दुर्गा सप्तशती के रचयिता मार्कण्डये ऋषि ने शक्ति के भावों की स्थिति स्पष्ट करते हुए लिखा है कि- सांसारिक जीवन में सर्वप्रथम शक्ति का भाव होना आवश्यक है अर्थात् जिसके जीवन में ऊर्जा, चेतना, क्षमता की भावमय स्थितियां हो और सर्वप्रथम मनुष्य को ज्ञान शक्ति की चेतना से आपूरित होना आवश्यक है। लघु स्वरूप जीवन से उच्चता की ओर अग्रसर होने के लिए सुज्ञान के माध्यम से शुद्ध-अशुद्ध, सम-विषम के बारे में हम अन्तर महसूस कर सकते हैं और हमारे जीवन में वृद्धि में बाधक अशुद्ध विषम स्वरूप में भाव-विचार क्रियाएं हैं, उनका निस्तारण सुज्ञान से ही प्राप्त किया जा सकता है तब ही जीवन में शुद्धमय, श्रेष्ठमय स्थितियां निर्मित होती हैं। इसीलिए माँ आद्या शक्ति की प्रार्थना करते हुए यही भाव व्यक्त किया जाता है कि हे माँ दुर्गा! आप मेरे जीवन के दुर्गति पूर्ण स्थितियों को समाप्त करने के लिए ज्ञान की चेतना से आपूरित करें, इसीलिए मैं आपको बार-बार प्रणाम करता हुं।
साथ ही ऋषि कहते हैं कि ज्ञान का विस्तार तभी हो सकेगा, जब भक्त शारीरिक शक्ति के साथ-साथ आत्मिक मन से युक्त होगा। कमजोर, कृषकाय, रोगमय देह से जीवन में कोई गति नहीं आती, अतः आवश्यक है कि हमारी देह हर स्वरूप में चैतन्य क्रियाशील व जाग्रत हो तब ही हम ज्ञान को समाहित करने के साथ-साथ उसका विस्तार भी कर सकेंगे। जर्जर देह तो मृत्यु समान है और इस जर्जर देह से संसार में हम लघु से लघु कार्य भी नहीं कर सकते। जीवन में कोई भी कर्म की पूर्णता के लिए शारीरिक शक्ति के साथ-साथ आत्मिक बल भी होना आवश्यक है, इसलिए शारीरिक-आत्मिक बल के माध्यम से भय, डर, संदेह की स्थितियां समाप्त होती हैं और जहां शारीरिक और आत्मिक शक्ति का मिलन होता है, तो उन कार्यों में सफलता प्राप्त होती ही है। अतः दुर्गा शक्ति स्वरूप देव शक्तियों से यही प्रार्थना की जाती है कि मुझे सर्व भूतेषु अर्थात् सभी कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों स्वरूपों में शक्ति से युक्त हो सकूं। प्रत्येक सुकर्म करने में निरन्तर क्रियाशील रह सकूं और साथ ही ज्ञान के जो भाव-चिन्तन हैं, वे चैतन्य रह सकें। इसलिए प्रार्थना में कहा जाता है कि या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिातं और उन देव शक्तियों की प्राप्ति के लिए आपको बार-बार नमन करता हूं। देव शक्तियों से अथवा देवी-देवताओं से पूजा या प्रार्थना करने का मंतव्य यही होता है कि हम जो भी कर्म करें, उसमें निरन्तरता बनी रहे और जो भी बाधाएं अड़चने समाविष्ट हों उनको समाप्त करने की शक्ति से हम युक्त हो सकें। साथ ही कर्म का फल भी प्राप्त हो सके, इसी हेतु दिव्य शक्तियों से प्रार्थना की जाती है। साथ ही साथ भगवान या देवी-देवता और साधक का जुड़ाव उस कर्म के प्रति बना रहे।
सांसारिक मनुष्य ज्ञान और शक्ति के भावों को आत्मसात कर अपने जीवन में कुछ उद्देश्य और लक्ष्य बनाता है, उन लक्ष्यों की पूर्णता हो सके यही भाव-चिंतन मनुष्य करता है क्योंकि जीवन में वृद्धि केवल और केवल कर्म भाव से होती है, हमारा कर्म का भाव सकाम भाव से है, तो निश्चिन्त रूप से सुस्थितियों की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत विकार भाव से है, तो हमें उसका परिणाम अधोगामी-कुस्थितियों से युक्त होता है। इसीलिए सुज्ञान और शक्ति की चेतना से लक्ष्यों को निर्धारित कर कर्म करने से निश्चिन्त रूप से सुफल की प्राप्ति होती है और यही कामना माँ आद्या शक्ति से की जाती है कि या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मी रूपेण संस्थिातं अर्थात् कर्म रूपी भावों की प्राप्ति के लिए मेरी सम्पूर्ण देह ज्ञान, बुद्धि, चेतना, बल, शक्ति, ऊर्जा से युक्त होकर लक्ष्यों से परिपूर्ण कर सके, वही सही अर्थों में पूर्ण जीवन है।
ईशावास्य उपनिषद में स्पष्ट लिखा है कि सृष्टि में सब कुछ देवी-देवता स्वरूप परमात्मा की कृपा से प्राप्ति और वृद्धि होती है। सृष्टि में भिन्न-भिन्न तरह की वनस्पतियां, करोड़ों तरह के जीव-जन्तु, सैकड़ों तरह के जल प्रताप, जानवर-मनुष्य, सर्व स्वरूप में ईश्वर की ही संरचना है। इसके विपरीत सांसारिक मनुष्य का मन करता है इसे मानने का नहीं होता, जो कुछ भी है स्वयं मैं हू और सब कुछ मेरे द्वारा निर्मित है, पूरा जीवन इसी भ्रम में सभी जीते हैं। हम इसके मालिक हैं, हमारा इस पर स्वामित्व है। इस तरह का भाव अहंकार को निर्मित करता है।
आप सोचें, आपके पास जो उपलब्ध है, जिसे आप अपना कहते हैं, वह सब छीन लिया जाए, तो मैं भी चला जायेगा अर्थात् इन सभी मेरे-मेरे के कारण ही ‘मैं’ का अस्तित्व होता है, यदि मेरा चला जाए, तो ‘मैं’ का टिकना मुश्किल हो जाएगा। मेरा धन, मकान, धर्म, मंदिर, मस्जिद, पद, नाम, कुल, वंश, ये लाखों मेरे ‘मैं’ को निर्मित करते हैं, यदि हम एक-एक मेरे ‘मैं’ को गिराते चले जाएं, तो ‘मैं’ की भूमि छिनती चली जाती है, अगर एक भी मेरा न बचे, तो ‘मैं’ के बचना का कोई स्थान नहीं रह जाता।
मैं को स्वयं के अस्तित्व के लिए मेरे का आधार चाहिए, निवास चाहिए, घर चाहिए, मैं के लिए मेरे का नींव चाहिए, अन्यथा मैं का पूरा मकान गिर जाता है, मैं का पूरे मकान को गिरा देने वाली है स्थिति ही परमात्मा की प्रिाप्त है। ईशावास्य कहता है सब कुछ परमात्मा का है, मैं भी मेरा नहीं, मैं मेरा हो सकूं इसके भी उपाय नहीं हैं। क्योंकि आप जन्मते हैं, मैं जन्मता हूं, लेकिन कोई पूछता नहीं आप जन्मना चाहते हैं, इसमें भी मेरी इच्छा नहीं जानी जाती। मेरा जन्म मेरी इच्छा, मेरी स्वीकृति पर निर्भर नहीं है। हर बार स्वयं को जन्मा पाता हूं, जन्मने से पहले मेरा कोई होना नहीं। ईश्वर जन्माता है, आप जन्म जाते हैं। ईश्वर बनाता है, आप बन जाते हैं।
मकान में भी चेतना आ जाए तो वह भी कहे मैं! मकान में चेतना आ जाए तो वह बनाने वाले को मालिक नहीं मानेगा। मकान कहेगा कि बनाने वाला मेरा नौकर है, इसने मुझे बनाया है। यह मेरा साधन है, मेरी सेवा की है। लेकिन मकान में चेतना नहीं है। आदमी के पास है और कौन जाने मकान में भी चेतना हो, चेतना के भी हजार तल हैं। आदमी की चेतना का एक ढंग है, एक तरह की कांशसनेस है। जरूरी नहीं है, वैसी ही कांशसनेस सबकी हो। मकान की और तरह की हो सकती है। पत्थर की ओर तरह की हो सकती है। पौधे की और तरह की हो सकती है। वे भी हो सकता है, अपने-अपने मैं में जीते हों और माली जब पौधे में पानी डालता हो तो पौधा यह न सोचता हो कि माली मुझे जन्मा रहा है, पौधा यही सोचता हो कि मैं माली की सेवाएं लेने का अनुग्रह कर रहा हूं। कृपा है मेरी कि सेवाएं ले लेता हू, यद्यपि पौधे से कोई कभी पूछने नहीं गया कि तुझे जन्मना भी है।
जो जन्म हमारी इच्छा के बिना है, उसे मेरा कहना एकदम नासमझी है। जिस जन्म के पहले मुझसे पूछा ही नहीं जाता कभी, उसे मेरे कहने का क्या अर्थ है? न ही मौत आएगी तो पूछकर आएगी। न ही मौत पूछेगी कि क्या इरादे हैं? चलते हैं, नहीं चलते है? आएगी और बस आ जाएगी। ऐसे ही अनजानी जैसा जन्म आता है। ऐसे ही बिना पूछे, द्वार पर दस्तक दिए बिना, बिना किसी पूर्व-सूचना के, बिना आगाह किए, बस चुपचाप खड़ी हो जाएगी और कोई विकल्प नहीं छोड़ती- कोई आल्टरनेटिन नहीं, कोई चुनाव नहीं, कोई च्वायस नहीं। यह भी नहीं कि क्षण भर रुक जाना चाहूं तो रुक सकूं।
तो जिस मौत में मेरी इतनी भी मर्जी नहीं है, उसे मेरी मौत कहना बिलकुल पागलपन है। जिस जन्म में मेरी मर्जी नहीं है, वह जन्म मेरा नहीं है। जिस मौत में मेरी मर्जी नहीं है, वह मौत मेरी नहीं है और उन दोनों के बीच में जो जीवन है, वह मेरा कैसे हो सकता है? उन दोनों के बीच में जिस जीवन को हम भरते हैं, जब उसके दोनों छोर मेरे नहीं हैं- बुनियादी छोर मेरे नहीं हैं, दोनों अनिवार्य छोर मेरे नहीं हैं, जिनके बिना मैं हो भी नहीं सकता- तो बीच का जो भराव है, वह भी धोखा है, डिसेप्शन है और उसे हम भरते हैं और हम मौत और जनम को बिलकुल भूल जाते हैं।
अगर हम मन से पूछें तो वह कहेगा, हम जानकर भूल जाते हैं। क्योंकि बड़े दुखद स्मरण हैं ये। मेरा जन्म भी मेरा नहीं है तो कितना दीन हो जाता हूं। मेरी मृत्यु भी मेरी नहीं है तो छिन गया सब, कुछ बचा नहीं, मेरे हाथ रिक्त और खाली हो गए। राख बची। और इन दोनों के बीच में जिस जीवन के लम्बे सेतु को मैं निर्मित करूंगा—–एक नदी पर हम पुल बनाते हैं, ब्रिज बनाते है। न यह किनारा हमारा है, न वह किनारा हमारा है। न इस किनारे पर रखे हुए ब्रिज के सेतु की बुनियाद हमारी है, न उस तरफ की बुनियाद हमारी है। तो यह बीच की नदी पर जो पुला हुआ पुल है, वह भी हमारा कैसे हो सकता है? आधार जिसके हमारे नहीं हैं, वह हमारा नहीं हो सकता है। इसलिए हम जानकर भुला देते हैं।
आदमी बहुत सी बातें जानकर भुलाए हुए है। कुछ बातों को वह स्मरण ही नहीं करता। क्योंकि वह स्मरण उसके अंहकार को, अकड़ को खींच लेगा, बाहर कर देगा। फिर क्या है हमारा? छोड़ें जन्म और मृत्यु को। जीवन में ऐसा भ्रम होता है कि बहुत कुछ हमारा है। लेकन जितना ही खोजने जाते हैं, पाया जाता है कि नहीं वह भी हमारा नहीं है। आप कहते हैं, किसी से मेरा प्रेम हो गया, बिना यह सोचे हुए कि प्रेम आपका निर्णय है, योर डिसीजन? नहीं, लेकिन प्रेमी कहते हैं कि हमें पता ही नहीं चला, कब हो गया! इट हैपेन्ड, हो गया, हो गया, हमने किया नहीं। तो जो हो गया, वह हमारा कैसे हो सकता है? नहीं होता तो नहीं होता। हो गया तो हो गया। बड़े पर-वश हैं। बड़ी नियति है। सब जैसे कहीं बंधा है।
लेकिन बंधन कुछ ऐसा है कि जैसे हम एक जानवर को एक रस्सी में बांध दें, एक खूंटी में बांध दें और जानवरी रस्सी की खूंटी में चारों तरफ घूमता रहे। घूमने से भ्रम पैदा हो कि मै। स्वतंत्र हूं, क्योंकि घूमता हूं और रस्सी को भुला दे, क्योंकि रस्सी दुखद है। वह जो खूंटी से बंधी हुई रस्सी है, वह बड़ी दुखद है, वह परतंत्रता की खबर लाती हे। सच तो यह है कि वह स्वयं के न होने की खबर लाती है। परतंत्र होने योग्य भी हम नही हैं। स्वतंत्र होने की तो बात बहुत दूर है। परतंत्र होने के लिए भी तो हमें होना चाहिए, वह भी हम नहीं हैं। वह जो खूंटी से बंधा हूं, यह भी मेरी मर्जी है। जब चाहा तब तोड़ दूं। राजी हो गया हूं, यह भी मेरे हित के लिए है।
जीवन में हम बहुत सा भ्रम पैदा करते हैं। क्रोध करते हैं घृणा, मित्रता, शत्रुता-लेकिन कुछ भी तो हमारा निर्णय नहीं है। कभी आपने ऐसा क्रोध किया है, जो आपने किया हो? अगर आप प्रेम कर सकते तब तो किसी को भी कर सकते थे, लेकिन किसी-किसी को कर पाते हैं और अधिकांश को नहीं कर पाते और किसी को कर पाते हैं, तो नहीं चाहते तो भी करते हैं और किसी को नहीं कर पाते हैं, तो चाहे तो भी नहीं कर पाते।
जिंदगी की सारी भावनाएं किसी अज्ञात छोर से आती हैं, जहां से जन्म आता है वहीं से। आप नाहक ही बीच में मालिक बन जाते हैं और आपने किया क्या है? क्या है जो आपका किया हुआ है? भूख लगती है, नींद आती है, सुबह नींद टूट जाती है, सांझ फिर आंखें बंद होने लगती हैं। बचपन आता है, फिर कब चला जाता है? फिर कैसे चला जाता है? न पूछता, न विचार-विमर्श लेता, न हम कहें तो क्षण भर ठहरता। फिर जवानी चली जाती है, फिर जवानी विदा हो जाती है। फिर बुढ़ापा आ जाता है। आप कहां हैं?
नहीं, लेकिन आप कहे चले जाते हैं कि मै जवान हूं, मैं बूढ़ा हूं। जैसे कि जवानी कुछ आप पर निर्भर हो। फिर जवानी के अपने-अपने फूल हैं। बुढ़ापे के अपने फूल हैं, जो खिलते हैं। वैसे ही खिलते हैं जैसे वृक्षों पर फूल खिलते हैं। गुलाब का पौधा नहीं कह सकता कि मैं गुलाब के फूल खिला नहीं पाता। चंपा के तो खिला नहीं पाता। मधुकामिनी तो नहीं लगती उस पर, गुलाब ही लगता है। फिर नाहक ही अकड़ है। गुलाब लगता है। चमेली पर चमेली लगती है।
बचपन में बचपन के फूल खिलते हैं, आप नहीं खिलातें और अगर बचपन में निर्दोष होते हैं, तो होते हैं। कुछ गुण नहीं। कुछ गौरव नहीं। कुछ यश मत लेना उससे। बचपन में सरलता होती है, तो होती है। और जवानी में अगर काम और वासना पकड़ लेती है, तो वैसे ही पकड़ लेती है जैसे बचपन में निर्दोषता पकड़ लेती है। न उसके आप मालिक होते हैं, न जवानी में कामवासना के आप मालिक होते हैं। और अगर बुढ़ापे में मन ब्रह्मचर्य की तरफ झुकने लगता है, तो कुछ अपना गौरव मत समझ लेना। वैसे ही, ठीक वैसे ही, जैसे जवानी में काम पकड़ लेता है, बुढ़ापे में काम से विरक्ति पकड़ लेती है और जिसको नहीं पकड़ती, उसका भी कुछ वश नहीं है और जिसको पकड़ लेती है, वह भी नाहक का अंहकारमय ना हो। मैं को खड़े होने की जगह नहीं है। अगर जीवन को एक-एक क्षण सोचेंगे, तो पाएंगे मैं को खड़े होने की जगह नही हैं। लेकिन भ्रम पैदा हम क्यों कर लेते है? कैसे ये उलझने पैदा हो जाती हैं? यह प्रवंचना आती कहां से है?
यह आती इसलिए है कि हमें पूरे वक्त ऐसा लगता है कि विकल्प है, आल्टरनेटिव है। जैसे आपने मुझे गाली दी, तो मेरे सामने दो विकल्प हैं कि चाहूं तो मैं गाली का जवाब दूं और चाहूं तो जवाब न दूं! लेकिन क्या सच में ही विकल्प होते है? क्या जो आदमी गाली के उत्तर में गाली देता है, वह चाहता तो न देता? आप कहेंगे कि चाहता तो नहीं दे सकता था। लेकिन थोड़ा और गहरे जाना पड़ेगा। वह चाह भी आप में होती है कि आप ले आते हैं? गाली देने की चाह या न देने की चाह, वह भी आपके वश में है? नहीं, जो बहुत गंभीरता से ढूंढते हैं, वे कहते हैं कि कहीं तो हमें पता चलता है कि चीजें हमारे वश के बाहर हो जाती हैं। एक आदमी को विचार आता है कि गाली दूं, गाली देता है। एक आदमी को विचार आता है नहीं दूं, नहीं देता है। लेकिन यह विचार कि दूं या नहीं दू, यह विचार कहां से आता है? यह विचार आपका है? यह वहीं से आता है, जहां से जन्म। यह वहीं से आता है, जहां से प्रेम। यह वहीं से आता है, जहां से प्राण। यह वहीं खो जाता है, जहां मौत। यह वहीं लीन हो जाता है, जहां जाती हुई श्वास। लेकिन धोखा देने की सुविधा हो जाती है। कि मेरे हाथ में है। चाहता तो गाली न देता। लेकिन किसने कहा था कि आप दें।
वेदों में कहा गया है कि ‘आत्मान विदिम’ अर्थात् अपने को जानों, स्वः को जान लेना जीवन की श्रेष्ठता का भाव है। जो स्वः को पहचान लेता है, वही श्रेष्ठ है- इस हेतु एक लघु कथा यह है कि विक्रमादित्य नाम का राजा अपने समय का सबसे बलवान, शक्तिशाली और दयालु माना जाता था, उसकी प्रजा तो अत्यंत सुखी थी और प्रजा के साथ-साथ राज दरबार के भी सभी लोग बहुत खुश नजर आते थे।
प्रजा खुश तो राजा खुश वाली बात राजा विक्रमादित्य को देखकर याद आती थी, इसके साथ ही उनकी बहादुरी का तो कहना ही क्या था, आस-पास के देशों के भी राजा लोग यह जानते थे कि विक्रमादित्य जैसा बहादुर राजा दूर-दूर तक कोई नही है और न ही किसी में इतनी हिम्मत है कि उसके साथ युद्ध कर सके। बहादुर राजा के ऊपर कौन हमला करने की हिम्मत कर सकता है, यही राजा और प्रजा दोनों के लिए सुख और शांति की बात थी, चारों ओर खुशियों और शांति से युक्त वातावरण था। राजा लोगों के दिमाग तेज तो होते ही हैं किन्तु वे शांति से भी कभी नहीं बैठ सकते, यदि वे युद्ध न करें, तो उनके मन में कोई न कोई भावना उठती रहती है।
यही हाल हुआ राजा विक्रमादित्य का। एक बार उन्होंने बैठै-बैठे सोचा कि- क्या वास्तव में ही मैं एक ऐसा बहादुर और महान राजा हूं कि मुझमें कोई दोष ही नही है? मगर इस बात का फैसला कैसे हो? इसी सोच में पड़ गया था राजा विक्रमादित्य। उसने मन ही मन में निर्णय किया कि वह अपने मंत्रियों और सेनापिति को बुलाकर उनसे भरे दरबार में यह पूछेगा कि तुम लोग यह बताओं कि हममें कोई दोष भी है या नहीं, इससे अच्छी व जन परीक्षा भला और क्या हो सकती है। दूसरे दिन खास दरबार बुलाया गया, जिसमें राज्य के सारे मंत्री सेनापति, राज पुरोहित सभी को विशेष निमंत्रण भेजकर बुलाया गया, राजा के इस विशेष निमंत्रण की बात सुनकर सभी लोग हैरान थे, आज तक राजा ने कभी भी तो उन्हें इस प्रकार का निमन्त्रण भेज कर नहीं बुलाया था।
विशेष दरबार में राजा विक्रमादित्य ने अपने राज सिंहासन से उठकर सर्वप्रथम राजपुरोहित से पूछा—– पंडित जी! आप तो हमारे राज्य के सबसे बड़े विद्वान एवं आदरणीय हैं, आप ही सत्य बताएं कि हम जो अपना राज्य चला रहें हैं, इसमें आपको कोई ऐसी त्रुटि नजर आ रही है, जिससे हमारी बदनामी होती हो। नहीं महाराज, आप तो विद्वानों के गुणों की कद्र करते हैं, जिस राज्य में पंडित की पूजा होती हो, धर्म का पालन होता हो, वह राजा महान होता है।
पंडित की बात सुन राजा विक्रमादित्य बहुत खुश हुए और झट से अपने महामंत्री की ओर देखकर बोलें- क्यों महामंत्री! आपका हमारे बारे में क्या विचार है- क्या आपको हममें कोई दोष नजर आता है? महाराज! आपका राज्य तो इस समय महान राज्य है जिस राजा की प्रजा सुखी हो, उसका राज्य सुखी ही होता है, सुखी बलवान राजा उस देश के राजा में सब गुण होते हैं। महामंत्री के इस निर्णय से राजा विक्रमादित्य और भी खुश हुआ। राज-पुरोहित के पश्चात् महामंत्री ने भी उसे निर्दोष सिद्ध कर दिया था, अब राजा ने सेनापति की ओर इशारा करके कहा- क्यों बहादुर सेनापति, क्या आपके विचार में वास्तव मे ही हम निर्दोष हैं, हमारे में सभी गुण हैं जो एक महान राजा में होते है? सेनापति ने अपना सिर राजा के आगे झुकाते हुए कहा-
महाराज, आप केवल दयालु राजा ही नहीं बल्कि, इसके साथ-साथ बहादुर और महाबली भी हैं, आपकी शक्ति के आगे बड़े-बड़े बहादुरों ने अपनी तलवारें फेंक कर यह सिद्ध कर दिया है कि आप महान हैं, एक महान व्यक्ति और महान राजा यह सभी गुण तो आप में हैं। सेनापति के मुंह से यह शब्द सुनकर राजा विक्रमादित्य और भी खुश हुए। उन्होंने सभी दरबारी लोगों को हाथ जोड़कर विदा किया।
उनके जाने के पश्चात् राजा विक्रमादित्य फिर सोच में पड़ गए, उनकी आत्मा जैसे अभी प्यासी ही हो, क्योंकि खाली राज दरबार के लोगों से अपनी प्रशंसा सुनने से सत्य में संशय था, इसके साथ प्रजा का विश्वास प्राप्त करना भी जरूरी था। जनता के निर्णय के बिना हर विश्वास अधूरा माना जाता है। हां, यदि जनता उनको निर्दोष और गुणवान मान ले तो शायद उनकी आत्मा संतुष्ट हो जाए। वे अपनी प्रजा से विश्वास का मत प्राप्त करेंगे- दूसरे दिन उन्होंने सारे राज्य में इस बात की घोषण करवा दी कि महाराज विक्रमादित्य अपनी प्रजा को दरबार में बुलाकर उनके मन की बात जानने के इच्छुक हैं। सारे देश में इस बात की घोषणा कर दी गई।
फिर एक दिन जैसे ही सारी प्रजा राज-दरबार में हाजिर हुई, राज ने अपने देशवासियों के सामने खड़े होकर कहा- मेरे देशवासियों, आज मैंने आपको इसलिए यहां पर बुलाया है कि मैं अपने बारे में आप लोगों के विचार जा सकूं, मैं यह तो जानता हूं कि मैं भगवान नहीं हूं, मगर मैं आपसे यह भी तो जानना चाहता हूं कि आप लोग मुझसे सुखी हैं अथवा नहीं? हम अपने राजा से बहुत सुखी हैं, हमें कोइ दुःख नहीं- सारी प्रजा एक साथ बोल उठी। तो क्या हम यह जान सकते हैं कि हममें केाई दोष आप लोगों को नजर आता है। यदि हममें कोई दोष हो तो आप लोग बेझिझक होकर बोल सकते हैं।
नहीं महाराज! आपमें कोई दोष नहीं, आपमें तो सभी गुण ही गुण है। प्रजा ने फिर एक बार कहा। राजा विक्रमादित्य अपनी प्रजा का विश्वास प्राप्त करके अत्यन्त खुश हुए और प्रजा को हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए सभी को खुशी-खुशी विदा किया, स्वयं अपने महल में चले गये। राजा ने यह तो जान लिया कि प्रजा और राजदरबार के लोग उसे हार्दिक प्यार करते हैं और सर्वश्रेष्ठ भी मानते हैं। उनके विचार में मैं गुणवान हूं, मगर इससे राजा के मन को शांति नहीं मिली, राजा ने सोचा- यह लोग मुझे इसलिए महान और सर्वश्रेष्ठ मानते हैं क्योंकि मैं इनका राजा हूं। इसलिए उन्होंने मुझमें कोई दोष नहीं निकाला, इस गुण और दोष का पता तो उसी से चल सकता है जो उसे जानता हो।
राजा ने सोचा कि उसे अज्ञात बनकर अपने राज्य से दूर जाना होगा, तभी वह अपने बारे में लोगों के विचार जान पाएगा। यही सोचकर राजा ने अपने रथ वान को बुलाया और उससे बोला कि हम इस शहर से बहुत दूर अकेले घूमना चाहते हैं। हमारे साथ केवल तुम ही चलोगे। जो आज्ञा महाराज! रथ वान ने हाथ जोड़ते हुए अपना सिर राजा के आगे झुका दिया। राजा विक्रमादित्य अपने राज्ये से बहुत निकल आए थे, रास्तें में सैकड़ों गांवो में से उनका रथ गुजरा, उसने अपनी प्रजा से बराबर अपने बारे यही पूछा कि तुम्हें राजा विक्रमादित्य कैसे लगते हैं? सारी प्रजा की एक ही आवाज थी कि हमारे राजा तो बहुत अच्छे हैं।
चलते-चलते राजा का रथ एक ऐसे पुल पर आ गया था, जहां पर एक समय में एक ही रथ गुजर सकता था। यह उस समय की प्रथा कि कोई भी छोटा व्यक्ति अपने से बड़े अथवा सम्मानित के लिए रास्ता छोड़ता था। उधर से आने वालो से राजा के रथ वान ने दूर से कहा- देखो बन्धु, हमारा रास्ता छोड़ दो। हमारे विक्रमादित्य महाराज एक बहादुर राजा हैं, इनके लिए रास्ता छोड़ना ही पड़ेगा। यदि तुम्हारे विक्रमादित्य महाराजा हैं तो मेरे स्वामी भी तो काशी के ब्रह्मदत्त महाराज हैं। इसलिए तुम्हें भी मेरे स्वामी के लिए रास्ता छोड़ना होगा। हम दोनों ही बराबर के राजा हैं। इसलिए हमारे बड़े होने का निर्णय केवल आयु और राज्य के आधार पर ही हो सकता है। किन्तु कितने आश्चर्य की बात निकली कि दोनों राजाओं के राज्य का क्षेत्रफल और आयु भी बराबर निकली। अब छोटे-बड़े का निर्णय हो तो कैसे?
दोनो राजा चिन्ता में डूब गये। अन्त में काशी के राजा ब्रह्मदत्त ने कहा- देखो! महान व्यक्ति की पहचान केवल उसके गुणों से होती है। अब आप अपने गुणों का परिचय दो जिससे आपकी महानता सिद्ध हो सके। मैं बुराई का बदला बुराई से और भलाई का बदला भलाई से देता हूं। राजा विक्रमादित्य ने पूरे अहं भाव से कहा।
महाराज ब्रह्मदत्त ने कहा- यदि यही तुम्हारे गुण हैं तो इससे बड़ा दोष और इस दुनिया में कोई नही हो सकता। महाराज ब्रह्मदत्त, आप होश में तो हो, मेरे बारे में तो मेरी प्रजा और मेरे दरबार के सभी लोग यही कते हैं कि मैं महान हूं, इस संसार के सभी गुण मेरे पास हैं। यदि आप मेरे इन गुणों का मजाक उड़ाते हो, तो आप अपने गुणों के बारे में ही बता दो। सुनो राजा विक्रमादित्य! मैं बुराई का बदला भलाई से देता हूं। जो मेरा बुरा करते हैं, मैं उनका भी भला करता हूं। राजा विक्रमादित्य ने जैसे ही राजा ब्रह्मदत्त के मुंह से यह शब्द सुने तो उसे यह मानने में कोई शर्म महसूस न हुई कि वे ही महान हैं। जो बुराई का बदला भी भलाई से देते है, वहीं महान हो सकते हैं।
राजा विक्रमादित्य ने अपना सिर ब्रह्मदत्त के आगे झुका दिया—-और बोल उठा- मुझमें अभी बहुत दोष हैं। आपसे मिलकर मुझे अपने दोषों का ज्ञान हुआ, आप महान हैं—–!! अतः जो अपने गुण दोषों का चिन्तन कर निरन्तर क्रियाशील होता है, वही श्रेष्ठ हो पाता है अर्थात् जो आत्म के सभी तत्वों को पहचान लेता है उसके लिए शरीर एक रथ है, नचिकेता द्वारा मृत्यु प्राप्ति का भाव उदय होने पर यमराज ने कहा कि हे नचिकेता! तुम इस जीवात्मा को रथ का स्वामी, शरीर को रथ, बुद्धि को सारथी तथा मन को लगाम समझों अर्थात् शरीर जब क्रियाशील होता है, वह पूर्ण रूप से देह के माध्यम से विद्यमान रहता है और इसमें क्रियाशीलता की भावना बुद्धि द्वारा प्राप्त होती है। जीवात्मा रूपी देह को किस दिशा की ओर परिवर्तित करना है, वह हमारे मन रूपी लगाम द्वारा संभव हो पाता है।
गुरुत्व प्राप्ति के लिए तीन मार्ग ही श्रेष्ठ हैं- ज्ञान, भक्ति और कर्म अर्थात् देवत्व स्वरूप में सभी शक्तियों को आत्मसात करने के लिए सर्वप्रथम सुज्ञान का होना आवश्यक है अर्थात हमारा आचार-विचार, भाव-चिंतन, सोच, बुद्धि में श्रेष्ठता होना आवश्यक है। ये सभी चिंतन, ज्ञान में समाहित होंगे तब ही भीतर में भक्ति रूपी प्रेम जाग्रत होगा, जितना-जितना ज्ञान और भक्ति का विस्तार होगा, उतना ही कर्म करने में प्रतिबद्धता बनी रहेगी।
ये तीनों ही स्थितियां समान रूप से जाग्रत रहेंगी तो हमारा जीवन मृत्युंज्य युक्त बन सकेगा। हर सुस्थिति स्वरूप में संकल्प, कर्म, वाणी, सम्बन्ध, सम्पर्क को अपनाने से स्वतः ही सिद्धि स्वरूप स्थितियां बनती हैं और इसी से असंभव कार्य भी संभव हो पाते हैं। मनुष्य ही अपने कर्मों को ज्ञान और भक्ति द्वारा सुधारकर स्वयं में परिवर्तन लाकर सर्व पूजनीय बन सकता है। दुःखों का कारण विकार है और विकार सत्संग से ही दूर होते हैं अर्थात् जीवन में जो सत्-सत् है उसे ही धारण करने से दुःख, पीड़ा, कष्ट समाप्त होते हैं।
भौतिक जीवन में निरन्तर कर्मशील रहने से ही देवमय स्थितियां निर्मित होती हैं। इसके विपरीत कर्म के फल की ओर आसक्ति का भाव जीवन को नारकीय बना देता है। योगी, संत, विद्वान, श्रेष्ठ महापुरुष, सामान्य जन सभी की स्थूल काया पंच तत्व में विलीन हो जाती है। परन्तु संसार में सुकर्मों और कुकर्मों का गान युगो-युगो तक बना रहता है। शरीर का सम्बन्ध जब आत्मा और मन से समाप्त हो जाता है। तब वह निष्काम भाव से शांत हो जाता है। उसका किसी से मोह या आसक्ति नहीं रहती, शरीर किसी के पीछे नहीं भागता बल्कि शरीर नष्ट होने के पश्चात् उसके द्वारा किए गए कार्य व गुणों का ही सदैव स्मरण किया जाता है। मन को वश में करने के लिए अभ्यास व वैराग्य भाव होना आवश्यक है। अभ्यास और वैराग्य से विचारों में स्थिरता और एक रूपता आती है और उससे विवेक जाग्रत होता है, विचार और विवेक के सामने आते ही मन का उद्वेग समाप्त हो जाता है और राग, भय व क्रोध नष्ट हो जाते हैं। मन को नियंत्रित करने के लिए काम, क्रोध, ईर्ष्या, मोह और मद को अपने वश में करना होता है। हमारा मन अपने आप में एक ब्रह्माण्ड है, हमारे गुप्त विचार और गुप्त आकांक्षायें हमारे जीवन को प्रभावित करती रहती है। जैसे हमारे विश्वास के साथ कर्म का भाव होता है, वैसा ही हमें फल प्राप्त होता है अर्थात् कार्य करते हुए हमें जैसा भाव-विचार मिलता है, उसी अनुरुप परिणाम की प्राप्ति होती है। अनमने मन से या नकारात्मक सोच से कार्य करने पर उसका पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं हो पाता क्योंकि कर्म की बुनियाद ही नकारात्मक भाव-चिंतन से रखी है। कई बार दुर्भाग्य और परिस्थितियां जीवन को इतना दुःखी बना देती हैं कि व्यक्ति अपने को एकदम असहाय सा पाता है। ऐसी स्थिति में हमें विचार करना चाहिए कि हम अपने जीवन को बनाने के लिए हर प्रकार से स्वतंत्र, समर्थ और अपने भाग्य के निर्माणकर्ता हैं, हर स्थिति में ईश्वर हमारे साथ है और ज्योंहि हम ईश्वर की ओर उन्मुख होते हैं, सरल भाव से सहायता की याचना करते हैं, त्योंहि उनकी सहायता के अदृश्य हाथ हमारी ओर बढ़ जाते हैं और दुर्भाग्य पूर्ण परिस्थितियों में एक नया मोड़ आ जाता है। रास्ता सुगम हो जाता है और व्यक्ति के असहाय वाली स्थिति में परिवर्तन होकर वह विजयश्री को प्राप्त हो जाता है और हमारा जीवन भी नदी की तरह प्रभावमान रहता है अनेकों उतार-चढ़ाव आते हैं जीवन में, आशा-निराशा के क्षण आते हैं और हम थक कर परेशान होकर जीवन से निराश होने लगते हैं, इसके विपरीत नदी ना तो निराश होती है और ना ही रूकती है। वह उतार-चढ़ाव बांध, चट्टान, बड़े-बड़े पत्थरों, विशाल पेड़ो की बिलकुल भी परवाह नहीं करती और उन्हें पूरी शक्ति से तोड़कर आगे बढ़ती चली जाती है। नदी की शक्ति उसकी गति है, मार्ग में आने वाली बाधाएं उसकी शक्ति को, गति को बढ़ा देती हैं। ठीक उसी तरह से सांसारिक मनुष्य के भी जीवन में आत्मशक्ति व कर्मशक्ति का बल होता है।
परन्तु अधिकांश सांसारिक मनुष्य इन शक्तियों का पूर्ण उपयोग नहीं कर पाते, क्योंकि उनके मन, विचारों, भावों में नकारात्मक सोच व डर, भय, असफलता का भाव बना रहता है। साथ ही कर्महीनता भी उसके जीवन को अधोगति की ओर अग्रसर करती है। यही कारण है कि मनुष्य स्वः के दोषों से ही जीवन में पराजित होता है। इसके विपरीत अपने सुज्ञान को निरन्तर क्रियाशील रखें और सुज्ञान के साथ-साथ अपने स्वः पर पूर्ण विश्वास और भक्ति रूपी आस्था से युक्त कर्म का भाव बना के रखे तो जीवन में कोई भी असंभवमय स्थितियां नहीं रहती।
ज्ञान, भक्ति और कर्म की कोई सीमा नहीं होती, अतः निरन्तर यही भाव चिंतन होना चाहिए कि देह के वृद्धि के साथ-साथ ज्ञान वृद्धि में उच्चता और श्रेष्ठता आये जिससे सांसारिक मनुष्य निरन्तर क्रियाशील रह सके, उम्र के वृद्धि के साथ-साथ ज्ञान-चेतना का विस्तार होगा, त्यों-त्यों भक्ति रूपी समर्पण में भी वृद्धि हो सकेगी और इन दोनों के सहयोग से कर्मशीलता का सुफल प्राप्त होता रहेगा।
परम पूज्य सद्गुरुदेव कैलाश श्रीमाली जी
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