और विद्यार्थी तो चोरी-छिपे करते हैं।
कुछ हर्ज नहीं है। जो करना हो सीधे-सीधे करना चाहिये। चोरी-छिपे करने की क्या जरूरत है? चोरी- छिपे तो और उलटा पाप हुआ। चोरी-छिपे तो यह मतलब हुआ कि तुम मुझसे छिपाते हों, तो मुझसे सारे सम्बन्ध टूट गये। मेरे सामने खुलोगे तो सम्बन्ध घनिष्ट होंगे। मुझसे छिपाओगे तो कैसे सम्बन्ध गहन होंगे। एक युवती को जाना था, कृष्णनारायण को सुनने। कोई हर्ज की बात नहीं है। मेरे मन में कृष्णनारायण का अपार सम्मान है, उतना ही जितना बुद्ध का, उतना ही जितना कृष्ण का, उतना ही जितना कबीर का। गयी तो ठीक किया। लेकिन बताकर गयी कि बीमार हूं और अस्पताल में दिखाने जा रही।
अब यह हद हो गयी! कृष्णनारायण के पास जाने में कोई हर्ज नहीं था। लेकिन यह मुझसे झूठ इस तरह बोलना, इससे हानि हो गयी। कृष्णनारायण के पास जाने से कुछ हानि नहीं हो गयी थी। अच्छा था, शुभ था। किसी भी सत्पुरुष के पास थोड़ी देर बैठना शुभ है। लेकिन जो मेरे पास रहकर इतना झूठ बोलती है, जो मेरे पास नहीं हो सकती, वह कृष्णनारायण के पास कैसे हो सकेगी। जो मेरे पास वर्षो रहकर झूठ बोलती है, मेरे पास रह कर छल कर सकती है, वह एक घंटे के लिये कृष्णनारायण के पास जाकर सच कैसे हो सकेगी? असंभव है। कृष्णनारायण से तो जोड़ तुम्हारा बनेगा नहीं, मुझसे जो जोड़ है वह भी टूट गया। लाभ नहीं हुआ, हानि हो गयी।
जो विद्यार्थी हैं, वे जिज्ञासा और कुतूहल से जायेंगे। क्योंकि जो दीया यहां जला है, वही दीया कृष्णनारायण में भी जलता है। अगर कुछ भेद होगा भी तो वह मिट्टी के दीये में होगा, रोशनी में नहीं और यदि तुम्हें रोशनी यहां नहीं दिखी तो वहां भी नहीं दिखेगी। रोशनी देखने की कला आनी चाहिये तुम्हें, तो फिर कहीं जाने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। मेरे पास रहते हो, तो सदा मीठा ही मीठा नहीं होता, सदा मीठा हो भी नहीं सकता, जो सत्य कहता हूं वह कई बार बहुत कड़वा होता है। तुम नाराज भी होते हो, कई बार चोट मैं सीधी करता हूं। तुम तिलमिला भी जाते हो। तुम मुझसे बदला भी लेना चाहते हो, बदला लेने का तुम्हारे पास कोई उपाय भी नहीं है।
लेकिन इस तरह से तुम बदला ले सकते हो, इसलिये तुम अवज्ञा से चले जाते हो किसी और के पास और अगर मुझे तुम्हें बदलना है तो मुझे चोट करनी ही पड़ेगी। अब कोई मूर्तिकार अगर अनगढ़ पत्थर को मूर्ति बनाना चाहता है, तो छैनी-हथौड़ा उठाना ही पड़ेगा। तुम अनगढ़ पत्थर हो। तुममें बहुत से टुकड़े तोड़ने हैं। पीड़ा तो होगी, क्योंकि उन पत्थरों को तुमने अपनी आत्मा समझा है, यद्यपि वे तुम्हारी आत्मा नहीं हैं। बल्कि उनके टूटने पर तुम्हारी आत्मा प्रकट होगी। लेकिन अभी तो तुमने उन्हें अपनी आत्मा समझा है। अभी तो मैं तुमसे जो भी छीनता हूं, तुम्हें लगता है कि बड़ा कष्ट हो रहा है। मुझे घटाया जा रहा है, मुझे छोटा किया जा रहा हैं, मुझे काटा जा रहा है। जब कोहिनूर हीरा मिला तो आज जितना बड़ा है, उससे तीन गुना बड़ा था। लेकिन तब तुम्हें मिलता अगर तो तुम पहचानते भी नहीं। जिसको मिला था, वह भी पहचाना नहीं था। उसने बच्चों को खेलने के लिये दे दिया था। पत्थर समझकर, चमकदार पत्थर और वह आज दुनिया का सबसे बड़ा हीरा है। हालांकि उसका वजन तीन गुना कम हो गया। क्योंकि निखारा गया, काटा गया। कारीगर की छैनी चलती रही। जितनी छैनी चली है, उतनी चमक आयी है। वजन कम हुआ है, चमक बढ़ी है। मूल्य बढ़ा है। तब हीरा नहीं था, तब अनगढ़ पत्थर था, अब हीरा है।
तुम अनगढ़ पत्थर की तरह मेरे पास आये हो। आये हो इसलिये कि अनगढ़ पत्थर हो। खदान से सीधे निकाले गये हो। मैं तुम्हें काटूंगा, छाटूंगा, तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े करूंगा। पीड़ा भी होगी, कष्ट भी होगा। तुम्हारी बहुत दिन की पोषित मान्यतायें टूटेंगी। तुम्हारे बहुत दिन के माने विचार खंडित होंगे। लेकिन अगर समर्पण है, तो तुम उस संघर्ष को आनंद भाव से स्वीकार करोगे। तुम मुझे शत्रु नहीं मानोगे। तुम मुझे सर्जन मानोगे कि मैं अगर काट रहा हूं और तुम्हें पीड़ा भी दे रहा हूं, तो तुम्हारे हित के लिये दे रहा हूं।
इसीलिये केवल शिष्य पर ही काम किया जा सकता है, विद्यार्थियों पर नहीं। शिष्य का मतलब है, वह ऑपरेशन की टेबल पर लेटने को तैयार है। इतना भरोसा करता है कि तुम बेहोश करके जब उसका पेट काटोगे तो उसे मार ही नहीं डालोगे। इतनी उसकी श्रद्धा है, कि तुम्हारे हाथों में अपना जीवन सौंप देता है। गुरु सर्जन है, अब तुम उससे लड़ने लगोगे कि यह मेरा खून निकाल दिया, कि यह मेरी चमड़ी काट दी, कि क्या मुझे मार ही डालोगे, मैं तो वैसे ही पीड़ा से भरा आया हूं और तुम और पीड़ा दे रहे हो, तो फिर सर्जन काम नहीं कर पायेगा।
बहुत हैं जिनके मन में अवज्ञा भी आती होगी, कुछ ऐसे भी हैं जिनके मन में लोभ है कि यहां तो इतना मिल रहा है, थोड़ा और कहीं से मिल जाये। मगर लोभी भी शिष्य नहीं है। लोभी का सम्बन्ध गुरु से बनता ही नही है। यह नाता लोभ का नहीं है, प्रेम का है। जहां लोभ है, वहां प्रेम नहीं। जहां प्रेम है, वहां लोभ नहीं। प्राचीन काल में सृंजय नाम के एक नरेश थे। उनका कोई पुत्र नहीं था, केवल एक पुत्री थी। पुत्र प्राप्ति की इच्छा से इन्होंने वेदज्ञ ब्राह्माणों की सेवा प्रारम्भ की। राजा के दान एवं सम्मान से सन्तुष्ट होकर ब्राह्मणों ने देवर्षि नारद से राजा के पुत्र होने की प्रार्थना की, ब्राह्माणों की प्रार्थना से द्रवित होकर देवर्षि ने राजा से कहा- तुम कैसा पुत्र चाहते हो?
राजा सृंजय के मन में लोभ आ गया। उन्होंने प्रार्थना की- आप मुझे ऐसा पुत्र प्राप्ति का वरदान दें, जो सुन्दर हो, स्वस्थ हो, गुणवान हो तथा उसके मल-मूल, थूक-कफ आदि स्वर्णमय हो। देवर्षि ने कुछ सोचकर एवमस्तु कह दिया। उनके वरदान के अनुसार राजा को कुछ माह पश्चात् पुत्र प्राप्त हुआ। उसका नाम राजा ने सुवर्णष्ठीवी रखा। अब सृंजय के धन का क्या ठिकाना था? उनके पुत्र का थूक तथा मल-मूत्र सभी स्वर्ण होता था। राजा ने अपने राज-भवन के सभी पात्र, आसन आदि स्वर्ण के बनवा लिये। इसके अनन्तर उन्होंने पूरा राज भवन ही स्वर्ण का बनवाया। उसमें दीवार, खम्भे, छत तथा भूमि आदि सब सोने की थी। राजा के पुत्र सुवर्णष्ठीवा का समाचार सारे देश में फैल गया। दूर-दूर से लोग उसे देखने आने लगे। डाकुओं ने भी यह समाचार पाया। उनके अनेक दल परस्पर मिलकर उस राजकुमार को हरण करने का प्रयत्न करने लगे। अवसर पाकर एक रात दस्यु राजभवन में घुस आये और राजकुमार को उठा ले गये।
वन में पहुंचने पर दस्युओं में विवाद हो गया। अधिक समय तक राजकुमार को जीवित छिपाये रखना अत्यन्त कठिन था। सबने निश्चय किया कि सुवर्णष्ठीवी को मारकर जो स्वर्ण मिले, उसे परस्पर बांट लिया जाये। उन निर्दय डाकुओं ने राजकुमार के टुकड़े कर डालें, किन्तु उसके शरीर से उन्हें रत्ती भर सोना भी नहीं मिला। लोभ के वश राजा सृंजय ने ऐसा पुत्र मांगा जिसकी रक्षा करना चुनौतीपूर्ण था। राजा को लोभ के कारण पुत्र शोक सहन करना पड़ा। लोभवश डाकुओं ने राजकुमार की हत्या की और केवल पाप के भागी बने और राज-दण्ड का भी शिकार होना पड़ा, लाभ उन्हें भी कुछ नहीं हुआ। लोभ का अन्त सदा दुखान्त ही होता है, तुम्हारी दृष्टि से तुम राजा की भांति तुम भी थोड़े समय के लिये लोभ से प्रसन्न रह सकते हो, लोभ के कारण बेईमानी से धन अर्जित कर लेते हो, अनेक-अनेक क्रिया-कलाप लोभ के कारण करते हो, परन्तु उसका अन्त कुछ समय बाद दुखान्त ही होता है।
इसी तरह जो लोभ के कारण जाते हैं, वे भी कुछ समय के अन्तराल में दुख, पीड़ा, कष्ट के भागीदार बनते हैं। ऐसी स्थितियां स्वयं के लोभ के कारण ही निर्मित होती हैं, मैंने पिछली बार आपसे कहा था कि- पाप का गुरु कौन है? पाप का गुरु यही आपका लोभ है, आपका लोभ ही आपके पाप का गुरु है और यह लोभ ना जाने कैसे-कैसे कृत्य मनुष्य से करवा देता है। तो कोई कुछ कह कर गया, कोई बिना कुछ कहे गया, कोई चुप-चाप भाग गया और कोई लोभ के कारण गया, इसमें कुछ भी बुरा न था, गये तो ठीक ही किया, गये तो अच्छा ही किया, तुम जो यहां बैठे हो, तुम्हारे लिये एक सूचना देकर गये। मेरे लिये यह सार्थक है। क्योंकि मुझे उपयोगी होंगी ये सब बाते कि किन-किन को छोड़ दूं, कि किन-किन को विदा कर दूं। कौन है, जिनको और गहराई में ले जाना संभव नहीं होगा, कौन है जो परिधि पर ही रखने ठीक हैं, जिनको केन्द्र तक लाने की कोई आवश्यकता नहीं है। तो अच्छा ही है, मुझे इससे सुविधा होती है। काम में आसानी होती है। मैं तुम्हारी जिम्मेवारी लेता हूं, मैं तुम्हारे साथ प्रतिबद्ध हूं। तुम्हारे भीतर मैंने अपने आपको नियोजित किया है, मैंने अपने आपको तुम्हारे भीतर दांव पर लगाया है। मैं तुम्हारा हाथ पकड़कर चल रहा हूं, मैं तुम्हारे साथ तुम्हारी यात्रा के सारे कष्ट उठा रहा हूं। इसलिये यह अच्छा ही है, मुझे इस तरह संज्ञान मिल जाता है कि कौन-कौन व्यर्थ हैं, कौन-कौन इस योग्य नहीं है कि मैं उनको बहुत प्रतिबद्धता दूं। कौन-कौन इस योग्य हैं कि उन्हें किनारे पर रखा जाये, कौन-कौन इस योग्य है कि उनहें अंतस पर लिया जाये, यह जो यात्रा है, गुरु और शिष्य की आधी-आधी है-
कुछ मैं चलूं, कुछ तुम चलो, कुछ तुम चलो, कुछ मैं चलूं। गुरु-शिष्य का कारवां कुछ इस तरह से बढ़ता रहे। वास्तव में शिष्य तो वही है, जो कहे माधव जनम तुम्हारे लेखे, वह कहे अब यह जीवन तुम्हारा, यह जन्म तुम्हारा। अब तुम जैसा चाहो बनाओं, अब तुम जैसा चाहो मिटाओ। मैं तुम्हारे हाथों में मिट्टी की तरह हूं। घड़ा बनाओं, मूर्ति बनाओ, न बनाओ, तुम्हारी मर्जी—-अब मिट्टी कभी मेरे हाथ से छलांग लगाकर किसी और के हाथ में चली जाये और कहे कि थोड़ा वहां भी देखें, तो वह घड़ा, मूर्ति कभी बन नहीं पायेगा। मैं कुछ और बनाऊंगा, दूसरा कुछ और बनायेगा, तीसरा कुछ और बनायेगा। इस तरह वह मिट्टी ही रह जायेगी। तुम मिट्टी के लोदे ही बनकर रह जाओगो।
और मुझे खबर है, कौन क्या कर रहा है यहां, कौन कैसे चल रहा है, ध्यान रखना तुम जो भी कर रहे, उससे तुम्हारा भविष्य निर्मित हो रहा है। अनजान भले ही मैं बना रहूं, तुमसे कुछ कहूं भी ना और तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि तुमने कब मुझे खो दिया। तुम्हें पता भी नहीं होने दूंगा, क्योंकि तुम्हें अकारण कष्ट नहीं देना है, चुपचाप हाथ सरका लूंगा। मैं उन्हीं का हूं और वे ही मेरे हैं जो हृदय से कह सकें- आरजू तेरी बरकरार रहे, दिल का क्या है, रहा, रहा न रहा इस नजर को पहचानना शुरु करो। ऐसे भी बहुत देर हो गयी है अब और बच्चों जैसा व्यवहार मत करो।
समर्पण का अर्थ होता है, शिष्य होने का अर्थ होता है, अब जाने की कोई जगह न रही, मिल गया मंदिर, नहीं मिला हो तो निश्चित ही तुम खोजो। मैं तुम्हें खुद धक्के दे दूंगा कि जाओ और खोजो। लेकिन ध्यान रखना फिर लौटकर आने की जरूरत नहीं, जब यह मंदिर तुम्हारा नहीं है, तो इस मंदिर के तुम नहीं हो—-!! लेकिन तुम बेईमानी मत करो, तुम दो नावों में पैर रखना चाहते हो। तुम मुश्किल में पड़ जाओंगे। दो नावों में कोइ यात्रा नहीं कर सकता और यह ध्यान रखना किसी एक नाव में ही तुम यात्रा पूर्ण कर पाओगे—-तुम इन भावों को मनन-चिंतन कर अपने भीतर स्थापित कर सको और सद्गुरुदेव तुम्हें यह सामर्थ्य प्रदान करें कि तुम अपने बुद्धि, विवेक से निरन्तर उच्चता की ओर, पूर्णता की ओर अग्रसर हो सको———तुम्हारी यात्रा अधर में ना अटके——-तुम पूर्ण शिष्यता की गरिमा से विभूषित हो——-ऐसा ही कल्याण की कामना करता हूं——–!!!
परम पूज्य सद्गुरुदेव
कैलाश श्रीमाली जी
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,