अंततः वे ही योगी लोग परमतत्व को प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं, जो वेदांत में निहित विज्ञान का सुनिश्चित अर्थ जानते हैं और संन्यास व योगाभ्यास से अंतः करण को परिशुद्ध करके ब्रह्मलोक में जाने का प्रयत्न करते हैं। वेदान्त का अर्थ है – वेद का अन्त, वेद अर्थात् ज्ञान, अर्थात् समस्त ज्ञान का अन्त जब समस्त ज्ञान का अन्त हो जाता है और जानना भी शेष नहीं रहता केवल होना ही शेष रहता है तब आदमी अनुभवी होता है।
ऋषि कहता है कि करो और अनुभव करो वह क्रिया पर जोर देता है जानकारी पर नहीं क्योंकि जानकारी होने पर ज्ञान हो जाता है लेकिन फिर करने का साहस समाप्त हो जाता है। जैसे हम किसी कार्य को अज्ञानता में कर रहे हों तो बडे निडर, बेखौफ होकर कर रहे होते है लेकिन जिस समय हमें ज्ञान होता है कि इस कार्य को करने में यह खतरा है तो हम अपना साहस खो बैठते है। और कार्य करना छोड देते है, और व्यक्ति झिझक कर रूक जाता है जो क्षमता उसमें ज्ञान से पहले थी वह नहीं रह जाती। जब तक कोई अनुभव को उपलब्ध नहीं होता तब तक सभी अर्थ अनिश्चित होते है। हम कितना ही जानकारी एकत्र कर लें लेकिन अनिश्चितता के दायरे से बाहर नहीं निकलेंगे। वरन् यह होगा कि हमारी जानकारी जितनी ज्यादा बढेगी, जितना ज्ञान बढेगा हम उतना ज्यादा अनिश्चय की स्थिति में होंगे अर्थात् ज्ञान हमें अनिश्चित करता है।
हम सुनिश्चित तब हो सकते है जब किसी कार्य को करके देख लें, अनुभव कर लें तो ही हम दूसरे को भी बता सकते है हमने साधनाओं को शास्त्रों से, ग्रन्थों से पढ़ कर जान तो लिया, ज्ञान तो प्राप्त कर लिया, महाविद्याओं के नाम तो याद कर लिये, तंत्र की जानकारी तो एकत्र कर ली तथा यह भी जान लिया कि लक्ष्मी की साधना करने पर धन की प्राप्ति हो जाती है। बगलामुखी की साधना से शत्रु स्तम्भित हो जाते है सरस्वती साधना से सौन्दर्य प्राप्त किया जा सकता है लेकिन साधनाओं को करके न देखा, अनुभव नहीं लिया, जब तक अनुभव नहीं करोगे तब तक न स्वयं कुछ प्राप्त कर पाओगे तथा न दूसरों को कुछ समझा पाओगे क्योंकि तुम इस विषय में अभी तक सुनिश्चित तो नहीं हो, सुनिश्चित तो वहीं होता है जिसने अनुभव ले लिया हो।
सकाम उपासना किसी उद्देश्य से की जाती है। मन में एक संकल्प होता है। धन, राज्य, स्त्री, संतान की कामना, वाद विवाद में विजय, स्वास्थ्य लाभ एवं शत्रुनाश आदि कई तरह की कामनाओं की पूर्ति के लिये समय-समय पर सकाम प्रयोग की आवश्यकता होती है।
आर्थिक स्थिति से पीडि़त व्यक्ति लक्ष्मी प्राप्ति के प्रयोग करना चाहता है। नौकरी व उच्चाभिलाषी राज्य लाभ चाहता है, तो कोई विकट स्थिति से चिंतित हैं वह इन सबके उपायों के लिये ज्योतिषी, तान्त्रिक या साधु संतों की खोज में निकल जाता है। उनसे संपर्क कर उपासना का मार्ग प्राप्त करके उनके द्वारा बताये गये मन्त्र व देवता की आराधना में लग जाता है। सकाम प्रयोगों से तात्कालिक समस्या का निदान तो हो जाता है, परन्तु भक्ति व ज्ञान का फल अधिक समय नहीं रहता है। असंभव कार्य सिद्धि हो जाने पर किसी-किसी व्यक्ति की श्रद्धा व भक्ति अधिक बढ़ जाती है, तो कोई प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर इष्ट को भूल जाता है। सकाम प्रयोगों में देवता को आप अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये बाध्य करते है तो कुछ विघ्न भी आते है। गुरु कह रहा है परम तत्व को प्राप्त करने के अन्ततः वे ही अधिकारी होते है जो वेदान्त में निहित विज्ञान का सुनिश्चित अर्थ जानते है।
जब भी किसी अनुभवी के पास तुम जाओगे तो उसकी सुनिश्चितता अति गंभीर है उसकी गंभीरता को यदि हम सही प्रकार से समझे तो कहना होगा कि उसकी गंभीरता में कोई विरोधाभास नहीं है। रामकृष्ण परमहंस के पास नरेन्द्र जाते है तो रामकृष्ण सुनिश्चित है, नरेन्द्र पूछते है कि क्या ईश्वर है? तो रामकृष्ण कहते है, यह बेकार की बातें क्यों करता है? तुझे मिलना है? यह उत्तर ज्ञानी के पास नहीं मिल सकता था केवल अनुभवी के पास ही मिल सकता था। नरेन्द्र ने इससे पहले देवेन्द्रनाथ के पास जाकर भी यही सवाल किया था क्या ईश्वर है? लेकिन उनका सवाल करने का तरीका ऐसा था कि देवेन्द्रनाथ हडबडा गये। नरेन्द्र ने उनके कोट का कालर हिलाकर पूछा – क्या ईश्वर है? और देवेन्द्रनाथ झिझक गये और कहने लगे कि पहले बैठो तो मैं बताऊंगा। नरेन्द्र ने कहा आपको भी पता नहीं है आपने केवल उसके बारे में जानकारी की है उसे जाना नहीं है। यह सब आपकी झिझक ही मुझे बता रही है।
इसी प्रकार जब यही सवाल नरेन्द्र ने रामकृष्ण परमहंस से किया तो रामकृष्ण ने उल्टी हालत पैदा कर दी और उन्होंने कहा कि फिजूल की बात मत कर तुझे मिलना है तो बोल। उन्होने प्रश्न के उत्तर में नरेन्द्र से ही सवाल कर दिया और नरेन्द्र झिझक गये। नरेन्द्र कहने लगे कि अभी तो मैं केवल पता करने आया था थोडा समय दें सोचने के लिये कि मुझे मिलना है या नहीं। और गलतियां होती है, भूलें होती है तो सफलता नहीं मिलती लेकिन जो भूल एक बार हुई उसका विश्लेषण करें तथा प्रयास करें दोबारा न हो। भूल होती है और अवश्य होती है सभी से होती है यदि साधक यह समझे कि भूल करना बुरी बात हो गई है और डर के कारण सब कुछ छोड दें तो वह कुछ भी नहीं कर पायेगा। जिसने भी भूल की उसने दोबारा प्रयत्न करके सफलता अर्जित की। और जो लोग बड़ी-बड़ी भूले भी जान-बूझकर कर जाते है वे विशेष मंजिल तक तथा उच्च शिखर पर भी पहुंच ही जाते है।
सन्यास और योग का अर्थ है – सन्यास अर्थात त्याग (छोडना बुरे का), योग अर्थात पाना (सही का)। सन्यास कितना ही हो योग के बिना गति नहीं होगी और योग कितना ही हो सन्यास के बिना गति नहीं होगी। सन्यास और योग के बीच एक सामंजस्य खोज लेना अनुभव बनता ही है।
सन्यास व योगाभ्यास से अन्तः करण को परिशुद्ध करके ब्रह्म लोक में प्रवेश के अधिकारी होते है अन्तः करण की परिशुद्धि, अन्तः करण का पूर्ण शुद्ध हो जाना ही ब्रह्म लोक में प्रवेश है। वह जो हमारे भीतर विराजमान है वह जिस दिन अपने पूर्ण परिशुद्ध रूप में आ जाता है अपने पूरे स्वभाव में, वही हो जाता है जैसा वह है।
शुद्ध का अर्थ है मेरा जो स्वभाव है निपट वही रह जाये उसमें कोई अन्य प्रवेश न करे। अन्तः करण के शुद्ध होने का यह अर्थ नहीं है कि कोई आदमी चोरी न करता हो तो उसका अन्तः करण शुद्ध हो गया अथवा कोई आदमी बेईमानी ना करता हो, रूपयों को, धन को हाथ न लगाता हो तो उसका अन्तः करण शुद्ध हो गया ऐसा नहीं है। अन्तः करण के शुद्ध होने का अर्थ है कि किसी व्यक्ति के भीतर अब उसकी स्वयं की अन्तरात्मा के अतिरिक्त कोई अन्य चीज प्रवेश नहीं करती, अब उसके भीतर वह स्वयं ही है अन्य कोई नहीं जैसा वह था।
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