गोविंद बोलो-गोपाल बोलो, गौ कहते हैं इन्द्रियों को, विंद कहते हैं जो आधार देता है अर्थात् गोविंद उसे कहते हैं, जो इन्द्रियों का आधार है। इन्द्रियां कौन सी शक्ति से चलती हैं? आंखें किसकी शक्ति से देखती हैं? ये कान किस शक्ति से सुनते हैं? ये जुबान किसकी शक्ति से बोलती है? इन इन्द्रियों को कौन शक्ति दे रहा है? और जो इन इन्द्रियों को शक्ति दे रहा है, वही गोविंद है। कृष्ण को गोविंद कहा गया है, जो जगद्गुरु हैं, सृष्टा हैं, पालनकर्ता हैं और वे योगियों के भी योगेश्वर हैं। गोविंद शब्द का आध्यात्मिक अर्थ एक ऐसा अर्थ है, जो सर्वमान्य होगा, चाहे फिर वो मुस्लिम हो या सिख हो, ईसाई हो या कोई और हो। सबकी इन्द्रियों को जो शक्ति दे रहा है, वही गोविंद है। सबकी इन्द्रियों को जिसकी शक्ति मिल रही है वह गोविंद है।
परमात्मा सब में है, परमात्मा सब घट में है, सर्व रूपों में है लेकिन मेरी मुलाकात नजदीक से नजदीक अगर मैं करना चाहूं तो हृदय के गहराई में होगी और जब भी होगी तो गोविंद रूप से होगी। इसलिए गोविंद बोलो – गोपाल बोलो क्योंकि गोविंद बोलते-बोलते उतनी देर के लिए मन का दूसरा शोर चुप हो जाएगा, जब तक मैं शिविर में नहीं आता हूं, अधिकतर लोग गटर-पटर बोलते रहते हैं, पण्डित जी पूजा करवा रहें हैं, कुछ समझा रहें हैं, पण्डित जी अपना काम कर रहें और इधर लोगो की अपनी पटर-पटर चल रही है, भईया तुमने दीक्षा कब ली? मैंने तो सद्गुरुदेव के जमाने से दीक्षा ली थी। ओह! हो आप तो बहुत बड़े साधक हो, आपकी बात ही क्या है! भले ही उसने 25 साल में 25 माला गुरु मंत्र जप ना किया हो, 25 दिन भी गुरु सेवा ना किया हो और इतना सुनते ही वह और फूल जाता है, फिर डींगे हांकने का सिलसिला चालू हो जाता है और आप उसके आगे-पीछे घूमने लगते हो। भ्रमित होते हो, आपको स्वयं सोचने की आवश्यकता है, जो 25 साल में 25 कदम भी नहीं चला है, वह आपको कोई मार्ग क्या दिखाएगा? आपके पास गुरु हैं, गुरु के सेवादार हैं, मंच पर पण्डित जी हैं, वे आपका मार्गदर्शन करने के लिए ही हैं। आप शांति पूर्वक ध्यान से उनकी बात तो सुनें और आपको मैं स्पष्ट बता दूं, सद्गुरुदेव नारायण आपके प्रत्येक प्रश्न का जवाब देते हैं, जब भी आप किसी साधना महोत्सव में, शिविर में आते हैं तो आपको आपके प्रश्न का जवाब अवश्य ही मिलता है, आप समझ पायें या ना यह आपके विवेक पर निर्भर है, लेकिन उत्तर अवश्य दिया जाता है। मैं बात कर रहा था कि जब तक मैं शिविर नहीं पहुंचता इधर-उधर की बातें चलती रहती हैं और जब शिविर में मैं पहुंचता हूं तो आप कितनी शांत से, धैर्य पूर्वक, एकाग्र होकर गुरु ज्ञान को आत्मसात करते हैं, सद्गुरुदेव का आवाहन करते हैं, भजन, मंत्र जाप करते हैं, गुरु का स्मरण, चिंतन, मनन करते हैं, उसी समय आप अन्य विचारों से कट जाते हैं। आपके अन्य विचार समाप्त हो जाते हैं, केवल और केवल गुरु याद रहता है, गोविंद याद रहते हैं। यही वह मार्ग है जिसमें कहा गया गोविंद बोलो-गोपाल बोलो कि जितनी देर आप बोलोगे, उतनी देर के लिए आप उनसे जुड़ जाओगे, अपने इन्द्रियों से जुड़ जाओगे, अपने आपसे जुड़ सकोगे।
आज-कल एक बड़ी समस्या है, जो है तो सुविधा के लिए लेकिन लोग इससे डिस्टर्ब ज्यादा हुए। पिछले दिनों मेरे पुराने मित्र थे, जो काफी समय से बीमार थे, मुझसे वरिष्ठ थे। उम्र के हिसाब से तो मित्रता जैसी कोई बात आपको नहीं लगेगी, लेकिन मेरे काफी निकट थे, तो उन्हें आई-सी-यू- में रखा गया था, मैं गया मेरे साथ एक-दो लोग और थे, उनके हाथ में मोबाईल फोन था। आई-सी-यू- में पहुंचते ही धड़ाधड़ खींच ली चार-पांच सेल्फी और फिर लग गए सोशल मीडिया पर पोस्ट करने। मैं आपको बताऊं शुरु-शुरु में मोबाइल फोन प्रेस्टीज का चिन्ह था, प्रेस्टीज मतलब दिखावटी खिलौना होता है। तो शुरु में जिसके पास भी होता था, वो फोन करता कम, उसके हाथों में दूसरों के फोन बजते कम, लेकिन वो हाथ में लेके घूमता रहता कि देख लो भई, मेरे पास मोबाइल फोन है। फिर धीरे-धीरे ये इतना सस्ता हो गया कि लोग इसको खिलौने की तरह इस्तेमाल करने लगे और एक समय ऐसा भी आएगा कि आपके बच्चे टिफिन बाक्स के साथ मोबाइल फोन भी रखेंगे।
और ऐसे ही यहां भी है लोग आते हैं, साधना के लिए, मंत्र जाप के लिए लेकिन व्यस्त हो जाते हैं, सेल्फी लेने में, आपका जो मूल्य उद्देश्य है पहली प्राथमिकता उसी की होनी चाहिए आप यहां आते हैं, मेरे पास तो अपने समय का पूरा उपयोग करें, आप घर में क्या करते हैं? कितनी साधना करते हैं, मंत्र जप करते हैं? यह तो ईश्वर ही जाने, लेकिन यहां मेरे सामने बैठकर एक-दो घंटे मंत्र जाप तो करें, सद्गुरुदेव का चिंतन तो करें, लेकिन आप भ्रमण में व्यस्त हो जाते हैं, भ्रमण कीजिए, सेल्फी भी लीजिए लेकिन आपकी जो प्राथमिकता है, जिस उद्देश्य से आप आये हैं, पहले उसे पूरा करें।
ऐसे ही हालात हो जाते है, शिविर में मैं देखता हूं कि लोग फोन पर कितने व्यस्त हैं, सबके पास फोन हैं, सब व्यस्त हैं अब किसे ध्यान है, क्या करने आये और क्या कर रहें हैं? आदमी ऐसे ही बहुत बड़ा गपस्तान रेडियो है। गप्पें तो वह हवा में हांकता रहता है। समय की बर्बादी करना अगर सीखना हो, तो इंसान को देख लो। जानवरों को आप देखो तो वो बेवजह नहीं बोलते। जब वो बोल भी रहें होते हैं तो उसके बोलने के पीछे- There are some biological reasons why they are crying out.
जैसे पक्षियों में, हिरणो में, हाथियो में, चीते में, शेर में और भी अन्य बहुत सारे जानवर हैं, पक्षी हैं, जब उनका मेटिंग सीजन आता है, वो वर्ष में सिर्फ कुछ ही काल, कुछ ही समय के लिए कोई एक वर्ष में एक बार, कोई एक वर्ष में दो बार ऋतुकाल में आता है। ऋतुकाल अर्थात् प्रजनन की प्रक्रिया उनके शरीर में शुरु होती है, तो मादा पुकारती है, बुलाती है। कोयल की पुकार कुहू- कवियों ने, शायरो ने बड़े सुन्दर ढंग से दर्शाया है लेकिन वो कूक क्यों कर रही है? वो आपके लिए गीत नहीं गा रही है, कोयल आपको नहीं सुना रही है, वो अपने साथी को बुला रही है। कुछ पक्षियां, कुछ जानवर आवाज तब करते हैं, जब भूचाल आने वाला हो, जापान में तकरीबन-तकरीबन गांव के हर घर में एक विशेष चिडि़या आपको जरूर मिलेगी क्योंकि ये चिडि़या ऐसी है कि भूचाल आने वाला हो, चूंकि भूचाल जापान में अधिक आते हैं, तो ये चिडि़या यूं समझिए कि उनका एक सिक्योरटी गार्ड होता है कि जहां भूचाल के आने का आभास हुआ, इंसान को नहीं पता चलता, इंसान के यंत्रें को पता नहीं लगता, वैज्ञानिक उपकरणों को भी पता नहीं चलता लेकिन ये पक्षी जो हैं, ये चिल्लाने लग जाते हैं, शोर करने लग जाते हैं। जहां ये चिल्लाने लग जाएं तो इसका अर्थ ये कि भूचाल आने वाला है।
ये महसूस करने की ताकत कुत्ते में भी होती है। ये भी भौंकना शुरु कर देंगे। बैल, गाय ये भी रंभाना शुरु कर देंगे। नहीं तो आप देखो कैसे साधु होते हैं भैंस, वो अपना चबाए जा रहें हैं, जुगाली किए जा रहें हैं। मस्ती से डोलते हुए चलते जा रहें है। कभी गौर से देखो इनको जब ये निकलते हैं, खाने को, पीने को इधर-उधर जब जाने लगते हैं, तो आप देखिए कैसे एकदम बुद्ध के भिक्षुओं की तरह पंक्ति बद्ध होके चलते हैं। देखा कभी भैसों को? कहीं लड़ाई नहीं करती, कहीं कुछ नहीं करती। एक चल रही है उसके साथ सिर नीचे झुकाए-झुकाए सब चलते जा रहें हैं।
आप भेडों को देखिए, भेडें जब चलती हैं, तो बस एक के पीछे एक, एक के पीछे एक। जब आदमी चलता है, तो वालंटियर खड़े करने पड़ते हैं। इधर से जाओ, इधर से न जाओ। पुलिस को चौक में खड़ा करना पड़ता हे। दाएं मुड़ों, बाएं न मुड़ो। ऐसे तो इंसान अपने आपको श्रेष्ठ कहता है लेकिन इसको सड़क पर चलना भी सिखाना पड़ता है। इसको इसकी गति को, इसकी चाल को नियंत्रित करने के लिए आपको पुलिस चाहिए। पशुओ को देखिए, उनको नियंत्रित करने की जरूरत नहीं पड़ती। मुझे ध्यान पड़ता है, हम लोगो को अक्सर बचपन में इस तरह के प्रश्न पूछे जाते थे कि 100 भेडें चल रहीं हैं, एक भेड़ खाई में चली गई तो बाकी कितने बचे? तो बच्चों ने कहा 99 क्योंकि वो दिमाग लड़ाते हैं न अपना। सौ में एक गया 99 ही तो बचे। हमने कहा- ऐसे कैसे? गणित में यही है कि 100 में से एक निकालो तो 99 बचता है। तो भेड़ एक निकल गई तो बाकी पीछे 99 तो हुई।
भेड़ तो ऐसी है एक अगर सरक गई तो दूसरी उसके पीछे, तीसरी उसके पीछे, गडरिया अकेला खड़ा रह जाएगा, भेड़ सब खाई में पहुंच जाएंगी। कितने तरीके-तरीके से चलते हैं। जानवर की तुलना में अगर हम इंसान को देखें तो इसको नियंत्रित करने के लिए कानून है, इसको नियंत्रित करने के लिए नीति शास्त्र है, इसको बांधने के लिए समाज के नियम हैं और फिर भी ये मौका लगाके समाज के नियम को भी तोड़ जाएगा, कानून को भी तोड़ जाएगा। सबको तोड़-फोड़ के निकल जाएगा।
जार्ज गुर्जिये जर्मनी के एक अत्यधिक प्रभावशाली जागृत चिंतनशील व्यक्ति हुए। वो अपना प्रयोग किया करते और उनके सत्संग का हाल कुछ इस तरह से रहता, हजारों की तो बात छोड़ दो, सौ की बात भी छोड़ दो, पचास की भी बात छोड़ दो, गिनती के कोई 10-15 ही उनके साधक रहते और उन 10-15 साधक को भी वो क्या कहते कि अच्छा, कल 6 बजे हम लोग फ्रैंकफर्ट से चालीस कि-मी दूर सुबह 6 बजे मिलेगें वहीं पर सत्संग करेंगे। तो उसके जो साधक रहते सुबह 6 बजे पहुंचने के लिए घर से निकलते 20 कि-मी- दूर फ्रैंकफर्ट से बाहर आते और जब उस जगह पहुंचते तो वहां एक मैसेज मिलता कि अब यहां नहीं फ्रैंकफर्ट में होगा।
लोग फिर गाडि़या घुमाते फिर वापिस आते। मतलब बीस गये और बीस लौटे। इसी तरह करते रहे वो। एक बार उनके एक शिष्य ने पूछा कि आप ऐसा क्यों करते हैं? उन्होने बोला- भाई! अपनी दौलत को मैं तुमको दे रहा हूं, तो क्या देने से पहले ये भी न देखूं कि तुम sincere हो भी कि नहीं? मेरी ये दौलत है जो मेरे पास है, ये मेरा ज्ञान, ये मेरा ध्यान, ये मेरी दौलत है। इस आध्यात्मिक सम्पदा को मैं तुमको देता हूं, तो क्या देने से पहले ये भी न देखूं कि तुम सच्चे जिज्ञासु हो कि नही?
भारत में सदियों से ये परम्परा रही, ऋषि आश्रम में जा करके, ब्रह्मचर्य धारण करके 24 वर्ष तक तो यूं विद्यार्थी रहते। सीखते-सीखते, पढ़ते-लिखते सेवा करते। फिर कहते अब मुझे ब्रह्मविद्या की दीक्षा दो और फिर भी गुरु कहते- अच्छा रुको, समय आने पर देंगे। अभी जप करो, अभी यज्ञ करो, अभी तीर्थ करो, अभी रुको। योग्यता परखते, जांचते। उनको सेवा लेने का कोई मजा नहीं था। सेवा लेने की उनको कोई बुरी आदत नहीं थी कि नहीं, हमको सेवा करानी है कि मुफ्रत के नौकर मिले हुए हैं। नहीं, सेवा होते-होते, गुरु के पास रहते-रहते गलती होती, गलती पे डांट पड़ती तो इस तरह से डांट पड़ना, गुरु का डांट देना, खयाल करना गुरु जब डांट दे अपने किसी शिष्य को तो समझ ले वो डांट नहीं रहा है, वो शिष्य के मन का आपरेशन कर रहा है। जैसे आपके जिस्म पर फोड़ा आ जाए तो आप डॅाक्टर के पास जाएंगे वो फोड़े को चीरा लगाता है। आप डॅाक्टर को जालिम आदमी नहीं कहते हो, आप कहते हो कि आपने बड़ी कृपा की फोड़े को चीरा लगाया। आपके पेट में रसौली हो गई, आपके पेट में टयूमर हो गया, आपका हार्ट ठीक से काम नहीं कर रहा है, आपको एंजियोग्राफी की जरूरत आ गई है, आपको बाईपास की जरूरत आ गई है, वो आपकी छाती चीरता है। तुम चाकू से छाती चिरवाने के पैसे देते हो सर्जन को। हद तो ये है वो तुम्हारी छाती चीर रहा है, तुम उसको पैसा दे रहे हो। वो तुम्हारा पेट चीर रहा है, ट्रांसप्लांट करेगा, किडनी का रीनल ट्रांसप्लांट करेगा, you are paying for cutting your stomach.
पर वो आपके ऊपर जुल्म नहीं कर रहा है, वो आपके ऊपर करूणा कर रहा है, आपके रोग को दूर कर रहा है, आपके उस ट्यूमर को जो आपको तकलीफ दे रहा था, उसको निकालने के लिए पेट काट रहा है, आपको मारने के लिए नहीं पेट काट रहा।
इसी तरह से जब ब्रह्मवेत्ता अपने किसी शिष्य को डांटता है, तो वो डांट नहीं रहा, वस्तुतः वो उसकी सर्जरी कर रहा है। खयाल करना तुम अपनो की बात नहीं सुनते हो। पत्नी कहती रह जाती है- सुनते हो जी! सुनते हो जी! वो आगे से कहता भी रहेगा- हां जी, सुन लिया है, ओ अच्छा ठीक है। पर करेगा अपनी मर्जी। बच्चों की तुम नहीं सुनते हो। बच्चे अपना राग अलापते रहते हैं, लेकिन तुम लोगों को फुर्सत नहीं होती कभी दुकान से, कभी नौकरी से और नहीं तो गपबाजी से। किसी की नहीं सुनते। किसी के आगे कौन झुकना चाहता है। कोई नहीं झुकना चाहता। जरा-जरा सी बात के ऊपर लड़ाई हो जाती है, क्लेश हो जाता है। एक ही एक सद्गुरु का द्वार है कि जहां थोड़ा सा सिर झुकता है। एक ही एक जगह है, जहां श्रद्धापूर्वक तुम जाते हो और नमन करते हो और संत भी धीरे-धीरे प्यार तुमको देते हुए, आशीर्वाद तुमको देते हुए, ज्ञान की गंगा में तुमको डुबकियां लगवाते हुए इस के लिए तैयार करता है कि तुम्हारे अवगुणो को एक-एक करके काट सके वो।
अगर डांटता है गुरु तो उसकी डांट बड़ी मीठी लगती है। क्योंकि उसकी डांट में भी तो प्यार छिपा है न। अनजान आदमी की आप डांट भी बर्दाश्त नहीं करोगे, करोगे क्या? डांट तो बड़ी दूर की बात है आपके पास से निकल जाए और आपको बुलाए नहीं आपको गुस्सा आ जाता है। आपके घर में झगड़ा हो रहा है, पति शराब पीके आया है, पत्नी को पीट रहा है, बच्चे रो रहें हैं, पड़ोसी आ जाते हैं कि बचाएं, छुड़ाएं इस बेचारी अबला औरत को और दो ने आदमी को पकड़ा औरतों ने पत्नी को संभाला, पत्नी रो रही, बाल खुले पड़े, शरीर पर जख्म हो गए हैं। गुस्से में आ करके, ताव में आ करके दो-चार आदमियों ने पति को पीटना शुरू किया। जहां पीटना शुरु किया तो पत्नी और ज्यादा जोर से चिल्लाई- अरे मत पीटो! काहे पीटते हो इसको?
बोले- ऐसा बदतमीज आदमी है, कब से तो इसने हल्ला मचाया है, तुम्हे मार रहा है, चुप रह अब तू। पत्नी कहती है- ये हमारा पति-पत्नी का मामला है, तुम कौन होते हो? अगर मार भी रहा है, तो तुम कौन होते हो? तो ऐसे पति-पत्नी के झगड़े जब चलते रहे, शोर-शराबा होता रहता है, तो पड़ोसी कहते- कोई बात नहीं, समझों टीवी में शोर-शराबा हो रहा है, क्या करें अब? बाप उठके बच्चे को पीटता है, आप चले जाओ कि काहे पीटते हो तो कहेगा- तू कौन होता है? मैं तो बाप हूं, इसका तू कौन होता है?
मैं एक बार देख रहा था, एक आदमी साइकिल पर चला जा रहा है। 5-6 साल के बच्चें को डंडे पर बैठाया हुआ और रुक-रुक के उसको थप्पड़ मार रहा है। ये थप्पड़ मारे वो रोए, समझ नहीं आया साइकिल चला रहा है, बच्चा बेचारा बैठा है, पर थप्पड़ काहे मारते जा रहा है ये? तो एक आदमी ने आवाज देके पूछ लिया- अरे भाई साहब! क्यों मार रहें हैं इस बच्चे को? क्या किया है इसने? वह बोला साइकिल में घंटी नहीं है। लोग अपने मन का गुस्सा अपने बच्चों पर उतार लेते हैं और कोई मना करें कि क्यों करते हो, तो कहते हैं- तुम कौन होते हो जी? हमारा बच्चा, हम जो मर्जी करे, मेरी बीवी, मैं जो मर्जी करूं।
किसी की नहीं सुनता आदमी। एक ही एक जगह है सद्गुरु का द्वार जहां तुम थोड़ा सा तो झुकते हो। अगर अभी नहीं झुक रहे तो आगे झुकने की संभावना है। अक्सर स्त्रियां मुझे पत्र लिखती हैं- पति शराब पीता है। आप एक बार इनसे कह दीजिए, ये आपकी बात नहीं टालेंगे, आपको बहुत मानते हैं। बच्चों के पत्र आते है, हमारे पास कि पापा हमारे बहुत गुस्सा करते हैं। आप उनको समझाएं, वो शिविर में आते हैं, आप उनको समझाएं, वो बिना बात के हम लोगों को बहुत मारते हैं। आप कह दीजिए गुरु जी तो वो मान जाएगें, मतलब बच्चो को भी भरोसा होता है मुझ पर कि अगर गुरु जी कहेंगे तो पापा मान जाएंगे। पत्नी को भी भरोसा होता है मुझ पर। कई बार पतियों के पत्र आते हैं कि पत्नी काम नहीं करती है। काम का समय हो तो सिर दर्द लेके बैठ जाती है और नहीं तो कहेगी- मैं तो साधना करने जा रही हूं, मैं ध्यान करने जा रहीं हूं, रोटी आप बाहर से मंगवा लो, ऐसी औरतें भी बहुत होती हैं।
एक नई ब्याही बहू आई, उससे सांस ने पूछा-खाना बनाना आता है? कहती है नही। सांस ने कहा- इतनी बड़ी तेरी मां ने तुझको कर दिया, रोटी पकानी तेरे को सिखाई नहीं है। चूड़ी पहनी, लाल चुनरी ओढ़ी हुई बहू और आंख नीचे किए-किए कहती मम्मी जी! ढाबे वाले सारे मर गए हैं क्या? रेस्टोरेंट इस शहर में सारे बंद हो गए हैं क्या? और नहीं तो किसी मंदिर के भण्डारे से ले आएगें, काहे को रोते हो? आप खाना बैठ करके। खाने से मतलब है न, जरूरी तो नहीं कि मैं ही पकाऊं।
कई बार आदमी भी आते हैं- कहेंगे हमारी पत्नी से आप कह दीजिए। आपका वचन वो नहीं वापिस करेगी, लेकिन समझ की बात यह है कि जब तक कोई स्वयं बदलना ना चाहे, उसको कोई नहीं बदल सकता। कृष्ण समझाते रह गए दुर्योधन को, समझ गया था क्या वो? कृष्ण जैसे अवतारी पुरुष की भाषा को क्या दुर्योधन जैसा आदमी समझ पाया? नहीं समझ पाया। बल्कि जरा जोर दिया तो कह दिया, करो गिरफ्तार इसको, डाल दो कारागार में इसको। आया है पांडवो का पैरोकार बनके, इसको भी पकड़ो जेल में डाल दो। महाभारत गवाह है, इस बात का कि कृष्ण को अपना विराट स्वरूप दिखा करके, वहां से जाना पड़ा, निकलना पड़ा वहां से कि ये तो मेरे को जेल में डालने को तैयार बैठा है। समझाएंगे क्या आप ऐसे आदमी को? तो जब भी कभी कोई मुझसे कहता है कि आप समझाइए तो मेरा एक ही जवाब होता है कि तुम उसको शिविर में लाओ, शिविर में बैठे, हम सर्व साधारण बात करेंगे और कोई बात अगर उसके दिल को लग गई तो बहुत अच्छा, आगे मार्ग बनता जाएगा, क्योंकि सीधे तौर पर कोई सुनने को तैयार नहीं, जब तक इतना भरोसा न हो कि इसका भाव कैसा है? तब तक कुछ कह नहीं सकते।
समाज को दस नियम दिए गए, चोरी न करे, परस्त्री गमन न करें, डाका न डाले, झूठ न बोले, लेकिन जो धर्म के ठेकेदार हैं, उन्होंने मार्ग निकाल लिया, जैसे वकील निकालता है loopholes for the law उसी तरह से उन्होंने भी लूपहोल्स निकाल दिए। उन्होंने कहा- कोई बात नहीं, चोरी हो जाए तो चर्च में आ करके दस डॅालर जमा करा दो और confession box में खड़े होकर माफी मांग लो। भगवान क्षमाशील है, दया के सागर हैं, आपके पाप को क्षमा कर देंगे। तो एक दिन एक आदमी जा रहा है चर्च में, तो उसने बीस डॅालर डाले। उसके मित्र ने कहा- बीस क्यों डाल रहा है? बोला- इस हफ्ते के दस, अगले हफ्ते आ नहीं सकूंगा तो उसका advance बीस पहले कर दिया।
इस तरह से धर्म की तोड़-मोड़ के व्याख्याएं की गयी। आदमी को और खुली छूट दे दी गई कानून तोड़ने की। उपहास बनाके रख दिया है धर्म को लोगों ने। एक करोड़ की बेईमानी करो, एक लाख रुपया दान कर दो। दान के पुण्य से 99 लाख की बेईमानी क्या छिप जाएगी? क्या उस पाप से मुक्ति हो जाएगी? मेरे विचार से तो उसका कोई लाभ नहीं होने वाला। सौ की बेईमानी करी दस रुपये दान कर दिए, हो जाएगा क्या हिसाब बराबर? वो 90 रुपये की बेईमानी हजम हो जाएगी क्या? नही होगी। पर आपको समझाने वाले ऐसे लोग मिल जाते हैं। धर्म के ही प्रतिनिधि होंगे और वो आपको समझा देंगे, कोई बात नहीं, अखण्ड पाठ करा लीजिए सब ठीक हो जाएगा। कोई आसान तरीका नहीं है निकल भागने का। आपको अपने जीवन का नियंत्रण स्वयं देखना है। कब तक गुरु तुम्हारे सिर पे बैठेगा? कब तक तुम्हारे ऊपर कोई निरीक्षण करने वाला हर वक्त रहेगा? तुम्हें स्वयं की जिम्मेदारी उठानी होगी, तुम्हें जिम्मेदार बनना होगा, मानना होगा इसको कि अगर गलती हुई तो गलती मेरे कारण हुई। अगर मेरे से ठीक काम हुआ है तो गुरु की दी हुए चेतना से, परमात्मा के दिए हुए विवेक के कारण सही कर पाया। लेकिन अगर फिर भी गलती हो जाए तो उसको स्वीकार तो करो।
हम लोग अपने जीवन को होश से नहीं जीते, हम लोग अपने जीवन को बेहोशी से जी रहें हैं। इस बेहोशी को तोड़े बिना बात नहीं बनेगी। जागरूक हो करके, चिंतन करते हुए और फिर जीवन में कुछ भी कर्म आप करते हैं तो सच कहूं कर्म शुभ या अशुभ नहीं होता। सामान्य आदमी के लिए शुभ-अशुभ कर्म की परिभाषा कही लेकिन ब्रह्मज्ञानी के लिए, ब्रह्मवेत्ता के लिए कोई शुभ-अशुभ कर्म नहीं है। शुभ-अशुभ अगर कर्म नहीं है तो शुभ-अशुभ है क्या? शुभ और अशुभ सोचने वाला मन होता है और मन के पीछे चेतना। चाकू डॅाक्टर भी चला रहा है, चाकू एक कातिल भी चला रहा है लेकिन कातिल के मन की भावना शुभ नहीं है लेकिन डॅाक्टर के मन की भावना शुभ है। चला तो दोनों चाकू रहे हैं लेकिन दोनों के चाकू चलाने पर भी दोनों का फल अलग-अलग है।
हम अपने जीवन में जो भी कुछ करें वो जाग्रत होकर करें, वो होश पूर्वक करें तो बात बनती है। जीवन में अगर आप कुछ प्राप्त करना चाह रहे हो, अगर जीवन में श्रेष्ठ मूल्यों को तुम लाना चाहते हो, अगर जीवन को श्रेष्ठ बनाना चाहते हो, तो वो श्रेष्ठ होगा श्रेष्ठ विचारों से। जिन्दगी तुम भी जी रहे हो, जिन्दगी हम भी जी रहे हैं, मनुष्य तुम भी हो, मनुष्य हम भी हैं। मनुष्य तुम भी हो, मनुष्य संत नामदेव, संत मीरा, संत दादूदयाल, कबीर ये भी मनुष्य थे लेकिन उनके जीवन को और आप अपने को अगर मिलाएं तो कुछ फर्क नजर आता है।
जरा सा जीवन में दुख आया, जरा-सी जीवन में विपत्ति आई तो तुमने हाय-तौबा मचा दी और एक संत के जीवन को देखो, विपत्ति आती है, दुख-मुसीबत आती है, तो भी वो धीरज पूर्वक, संतोष पूर्वक निकल जाते हैं। तुम जाते हो मंदिर-गुरुद्वारा-मस्जिद में तुम जाते हो किसी संत के द्वार पर तो संत से भी आशीर्वाद चाहते हो-महराज! आशीर्वाद दो, सब सुखी रहे। आंखों ने अच्छा देखा, तुम्हें सुख हुआ। पिक्चर देखने गए, ड्रामा देखने गए, डांस देखने गए, पॅाप शो देखने गए, आंखों ने नजारा देखा उस नजारे को देख के खुशी हुई। तो ये खुशी स्वयं से नहीं हो रही है, ये खुशी आपको भीतर से नहीं मिल रही है, ये खुशी आपको बाहर के दृश्य से मिल रही है। जैसे-हाल में बढि़या पिक्चर चल रही है, तुम्हारे मनपसंद हीरो की चल रही है, आप पिक्चर देख रहे हो, हॅाल में अंधेरा है, स्क्रीन पर मूवी चल रही है, बड़ा मजा ले रहे हो, इतने में लाइट चली गई तो जो मजा आ रहा था, वो मजा उड़ जाता है।
खुशी नहीं थी वहां पर सुख था। नेत्रों ने देखा नजारा सुख मन ने माना। गाने वाले को सुनने गए। तुम गए सुनने को उसने गाना चालू किया और उसको सुनते-सुनते तुमको बड़ा मजा आया। वाह! वाह! तुम कर रहे हो और इतने में गाना बंद हो गया और तुम इंतजार कर रहे, कोई दूसरा गाए और वो गा ही नहीं रहा। कोई पूछा- क्या हुआ? जवाब मिला- सिंगर स्पोन्सर से डेढ़ लाख रूपये मांग रहा है और स्पोन्सर के पास पैसे कम इकट्ठे हुए, 70, 000 है। सिंगर ने कहा- मैं नहीं गाता। तो जो गाने का मजा आ रहा था वो गाने वाले के साथ गया। कहना नहीं चाहिए पर बात से बात उठी है तो कहना पड़ रहा है। बहुत सारे रागियों के झगड़े सुनने को मिलते हैं। गए कीर्तन वाले के पास पैसे कम हैं, कीर्तन वाला बोला- हम तो तीस हजार लेते हैं। बुलाने वालों ने कहा- जी, हम तो इतने नहीं दे सकते, हम तो 2100 रुपये दे सकते हैं। वो कहता, फिर बाजार से तीस रुपये की टेप खरीद के लगा लो और सुन लो, हम नहीं गाएंगे। मैं खाली commercial singers की बात नहीं कर रहा हूं, ये धार्मिक कथा वाचको की भी बात कर रहा हूं। भागवद् कर रहे हैं पांचवा दिन हुआ, आयोजकों ने कहा कि महाराज! पैसे कम इकट्ठे हुए हैं तो हम इतने ही दे पाएंगे। और महाराज जी बराबर पूछ रहे थे, मेरी दक्षिणा ? मेरी दक्षिणा ?
महराज जी बोले- नहीं, तय इतना हुआ था। महाराज पांचवे दिन में भागवद् छोड़कर भाग गए। कह गए-भाड़ में जाए भागवद् मुझको नहीं पूरी करनी। भागवद् सुनने का ही तो मजा ले रहे थे, कण-रस ही तो था ना और जिस कथा को सुनकर तुम्हारे जीवन में क्रांति न आये, वो आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है वो सिर्फ कर्ण-रस ही है। जिस ज्ञान को सुनके आपके मन में बदलने की भावना न जागे वो ज्ञान किस काम का, वो स्वयं समय को व्यर्थ करने की बात है। हां, बोलने वाले का समय व्यर्थ नहीं होता, क्योंकि बोलने वाले को तो बाद में दक्षिणा मिल जाती है। उसका टाइम तो खूब सार्थक हो रहा है। गाना सुना बड़ा मजा आया कानों को। गाना बंद हो गया खुशी खत्म हो गई, सुख खत्म हो गया। ये सच्ची खुशी नहीं हुई और आपको मजा आता है, बढि़या खाने में, रस मलाई खाई बढि़या वाली वाह! क्या मजा आया, फलाने के यहां हलवा बहुत अच्छा होता है, वहां चलकर खाते हैं। तुमने रसमलाई खाई, रसमलाई में बड़ी स्वाद आई, रस-रस मुंह में आया और जब आखिरी चम्मच मुंह में आया तो कीड़ा गिरा हुआ था उसमें। हाय हाय! ये क्या कर दिया? तेरा सत्यानाश हो, क्या कीड़े डालके मारेगा हमको? अरे भाई! हमने रस मालई मांगी थी, कीड़ा तो नहीं मांगा।
वेटर ने कहा- मैंने कौन सा जानकर डाल दिया, उसकी मर्जी आई, रस मलाई में आ गया। तुम्हारी जैसे मर्जी आई सैर करने की, तुम सैर करने निकल गए, उसकी मर्जी आई सैर करने को वो कटोरी में चला गया, मैं क्या करूं अब? खाने में मजा आया, मजा आया खुशी नहीं। गुजराती में कहते हैं- केम छो, कैसे हो? मजे मा छे, मजे में हैं और इसी मजे को लूटने के लिए तुम कभी खाते हो, कभी सुनते हो, कभी देखते हो। आज कल एक और मजा सब प्राप्त करना चाहते हैं, वो है शरीर को सुंदर दिखाने का। बहुत पहले कभी actor, actress या beauty awareful आदमी ही खयाल करते थे अपने कपड़ो का, मेकअप का लेकिन अब तो गली-गली में beauty parlour की दुकाने हैं, जगह-जगह जिम खुलते हैं, शरीर को वर्जिश, कसरत करके मसलदार बना रहें हैं। बिलकुल ऐक्यूरेट फिगर होना चाहिए, पतला होना चाहिए, जीरो फिगर बॅाडी होनी चाहिए। हां यह जरूर है मोटा नहीं होना चाहिए, मोटापा रोगों का घर होता है। लेकिन आज-कल जगह-जगह ब्यूटी कंटेस्ट होता है, और ब्यूटी कंटेस्ट वाली लड़कियां जो होती हैं, इनको देखकर लगता है कि हे भगवान! इनको कोई दो रोटी तो खिला दो, बेचारी भूखी मरी पड़ी हैं, हड्डियां निकली पड़ी हैं इनकी।
उनको अपना रोल मॉडल मानकर तुम्हारी बेटियां और तुम्हारी बहुएं और कइयों की तो पत्नियां भी slim amd smart होने के चक्कर में हजारों रूपये खर्च करती हैं। ब्यूटी क्लीनिक्स के नाम पर हर गली में खूबसूरत दिखने की होड़ लगी है, आपने मेहनत करी आपका शरीर सुंदर हो गया, खूबसुरत हो गया। आप कहते हो- बड़ा मजा आया। फिर कहूं- ये मजा आया है, ये असली खुशी अभी भी नहीं हुई।
ऐंद्रिक सुख आपने लिया तो इन पंच ज्ञान इंद्रियों से संसार के पंच विषयों को तुमने भोगा। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन पंच विषयों को आपने अपनी पंच इंद्रियों से नेत्र, कण, नासिका, रसना और त्वचा इन पांच ज्ञान इंद्रियों के द्वारा आपने पांचो विषयों का स्पर्श लिया, रस लिया, दृश्य देखे, सुगंधियां सूंघी, खाना खाया, कान से शब्द को सुना, मजा लिया। पर जब ये नहीं रहते पास में तो तुम्हारी खुशी भी चली जाती है, तुम्हारा सुख भी खत्म हो जाता है।
तो इसका अर्थ ये कि ऐंद्रिक सुख को पाने वाला आदमी कितना ही सुख पाता हो, ये सुख उसको जागृत, विवेकशील नहीं बनाएगा। क्यों नहीं बनाएगा, क्योंकि ऐंद्रिक सुख को भोगते-भोगते मन मूढ़ हो जाता है। इसलिए आप जाग्रत व चिंतनशील जीवन की खोज करें, ऐसा जीवन ही आपको सच्चा सुख और आनन्द प्रदान कर सकता है।
सद्गुरुदेव कैलाश चन्द्र श्रीमाली
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