कुण्डलिनी का तात्पर्य है जीवन को उर्ध्वगति देना, जीवन को ऊँचाई पर उठाना, जीवन को पूर्णता व श्रेष्ठता देना। कुण्डलिनी यात्रा पूर्णरूप से एक महान व्यक्तित्व बनने की यात्रा है, एक छोटे से व्यक्तित्व से महा मानव बनने की प्रक्रिया है, मनुष्य से देवत्व की ओर पहुँचने की क्रिया है। परन्तु यह यात्रा धन से, मान से, पद से या प्रतिष्ठा से संभव नहीं हो सकती, इसके लिये बहुत ज्यादा जरूरी है अपने आंतरिक चक्रों को पूर्णरूप से जाग्रत करना।
योग्य गुरु के सान्निध्य में कोई भी दृढ़ चित्त साधक धीरे-धीरे अभ्यास करता हुआ, सुषुम्ना को जाग्रत कर कुण्डलिनी जागरण में समर्थ हो सकता है और फिर चक्र भेदन के बाद विशिष्ट योगी या साधक बन सकता है। कुण्डलिनी चक्र हमारे शरीर में सात चक्र विद्यमान है।
1 मूलाधार चक्र
2 स्वाधिष्ठान चक्र
3 मणिपुर चक्र
4 अनाहत चक्र
5 विशुद्ध चक्र
6 आज्ञा चक्र
7 सहस्त्रार चक्र
कुण्डलिनी जागरण के माध्यम से इन सात चक्रों को क्रमबद्ध संतुलित कर जाग्रत किया जाता है।
1- मूलाधार चक्र – मूलाधार पृथ्वी प्रधान चक्र है, जो जननेन्द्रिय क्षेत्र में स्थित होता है। यह चार पंखुडियों वाले कमल के समान जामुनी रंग का होता है। इन चार दलों के चार बीज मंत्र है, ‘वं’, ‘शं’ ‘षं’ ‘सं’, मूलाधार का मुख्य बीज मंत्र है ‘लं’।
मुख्य बीज मंत्र का तात्पर्य है कि इस बीज मंत्र के जप के द्वारा उस चक्र विशेष के समस्त दल एक-एक करके स्वतः जाग्रत होते हैं। मूलाधार के जागरण से प्राण-शक्ति की वृद्धि होती है। आत्मिक एवं मानसिक सौन्दर्य की प्राप्ति होती है। व्यक्ति तनाव मुक्त हो जाता है। शारीरिक बल में वृद्धि होती है तथा चुंबकीय व्यक्तित्व की प्राप्ति होती है। मूलाधार चक्र जाग्रत होने से मनुष्य अपने-आप में एक नई चेतना प्राप्त कर लेता है, एक नया ज्ञान प्राप्त कर लेता है, एक नई ऊर्जा प्राप्त कर लेता है और उस ऊर्जा के माध्यम से वह निरन्तर अग्रसर होने की क्रिया प्राप्त कर लेता है, जब व्यक्ति उन्नति की ओर अग्रसर होने लग जाता है, उन्नति प्राप्त करने लग जाता है, तब उसकी कुण्डलिनी यात्रा का प्रथम चरण पूर्ण होता है।
2- स्वाधिष्ठान चक्र – मूलाधार चक्र के आगे स्वाधिष्ठान चक्र का पड़ाव आता है, यह जल तत्व प्रधान चक्र है। यह मूलाधार से लगभग चार अंगुल ऊपर मूत्रशय या गर्भाशय के मध्य में अवस्थित होता है, यह चक्र सिंदूरी रंग का होता है और छः दल वाले कमल के आकार का होता है। इसका मूल बीज मंत्र है ‘वं’ तथा इसके छः दलों के विभिन्न बीज मंत्र हैं – ‘बं’, ‘भं’, ‘मं’,‘यं’, ‘रं’, ‘लं’। इस चक्र को जाग्रत कर व्यक्ति एक अद्वितीय ओज, एक चुम्बकीय व्यक्तित्व को प्राप्त कर लेता है।
नपुंसकता समाप्त हो जाती है, पूर्ण पुरूषत्व की प्राप्ति होती है, वह अपनी इच्छानुसार संतान को जन्म दे सकता है। इस चक्र के द्वारा व्यक्ति को पूर्णरूप से भौतिक जीवन में सफलता प्राप्त होती है और वह एक आनंदप्रद गृहस्थ जीवन का उपभोग करने में सक्षम हो जाता है।
3- मणिपुर चक्र – यह चक्र मानव शरीर में नाभि स्थल पर स्थित होता है, जो अग्नि तत्व प्रधान चक्र है। कुछ साधक इसे ‘नाभि-चक्र’ भी कहते है। गर्भस्थ बालक को प्राण-ऊष्मा यहीं से प्राप्त होती है। यहां पर ध्यान केन्द्रित करने से एक दिव्याभा दिखाई देती है, जिससे शरीर का अन्तरंग ज्योत्स्नित हो जाता है।
मणिपुर चक्र शरीर का केन्द्र बिन्दु है। यह नीले रंग का दस दलों वाला कमल चक्र है, इस चक्र का मूल बीज मंत्र ‘रं’ है व बीज मंत्र है ‘डं’, ‘ढं’, ‘णं’, ‘तं’, ‘थं’, ‘दं’, ‘धं’, ‘नं’, ‘पं’, ‘फं’। इस चक्र के जागरण पर साधक के पेट से संबंधित रोगों का नाश हो जाता है, पूर्ण शारीरिक स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। घंटों एक ही आसन पर बैठने की क्षमता प्राप्त होती है, श्वास पर नियंत्रण प्राप्त होता है, बिना भोजन, वायु के कई दिनों तक रह सकता है, पूर्ण शारीरिक नियंत्रण प्राप्त हो जाता है।
4- अनाहत चक्र- यह चक्र नाभि से ऊपर हृदय प्रदेश पर स्थित है। यह वायु तत्व प्रधान चक्र है जो लाल रंग के बारह दलों से निर्मित कमल के समान होता है। इस चक्र का मूल बीज मंत्र ‘यं’ है। इस चक्र के जाग्रत होने पर भविष्य काल में घटने वाली घटनाओं की जानकारी प्राप्त होती है। जीवात्मा का निवास इसी चक्र में माना गया है, साधक जब इसमें प्रवेश करता है तो साक्षात् ब्रह्म के दर्शन हो जाते हैं, वह त्रिकालदर्शी हो जाता है। इस चक्र के बारह दलों के बीज मंत्र है- ‘कं’, ‘खं’, ‘गं’, ‘घं’, ‘घं’, ‘चं’, ‘छं’, ‘जं’, ‘झं’ ‘ञं’,‘टं’, ‘ठं’ इस चक्र को जाग्रत करने पर टैलीपैथी और हिलीपैथी साधना स्वतः सिद्ध हो जाती है।
5- विशुद्ध चक्र- यह चक्र कंठ प्रदेश में स्थित हैं, विशुद्ध चक्र का तात्पर्य है व्यक्ति के कंठ में सरस्वती का स्थापन और पूर्णरूप से वेद का ज्ञान स्वतः प्राप्त हो जाना। यह आकाश तत्व प्रधान चक्र है। यह चक्र सोलह दलों से युक्त पीले रंग वाले कमल के समान होता है। इसका मूल बीज मंत्र ‘हं’ है व सोलह दलों के बीज मंत्र है- ‘अ’, ‘आ’, ‘इ’, ‘ई’, ‘उ’, ‘ऊ’, ‘ट्ट’, ‘ट्ठ’, ‘लृ’, ‘लृ’ ‘ए’, ‘ऐ’, ‘ओ’, ‘औ’, ‘अं’, ‘अः’,। इस चक्र के जाग्रत होने पर साधक को वाक् सिद्धि की उपलब्धि प्राप्त होती है अर्थात् उसके द्वारा कहे गये शब्द सत्य होते ही हैं, साथ ही उसे श्राप-वरदान देने की क्षमता, धारा-प्रवाह बोलने की क्षमता, सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान, पूर्ण ध्यान प्राप्ति, इच्छा मृत्यु की उपलब्धि व सम्मोहन की उपलब्धि होती है। विशुद्ध चक्र जागरण द्वारा आत्मा, मन व शरीर पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने की क्षमता मिलती है।
6- आज्ञा चक्र – यह कुण्डलिनी चक्र का छठा पड़ाव है, इसे थर्ड आई व तृतीय नेत्र की संज्ञा भी दी गई है। यह ललाट भाग के भ्रूमध्य में स्थित होता है तथा यह सर्वोपरि चक्र माना गया है। आज्ञा चक्र में प्रवेश करने के बाद ही साधक ‘सहस्त्रार चक्र’ में प्रवेश पा सकता है। कुछ साधक इसे ‘अज्न चक्र’ भी कहते हैं। शिव के तीसरे नेत्र की अवस्थिति इसी आज्ञा चक्र के मध्य मानी गई है। साधकों के अनुसार जब आज्ञा चक्र तक साधक की अवस्थिति हो जाती है, तब संसार की समस्त शक्तियां उसके पास स्वतः आ जाती है, क्योंकि वह जो कुछ भी सोचता है, या आज्ञा देता है वह कार्य तुरन्त सम्पन्न हो जाता है।
यह चक्र सफेद रंग के दो दलों वाले कमल के समान होता है। इस चक्र का मूल बीज मंत्र ‘नं’ है तथा दोनों दलों का बीज मंत्र ‘हं’ तथा ‘क्षं’ है। ये दोनों दल ‘सूर्य’ तथा ‘चन्द्र’ के गुणों से युक्त होते हैं। इनके जाग्रत होने पर व्यक्ति की आंखों में अत्यधिक तीव्रता, तेजस्विता आ जाती है। साथ ही व्यक्ति को अत्यधिक करूणा, प्रेम व ममत्व की प्राप्ति होती है। इस चक्र की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि व्यक्ति में गुरुत्व की गरिमा आ जाती है, वह स्वयं तो पूर्ण बनता ही है व दूसरों को भी पूर्ण बना सकता है और वह सिद्धाश्रम में प्रवेश प्राप्त करने के योग्य बन जाता है।
7- सहस्त्रार चक्र – कुण्डलिनी अपनी यात्रा मूलाधार से प्रारंभ कर सहस्त्रार पर पूर्ण करती है। यह भृकुटि से लगभग तीन इंच ऊपर सिर के मध्य में ज्योतिपिण्ड के समान होता है। जो योगी या साधक सहस्त्रार चक्र भेदन कर लेता है, वह लौकिक कार्यों से ऊपर उठ जाता है। यह वही स्थान है जहाँ कुण्डलिनी शक्ति व शिव का मिलन संभव होता है।
सहस्त्रार चक्र में हजारों पंखुडियों वाले कमल का खिलना संपूर्ण, विस्तृत चेतना का प्रतीक है। इस चक्र के आराध्य देव विशुद्ध व सर्वोच्च चेतना के रूप में भगवान शिव है। सहस्त्रार चक्र का कोई विशेष रंग या गुण नहीं है। यह विशुद्ध प्रकाश है, जिसमें सभी रंग हैं। सभी नाडि़यों की ऊर्जा इस केन्द्र में एक हो जाती है, जैसे हजारों नदियों का पानी सागर में गिरता है। यहां अन्तरात्मा शिव की पीठ है। सहस्त्रार चक्र के जाग्रत होने का अर्थ दैवी चमत्कार और सर्वोच्च चेतना का दर्शन है।
अतः स्पष्ट है कि कुण्डलिनी जागरण जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि है। कुण्डलिनी जागरण द्वारा साधक अपनी दसों इन्द्रियों पर नियंत्रण प्राप्त कर लेते हैं और वे सहज ही ध्यानावस्था में जा सकते हैं, इस क्रिया के माध्यम से देह शुद्धि, मन शुद्धि और आत्म शुद्धि होती है, फलस्वरूप साधक अपने शरीर स्थित ब्रह्माण्ड को भेदने की क्रिया प्राप्त कर लेते हैं व सूक्ष्म शरीर से कही पर भी सहजता से विचरण कर सकते हैं। कुण्डलिनी जागरण द्वारा मानव में छिपी सृजनात्मक शक्तियों का उदय होता है, इन्द्रियों पर संयम रखने की शक्ति मिलती है, मनुष्य सदा संतुष्ट रहता है व उसके निराशावादी दृष्टिकोण का परिवर्तन होकर नवीन उत्साह का संचार होता है।
पूर्व सताम् वै परिपूर्ण सिन्धुं ज्ञानेवरूपं मपरं वतैव। दीर्घो वतां पूर्व मदैव रूपं कुण्डलिनीवै सहितं प्रणम्यं।। मेरा जीवन जड़ है, मेरा जीवन चेतनाहीन है, मेरे जीवन में किसी प्रकार का स्फुलिंग नहीं है, एक प्रकार से एक पत्थर के ढोंके की तरह है। हे! कुण्डलिनी, मैं तुम्हें अपने शरीर में समाहित करना चाहता हूं, मैं तुम्हें अपने शरीर में प्रवेश देना चाहता हूं, अपने शरीर के सारे अणुओं में तुम्हें आत्मसात कर देना चाहता हूं, जिससे कि मैं जीवन हो सकूं, जिससे कि मेरा रोम-रोम जाग्रत हो सके, जिससे की मैं आगे की ओर अग्रसर हो सकूं।
हे! कुण्डलिनी, मैंने तुम्हें शक्ति के रूप में देखा है क्योंकि जब तक शरीर में किसी प्रकार की चेतना नहीं है, क्षमता नहीं है, जब तक हम अन्दर के सम्पूर्ण केन्द्रों को जाग्रत करने की चेष्टा नहीं कर पाते, जब तक हमें वह रास्ता ज्ञात नहीं है तब तक यह जीवन तो श्मशानवत् है, तब तक यह जीवन तो एक सूखी नदी है, तब तक यह जीवन तो सूखा हुआ वृक्ष की ठूंठ की तरह है। मैं चाहता हूं कि एक लाश की तरह से जीवन का बोझ ढोऊं नहीं। मैं नहीं चाहता, कि मैं मृत्यु की ओर बढ़ने के लिये अग्रसर होऊं। मैं चहता हूं कि मेरा प्रत्येक रोम-रोम, अणु-अणु जाग्रत हो सके, चेतना युक्त, प्राण युक्त हो सके, और यह तब हो सकता है जब आप एक शक्ति के रूप में मेरे पूरे शरीर में स्थापित हो सकें।
मां कुण्डलिनी! आप में और गुरु में कोई अन्तर नहीं है। गुरु को ही कुण्डलिनी कहा गया है और कुण्डलिनी को ही गुरु कहा गया है, क्योंकि गुरु का तो यही कार्य है कि शिष्य के सर्वत्र चेतना केन्द्रों को जाग्रत करे, शरीर के रोम-रोम को जाग्रत करे, शरीर की नस-नाडि़यों में एक उत्तेजना, एक तेज, एक प्रवाह भर सके और वह कुण्डलिनी के द्वारा ही सम्भव है।
मगर मैं आपको जानता नहीं हूं, मैं आपसे परिचित नहीं हूं, मैंने कभी आप को देखा नहीं। मैंने गुरु को देखा है, गुरु के चरणों में बैठा हूं इसलिये आप को प्राप्त करने से पूर्व मैं गुरु को प्रणाम करता हूं और उनसे प्रार्थना करता हूं कि वह आप को पूर्ण शक्ति के रूप में मेरे शरीर में समाहित करें, जिससे कि मैं मनुष्य जीवन की पूर्णता को प्राप्त कर सकूं, अनुभव कर सकूं।
आप ही एक ऐसी शक्ति हैं जो मुझे पशु जीवन से देव जीवन की ओर अग्रसर कर सकती हैं। आप ही एक ऐसी शक्ति हैं जो मेरे अन्दर के अन्तर्मन को जाग्रत कर सकती हैं। केवल और केवल मात्र आप ही एक ऐसी शक्ति हैं जो मेरे प्राणों में चेतना भर सकती हैं और सही रूप में कहूं तो केवल आप ही मुझे अमृत्यु की ओर अग्रसर कर सकती हैं, अमृतत्व की ओर अग्रसर कर सकती हैं जो मेरे अमृत-कुण्ड को जाग्रत कर सकती है। मेरे सारे शरीर को चेतनामय बना सकती है, मुझे ऊर्ध्वमुखी बना सकती है इसीलिये मैं आपको प्रणाम करता हूं।
मैं अपने गुरु को पूर्ण श्रद्धा युक्त प्रणाम करके, उन्हें अपने प्राणों में स्थापित करता हूं। मैं प्रार्थना करता हूं कि वे मेरे सहस्त्रदल कमल पर स्थापित हों, मैं प्रार्थना करता हूं कि वे मेरे रोम-रोम में, ध्यानस्थ हों। मैं चाहता हूं कि गुरुदेव ही मेरा शरीर बन जायें, मेरे प्राण बन जायें, मेरे सब कुछ क्रियात्मक पक्ष बन जायें, और जब ऐसा होगा, तो आप तो स्वयं गुरु की शक्ति हैं। चक्र संबंधित दीक्षा व सामग्री आश्रम से प्राप्त कर सकते है।
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