इसका सारा राज-काज चलाते थे। पाटलीपुत्र के बाहर जिसे आज-कल पटना कहा जाता है, गंगा के किनारे एक झोंपड़ी में रहते थे आचार्य चाणक्य, मिट्टी के बर्तनों में खाना खाते और प्रतिदिन प्रातः प्रार्थना करते थे, कि हे भगवन्! यदि मुझसे कोई अपराध हो जाये, तो मेरी झोंपड़ी छीन लेना, मेरे मिट्टी के बर्तन, मेरा स्वास्थ्य ले लेना, लेकिन मेरी बुद्धि मत लेना। धन नहीं मांगते थे वे, सेना भी नहीं मांगते थे, भगवान से बुद्धि मांगते थे, क्योंकि सद्बुद्धि से ही मनुष्य-मनुष्य बना रहता है।
वेद और उपनिषदों में बार-बार बुद्धि का वर्णन मिलता है, उपनिषद कहते हैं, ईश्वर प्रत्येक स्थान पर विद्यमान है, परन्तु दिखाई नहीं होता। केवल उसी को दिखाई देता है, जिसकी बुद्धि चैतन्य हो, यह जो बुद्धि है मानव के पास, ठीक रहे तो पार लगाती है, न रहे तो डुबा देती है।
बुद्धि बनती भी है और बिगड़ती भी, हमारे ऋषियों ने इस सम्बन्ध में शोध किया, उन्होंने कहा- बुद्धि तीन प्रकार की होती है- एक बुद्धि, दूसरी कुबुद्धि और तीसरी सद्बुद्धि, यह सद्बुद्धि ही सबसे उत्तम है, तपस्वी गृहस्थ साधक इसे मांजकर मेधा बना लेते हैं, एक ऐसी बुद्धि जिसने सत्य और विश्वास को अपना लिया है, इस मार्ग को धारण करके और आगे बढ़ो तो मिलती है, सुमेधा। और यदि सुमेधा को भी मांजो तो बनती है प्रज्ञा, ऐसी बुद्धि जिससे तमोगुण दूर हो गया है, केवल रजोगुण और सतोगुण शेष बचा है।
विरले साधक होते हैं, जो इसे भी मांजकर प्रतिभा को पा जाते हैं, माथे के अन्दर एक चमकता हुआ तारा वहां लगाकर यदि ध्यान को इधर-उधर न भटकने दिया जाय तो प्रतिभा जागती है और जिसकी प्रतिभा जाग जाती है, उसे स्वयंमेव सभी बाते ज्ञात होने लगती है, सारा ज्ञान समाहित होने लगता है, सारा दृश्य, भूत, वर्तमान, भविष्य सब दिखने लगता है, किसी यंत्र, टीवी, इन्टरनेट की आवश्यकता नही पड़ती, किसी पुस्तक की जरूरत नहीं होती, ये सब देखने के लिये।
लेकिन इसके बाद भी बुद्धि की अन्तिम मंजिल अभी नहीं मिली। इस प्रतिभा को मांजो, आगे बढ़ो, तब उत्पन्न होती है, ऋतम्भरा बुद्धि- ऐसी बुद्धि जिसमें तमोगुण नहीं, रजोगुण नहीं, केवल सतोगुण शेष है। सर्वत्र सत्य को वह कहती है, जो कभी बदलता नहीं। पाश्चात्य विद्वानों के पास केवल एक शब्द है wisdom अर्थात् अक्ल, बुद्धिमानी, इसके आगे वे कुछ जानते नहीं। वैज्ञानिको ने प्रकृति की सूक्ष्मताओं में जाने का प्रयत्न किया, तो अणु और परमाणु तक पहुंच गये, परन्तु हमारे पूर्वजों ने बाल की खाल निकालकर रख दी। प्रकृति की ओर भी वे गये, परन्तु उन्हें लगा इसके आगे भी कुछ है। इसलिये उन्होंने सोचना आरम्भ किया कि मनुष्य कैसे बनता है? मनुष्य का तात्पर्य मनु का ईश और निर्णय किया कि मनुष्य तब बनता है, जब उसमें ऋतम्भरा बुद्धि जाग उठती है।
बुद्धि सुधरे तो ऋतम्भरा बन जाती है, बिगड़े तो प्रलय मचा देती है। परन्तु बिगड़ती कैसे है? आज-कल लोग यह मानने लगें हैं, कि जितनी बुद्धि अमेरिका और रूस वालो के पास है, उतनी तो किसी के पास है ही नहीं। यह बात ठीक है, प्रत्यक्ष रूप में ऐसा ही प्रतीत होता है। जितने आविष्कार हुये वे अमेरिका में, यूरोप में और रूस में हुये। परन्तु इन आविष्कारों से क्या मिला है, शान्ति मिली है? क्यो नहीं मिली शान्ति? श्री कृष्ण कहते हैं-
जिसकी बुद्धि परमात्मा से जुड़ी नहीं, जिसके हृदय में प्रभु का प्रेम जागृत ना हो, जिसने योग को धारण ना किया हो, उसे शान्ति कहां? और जिसे शान्ति नहीं उसे सुख कैसे मिलेगा?
यही है आज के दुःख का कारण, विज्ञान जैसे-जैसे उन्नति करता है, दुःख भी उसी गति से बढ़ता जाता है। इसलिये बढ़ता जाता है कि जिस बुद्धि से यह उन्नति होती है, वही बिगड़ी पड़ी है। कारण स्पष्ट है परमाणु बम का आविष्कार हुआ, भय का वातावरण चारो ओर फैल गया, वैज्ञानिकों ने हाइड्रोजन बना लिया, परिणामतः सभी देशों में होड़ मची है, स्वयं को शक्तिशाली बनाने की चारो ओर भय का माहौल है, कौन-कब किस देश पर हमला कर दें, कोई नहीं जानता, सभी भय में जी रहें हैं, और अपने सुरक्षा का सारा जतन करने में लगे हैं। विज्ञान कहां शांति दे सकती है और ऐसा विकास किस काम का जो अंशाति को बढ़ायें, जो भय में वृद्धि करे।
बुद्धि बिगड़ने का बड़ा कारण है, इन्द्रियां, जिसकी इन्द्रियां वश में नहीं, जो इन्द्रियों का दास है, उसकी बुद्धि बिगड़ जाती है। भगवान कृष्ण का कहना है- जिसकी इन्द्रियां वश में नहीं, उसकी दशा उस नौका के समान है, जो तूफानी नदी में बही जाती है, नदी की लहरें उसे कभी इस ओर ले जाती हैं, तो कभी उस ओर और अन्त में डुबो देती हैं। मनुष्य की इन्द्रिया ऐसी ही हैं, यदि ये नियंत्रण में नहीं हुयीं, तो अन्त में बेड़ा गर्क ही करेंगी।
मैं एक बार ऋषिकेश गया। वहां एक महात्मा जी नदी किनारे रहते थे, जिनका नाम था जलेबी साधु, बड़ा विचित्र नाम था, तो मैं चला गया उनके पास, पूछा महाराज आपने यह नाम कैसे रख लिया? वे बोले, मैं कई वर्षों से इस नदी किनारे रहता हूं, भिक्षा मांगता, खाता और ध्यान, तप में मग्न रहता था, तभी एक दिन पता नहीं कब के संस्कार जाग उठे, मन को बार-बार जलेबियां खाने की इच्छा होने लगी। मैं मन को बहुत समझाता कि ऐसी इच्छा मत कर, रूक जा, पर वो मानता ही नहीं, मैं ध्यान लगाता तो सामने जलेबी भरा थाल दिखाई देता। कई दिन तक मेरी मन से लड़ाई होती रही, अन्त में मैं हार गया।
फिर एक दिन प्रातः उठा, मन को कहा चल आज तुझे जलेबियां खिलाता हूं और पहुंच गया बाजार में। वहां एक हलवाई ताजा-ताजा जलेबियां बना रहा था। वह बनाता और बड़े थाल में डालता जाता। जलेबियां देख कर मेरा मन पागल हो गया। मैं सीधा थाल के पास पहुंचा, हाथ से नहीं उठाया, सीधा थाल में मुंह डालकर जलेबियां खाने लगा, हलवाई चिल्ला उठा अरे! यह क्या करता है? सारा थाल जूठा कर दिया तूने, लेकिन मैंने थाल से मुंह नहीं हटाया, उसने एक थप्पड़ जड़ दिया, फिर भी मैं नहीं हटा, तो उसने डण्डा लेकर 15-20 डण्डा लगा दिया, खूब जमकर पीटा उसने, फिर मैंने मन से पूछा अभी और जलेबी खायेगा? मन ने कहा- नहीं, बहुत मार पड़ी है, तभी से मेरा नाम जलेबी साधु हो गया। ऐसी दशा होती है, इन्द्रियों का दास बनने पर, इन्द्रियों के संस्कार मनुष्य को तंग करते हैं, उसे उल्टे मार्ग पर ले जाते हैं, बुद्धि को कुमार्ग पर ले जाते हैं।
माता-पिता भले ही अच्छे हों, पुत्र को यदि उनके संस्कार न मिले, बुरी संगत में पड़कर बुरे संस्कार मिल गये, तो वह सुधरेगा कैसे? बम्बई में एक परिवार ने मुझे बताया कि हमारा पुत्र जब तक कॉलेज नहीं गया, बहुत अच्छा था। अब कालेज जाने लगा है, तो बिगड़ गया है। बिगड़ेगा नहीं तो और क्या होगा? उसे बुरी संगत मिल गयी है। यह संगत तारती भी है और डुबाती भी है। बहुत बुरी वस्तु भी है यह। अच्छी संगत से मनुष्य ऊपर उठता है, बुरी संगत से नीचे गिरता है।
आज-कल किसी से कहो साधना शिविर चलते हैं, गुरु जी का आशीर्वाद लेकर आते हैं। वह आपको बीस तरह के बहाने बतायेगा बिल्कुल नये-नये और यदि आप यह कह दें, चलो सिनेमा चलते हैं, क्लब चलते हैं, तो वह झट से तैयार और यदि कहीं आपने यह कह दिया कि टिकट के पैसे भी मैं दूंगा तो पूरा परिवार आपके साथ चल देगा। आजकल दीपावली की रात के दिन घर-घर जुआ चलता है, जुआ खेलने वालों ने प्रचार कर रखा है, कि जो जुआ नहीं खेलता वह अगले जन्म में गधा बनता है। जुआ नहीं खेलने से गधा बनेगा या नहीं ये तो बाद की बात है, लेकिन जो जुआ खेलेगा वह भिखारी जरूर बनेगा।
यदि आप अपनी संतान को ऐसा वातावरण देंगे तो, वह क्या बनेगा? जुआरी ही बनेगा, सिनेमा जायेंगे तो वहां क्या सीख कर आयेगा। आपके बच्चे कहेंगे, मेरे पास समय नहीं है, परीक्षा की तैयारी करनी है, पढ़ाई करनी है। आप अपने बच्चों को प्रेरणा दें, उनके बहाने ना सुनें। मैं परिचित हूं, आज-कल के बच्चों से, प्रत्येक घर को देखता हूं, आप शिविर चले जायेंगे और आपके जाते ही ये टी-वी देखना शुरु कर देंगे, और आज-कल तो सोशल साइट का चलन है, इन्टरनेट का जमाना है, चैटिंग और पता-नहीं क्या-क्या करते रहते हैं, ये बच्चे। जैसी संगत होगी वैसा ही फल मिलेगा।
पानी है ना अमरुद के वृक्ष में जाये तो अमरूद बन जाता है, लाल मिर्च के पौधे में जाये, तो लाल मिर्च बन जाता है, आम के वृक्ष में जाये तो तो मीठा-रसीला आम बन जाता है, गन्ने में मिठास बन जाता है, नीम में कड़वाहट बन जाता है। पानी तो वही है, लेकिन उसे जैसी संगत मिलती है, वही वह बनता है। इसलिये जब भी गुरु से मिले, अपने बच्चों के साथ मिले, अपने बच्चों को ऐसा वातावरण दें, जिससे उन्हें अच्छे संस्कार धारण करने की प्रेरणा मिल सके और जितनी बार आप गुरु से मिलेंगे, उतना ही आपका चित्त निर्मल होगा, मन के विकार समाप्त होंगे, आपकी न्यूनताओं का, आपके अवगुणों का गुरु विषपान करता है और बदले में आपको श्रेष्ठ विचार, चिंतन, प्रेरणा, गुण, धर्म के अनुसार जीवन का अनुसरण करने की चेतना प्रदान करता है।
कई लोग तो इसलिये भी शिविर नहीं जाते, कि अब इसकी आवश्यकता क्या है? निर्धन थे, पास पैसा नहीं था, तब जाते थे, अब कोठी हो गयी, धन हो गया, नौकर-चाकर भी हो गये। अब उन्हें लगता है, शिविर से क्या मिलेगा? लेकिन इसके बाद भी गुरु की आवश्यकता उतनी ही है, जितनी पहले थी। क्योंकि आप पहले निर्धन थे, अब नहीं हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आपके जीवन में पुनः अभाव नहीं आयेगा। हां यह अवश्य है, कि यदि आप गुरु से सम्पर्कित रहें, तो जीवन की बाधाओं से लड़ने की चेतना से युक्त रहेंगे, अन्यथा पराजित हो सकते हैं, फिर पराजित होकर आप गुरु के पास जायें, तो यह आपकी मूर्खता है, गुरु तो आपको स्वीकार करेगा ही, आप पांच साल बाद, दस साल बाद या दस जन्म बाद जब भी आयेंगे, गुरु तो आपको स्वीकार करेगा ही, पर बुद्धिमता इसी में है कि आप गुरुत्व से सम्पर्कित रहें।
एक गुरु जी थे, उनके पास एक शिष्य रहता था, गुरुजी उसे प्रतिदिन अच्छी-अच्छी बातें सुनाते, उपदेश देते, परन्तु उसके पल्ले कुछ पड़ा नहीं। एक दिन बोला- गुरुजी इतने दिन हो गये, आपके सानिध्य में परन्तु कुछ मिला नहीं। गुरु ने शिष्य की ओर ध्यान से देखा और बोले- अच्छा! कल इसका उत्तर दूंगा। दूसरे दिन शिष्य गया, गुरु ने कहा- अन्दर वाले कमरें में जा, वहां बांस की टोकरी पड़ी है, उसे उठाकर ले आ।
शिष्य चला गया, टोकरी उठा लाया। गुरु ने कहा- अब नदी पर जा, इसमें पानी भरकर ले आ। शिष्य चला गया नदी पर, बांस की टोकरी में पानी भरा परन्तु वह रूका ही नहीं, सारा बह गया। उसने आकर गुरुजी को कहा- इसमें तो पानी रूकता नहीं।
गुरु जी बोले- अच्छा कल फिर जाना, वह फिर गया, फिर प्रयत्न किया, पर पानी रूके ही नहीं, इस प्रकार सात-आठ दिन बीत गया। अन्ततः उसने तंग आकर कहा- गुरुजी! कोई दूसरा काम बताईये, जिससे आपको भी लाभ हो और मुझे भी, यह तो व्यर्थ का काम है। भला बांस की टोकरी में पानी भरा कैसे जा सकता है?
गुरु जी हंसते हुये बोले- टोकरी कुछ साफ तो हुयी? शिष्य ने कहा- हां जी साफ तो हुयी है, पहले मैली थी, अब चमकने लगी है। फिर गुरु जी ने पूछा कुछ नर्म भी हुयी होगी? शिष्य ने कहा जी! नर्म भी हुई है, प्रतिदिन पानी जो पड़ता है! धोता हूं इसे, नर्म तो होगी ही। गुरु जी ने पूछा- इसके छिद्र कुछ कम हुये हैं क्या? शिष्य ने कहा- हां कुछ-कुछ कम हुये हैं, गुरु जी बोले- यही प्रभाव है, गुरु की संगत का, मन की मैल धुल जाती है, आत्मा में शुद्धता आ जाती है। बुरे विचारो और संकल्पो के सुराख कम होने लगते हैं और एक समय ऐसा भी आता है, जब ये छिद्र पूर्ण रूपेण बन्द हो जाते हैं।
ऐसा होता है, आप महसूस करेंगे, तो पता चल जायेगा, बड़े-बड़े छिद्र कम हुये होंगे, ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई सच्चे हृदय से गुरु का सानिध्य, गुरु की संगत प्राप्त करे और उसके जीवन के छिद्र कम ना हों। बुद्धि ठीक रखने का उत्तम उपाय है, मन को प्रसन्न रखना, प्रत्येक अवस्था में मन को प्रसन्न रखना। परन्तु कुछ लोगो को ऐसी बाते समझ में नहीं आती हैं, उनका सिद्धान्त है- यहां के आबो-हवा में हमारा दखल है बस इतना रात को रो-रो के सुबह किया और सुबह को रो-रो के शाम किया। ऐसे लोग रात को रोते हैं, दिन को रोते हैं, प्रातः रोते हैं, सांय रोते हैं। अच्छी बात है! रोओ, परन्तु स्मरण रखो, इससे बुद्धि भ्रष्ट हो जायेगी और बुद्धि भ्रष्ट होने से विनाश आता है।
कई ऐसे भी होते हैं, मुसीबत खुद मोल लेते हैं और फिर बहाना बनाकर रोते रहते हैं, एक सज्जन मुझे मिले, बहुत दुःखी थे मैंने पूछा क्या हुआ? बोले- क्या करें? मकान बहुत छोटा है और परिवार बढ़ गया है। अरे भाई! जब मकान छोटा था, तो तूने परिवार बढ़ाया ही क्यों? उस समय सोचना था, अब रोता क्यों है? पहले मकान बड़ा बनवा लेता, फिर परिवार बढ़ाता। पहले सोचा नहीं, अब रोने से क्या होगा? बुद्धि ही खराब होगी और बुद्धि खराब हुयी तो अनाप- शनाप काम कर बैठोगे? फिर परिणाम में विनाश ही आयेगा। अब तुम कहोगे, गुरु जी बुद्धि के पीछे इतना भागने से अच्छा है, भाग्य को ही दुरुस्त कर लिया जाये। बिल्कुल भाग्य को प्रबल कर लो, सशक्त बना लो, लेकिन यह तो बताओ, यदि सही बुद्धि नहीं रहेगी, तो भाग्य का करोगे क्या?
भाग्य क्या है? भाग्य पिछले जन्मों में किये कर्मों का फल है, इसका तात्पर्य यह हुआ कि आज जो कर्म करोगे, ये अगले जन्म में भाग्य बन जायेगे और कर्म करने के लिये तो बुद्धि चाहिये, बिना बुद्धि के कर्म भाग्य नहीं दुर्भाग्य बन सकता है। इसलिये सद्बुद्धि भाग्य से अधिक आवश्यक है।
बुद्धि के बिना भाग्य व्यर्थ है, बुद्धि से भाग्य बनता है, बुद्धि ना हो तो सौभाग्य भी दुर्भाग्य बन जाता है। सबसे अधिक अमीरों के बच्चे बिगड़ते हैं, भाग्य उनके पास होता है, पर बुद्धि बिगड़ जाती है। इसलिये अपने हाथ से अपने लिये वे विनाश जगा लेते हैं।
इसलिये जीवन में सौभाग्य से अधिक सद्बुद्धि की मांग होनी चाहिये, ईश्वर से, सद्गुरु से सद्बुद्धि की मांग सबसे उत्तम मांग है, इससे जीवन में सद्गति मिलती है, जीवन सही भावना, विचार का संचार होता है और व्यक्ति इन सभी के माध्यम से जीवन को सर्वोच्चता प्रदान कर सकता है, आप अपने जीवन में श्रेष्ठ विचार, चिंतन और सद्बुद्धि से परिपूर्ण हो और समाज में सद्भावना का संचार कर सकें, ऐसा ही मंगलमय आशीर्वाद् प्रदान करता हूं—–!!
सद्गुरुदेव
कैलाशचन्द्र श्रीमाली
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