मनोवैज्ञानिक एवं मनोचिकित्सक का कहना है कि बहुत कम माता-पिता इस बात को समझ पाते हैं कि बच्चों को संभालने से पहले खुद हमे संभलना चाहिये, किसी का सहारा बनने से पहले खुद मजबूती से खड़ा होना पड़ता है। बच्चों की जिद या बर्ताव अचानक ही प्रतिकूल नहीं हो जाता, जब आपका किशोर बेटा या बेटी आंख से आंख मिलाकर कोई अशोभनीय बात कर बैठता है तो हम हक्के-बक्के से रह जाते हैं और हमारे मन के मौन भाव उद्वेलित होते हैं।
एक ऐसी ही घटना है, जो हमें विचार करने पर विवश करती है- मोहन को ऑफिस के बाद दोस्तों के साथ गपशप की आदत थी, उसे रोज घर आते-आते काफी रात हो जाती थी। राकेश के पिता प्रतिदिन इस बात के लिये उसे टोकते, घर की जिम्मेदारियों का एहसास दिलाते, किन्तु राकेश हमेशा ही अनसुनी करता आगे बढ़ जाता, पिता दुखी मन से चुप हो जाते एक दिन राकेश का 14 वर्षीय बेटा अभिनाश स्कूल से किसी मित्र के घर चला गया, घर में चिन्ता होना स्वाभाविक था, राकेश के ऑफिस फोन किया गया, राकेश तुरन्त घर आ गया, चिन्तित परेशान घरवाले ऊपर-नीचे हो रहे थे। शाम को 8 बजे अभिनाश इत्मीनान से घर में घुसा और बताया कि स्कूल से मित्र के घर चला गया था, राकेश का क्रोध नियंत्रण से बाहर हो गया, अभिनाश को एक थप्पड़ लगाया और बोला स्कूल से सीधे घर आना चाहिये कि नहीं? अभिनाश ने बिना किसी अन्य प्रतिक्रिया के सिर्फ इतना ही कहा- क्या आपको भी ऑफिस से सीधे घर नहीं आना चाहिये? दादा जी रोज ही तो आपको कहते हैं और अमन दादा जी के कंधे पर सिर रख कर रो पड़ा, उसकी दृष्टि में उसने गलती की ही नहीं।
इस व्यवहार को लेकर कई लोगों का तर्क होता है कि बच्चों को बड़ो की बराबरी नहीं करनी चाहिये, किन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण कहता है कि बात बड़े या छोटे की नहीं है, ना ही बराबरी की है। ये नियम है कि काम खत्म होने पर सीधे घर आना चाहिये, तो सभी को आना चाहिये, किसी वजह से एक दिन नहीं आ पाते तो ठोस कारण होना चिाहये। एक ही विषय पर दो नियम नहीं होने चाहिये, दोहरा नजरिया रखने से बालमन के लिये सही-गलत समझना कठिन हो जाता है। अतः घर के नियम बनाने से पहले घर की जरूरतें, परिस्थितियां, अपना व्यवहार व आदतों का अवलोकन करना आवश्यक है।
आज के बच्चों की बुद्धि तर्कपूर्ण है, उनमें खुलापन ज्यादा है। वे टी-बी-, इन्टरनेट, सोशल मीडिया के माध्यम से बहुत कुछ अच्छा व गलत समय से पहले ही जान लेते हैं, टी-वी- देखना एक मजबूरी भी है। आज के समय में अधिकांश माता-पिता कामकाजी है, विशेषकर बड़े शहरों में, अतः समय का अभाव निरन्तर बना रहता है, बहुत कम घर ऐसे हैं, जहां बड़े-बुजुर्गो की छत्र-छाया है। बच्चे ज्यादा समय अकेले ही रहते हैं अथवा नौकरानी या आया के साथ। कई घरों में जहां मां गृहिणी है, वहां भी मां बच्चों के साथ समय न बिताकर अपनी किसी एक्टिविटी में व्यस्त रहती है। मां-बाप के पास उनके लिये समय नहीं है तो बच्चा टी-वी- के माध्यम से समय बिताता है। अपना मनोरंजन करता है।
इन स्थितियों में बच्चे को प्यास अभी लगी होती है और उससे कहा जाता है हम तुम्हारे लिये कोल्ड ड्रिंक का इंतजाम कर रहे हैं। बच्चों की जरूरतो को नजरअंदाज न करें, उनका भविष्य संवारने में वर्तमान के प्रति लापरवाही न बरतें, याद रहे, वर्तमान पर ही भविष्य की नींव बनती है।
बच्चों के विषय में कोई भी निर्णय लें तो परिस्थिति, वातावरण, उम्र, उसके साथियों की गतिविधियों पर जरूर ध्यान दें। यदि उसकी उम्र के सभी बच्चे ने व्यक्त की है (जैसे हॅारर सीरियल, पिकनिक पार्टी आदि) कर रहे हैं तो एक बच्चे को रोकना कठिन होगा और यदि किसी खास व्यक्तिगत कारण से आप इजाजत नहीं देना चाहती हैं तो बच्चे को कारण बतायें, अपनी समस्या में उसे शामिल करें विशेषकर तब जब उस समस्या से बच्चे का सम्बन्ध हो तो।
बच्चे का झूठ माता-पिता को बेहद आहत व दुखी कर जाता है, क्रोध में उसकी अच्छी-खासी पिटाई भी हो जाती हैं और आश्चर्य के साथ कहते सुना जा सकता है पता नहीं कहां से झूठ बोलना सीख गया? किन्तु यदि माता-पिता अपने दामन में झांककर देखें तो स्वयं ही समझ जायेंगे, घर की चारदीवारी में ही उसने झूठ बोलना सीखा है। घर बच्चे की प्रथम पाठशाला है, उसकी हर आदत की नींव वहीं पड़ती है, उसे अच्छे-बुरे संस्कार भी वहीं से मिलते हैं, फोन की घंटी बजी तो पिता ने कहा मेरे लिये हो तो कहना मैं नहीं हूं। पड़ोसन कुछ मांगने आई, किन्तु आपकी देने की मर्जी नहीं है तो आपने बहाना बना दिया, खत्म हो गई, किसी मित्र का फोन आया, वो आपके साथ समय बिताने का इच्छुक है और आपकी इच्छा नहीं है तो आपने टाल दिया, हम तो बाहर जा रहे हैं, ऐसी बातों से बच्चा आश्चर्यचकित होता है, पूछने पर उसे जवाब मिलता है, ये बाते तुम्हारे मतलब की नहीं है, धीरे-धीरे वो भी इन्हें स्वीकारने लगता है और अनजाने ही अपनी आदत में शामिल कर लेता है।
और आपको एहसास तब होता है, जब वो स्कूल से किसी बच्चे की पेन्सिल, पेन, रबर घर ले आता है, पूछने पर कहता, दोस्त ने मुझे दी है या पड़ोसी के घर झूठ ही कह आता है, कि मेरे घर मेहमान आये हैं, इसलिये मेरे घर खेलने मत आना तब आप उसे सत्यवादी होने की अच्छाइयां बताने लगते हैं और बार-बार कहते हैं, झूठ बोलना पाप है, लेकिन वह तब आपकी बाते स्वीकार आन्तरिक रूप से स्वीकार नहीं करता, क्योंकि वह आपकी ऐसी ही आदतों से परिचित हो चुका होता है।
अक्सर माता-पिता बच्चों की फिजूलखर्ची की आदत को लेकर हैरान-परेशान होते रहते हैं, उनहें बड़े-बड़े भाषण देते है और अपनी पान-सिगरेट, ड्रिक्ंस या कॅास्मेटिक और ब्यूटी पार्लर के खर्च को जरूरत का हवाला दिया जाता है, जब तक बच्चे छोटे हैं, नासमझ हैं, बहलायें जा सकते हैं, किन्तु ऐसे माता-पिता टीनएजर्स को फिजूल खर्ची का अर्थ समझायेंगे तो प्रतिक्रिया निगेटिव अधिक होगी।
दरअसल आप जिस वक्त ये अनुभव करते लगते हैं कि आपके माता-पिता की स्ट्रिक्टनैस (अनुशासन प्रियता) सही थी, उस वक्त आपके बच्चे तैयार हो चुके होते हैं ये बताने के लिये कि आप कितने गलत हैं। बच्चों को समझाने से ज्यादा जरूरत होती है, उनहें समझने की, गलतियां ढूढने के बजाये हल ढूंढने की, बच्चों के सामने आदर्श बनने या उन्हें आदर्श बनाने से बेहतर होगा सहज व समझदार बनें और उन्हें भी सहज व समझदार बनाएं, हालांकि मनोविज्ञान यही होता है कि हम अपनी कमियों को बच्चों में नहीं आने देना चाहते हैं, अपनी असफलताओं को उनके माध्यम से पूरा करना चाहते हैं, उद्देश्य निश्चित ही सर्वोच्च है, किन्तु व्यवहार में लाने के लिये पहले उन पर स्वयं खरे उतरिये, फिर बच्चों को उन पर अमल करने की शिक्षा दीजिये।
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