जहां भावना प्रधान हो वहां किसी बाह्य अभिव्यक्ति की आवश्यकता ही कहां हो सकती है? जो प्रेम के, आह्लाद के समुद्र में ही सतत् निमग्न रहते हों, उन्हें इस जगत की कौन सी वस्तु त्याज्य प्रतीत हो सकती है? ऐसे निमग्न देवों के देव महादेव ही यथार्थ भक्तो के लिये परम कल्याणकारी हो सकते हैं और यही कारण है गुरु को भी भगवान शिव का ही मूर्ति स्वरूप वर्णित किया जाता है।
प्रत्येक देवी-देवता अपने विशिष्ट स्वरूप में एक प्रतीकार्थ भी निहित रखते हैं, प्रत्येक देवी अथवा देवता के आयुधों और यहां तक, कि आभूषणों के भी विशिष्ट अर्थ होते हैं, जिन्हें ग्रहण कर, जिनका भावार्थ आत्मसात कर ही उनके स्वरूप को स्वयं में समाहित करने की अथवा स्वयं को ही उनके स्वरूप में समाहित कर देने की क्रिया की जाती है। जहां व्यक्ति स्वयं को अपने आराध्य में, अपने इष्ट में विलीन कर देने की चेष्टा करता है, वहां वह एक भक्त की क्रिया होती है और जहां व्यक्ति स्वयं में ही किसी देवी अथवा देवता के स्वरूप अथवा उसके वरदायक प्रभावों को समाहित करने का उपाय करता हो, वहां उस व्यक्ति की संज्ञा साधक की होती है।
दोनों में से कौन श्रेष्ठ है? यह प्रश्न भी उतना प्रधान नहीं, जितना प्रधान यह प्रश्न है, कि वह क्या उपाय हो जिससे हम अपने जीवन के विविध अभावों, बाधाओं की समाप्ति कर सहज रूप में जीवन को एक आध्यात्मिक गति दे सकें? इस प्रश्न की कोई भी व्यक्ति उपेक्षा नहीं कर सकता है। इस प्रश्न की उपेक्षा का तात्पर्य होगा- आत्मप्रवंचना! जो न तो किसी साधक का और न ही किसी भक्त का गुण कहा जा सकता है। इस प्रश्न को विस्मृत भी नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इस युग के तीव्र भौतिक जीवन में जब पग-पग पर आर्थिक अभावों के कारण जीवन की गति स्तम्भित सी हो जाती है अथवा छल-कपट से मन की चेतना भी लुप्त प्रायः सी हो जाती है। तब वास्तविकतायें स्वयं अपना परिचय दे जाती हैं।
और तब यह भी स्पष्ट हो जाता है, कि वस्तुतः भक्त बनने से पूर्व भी व्यक्ति को साधक बनना ही पड़ेगा क्योंकि ईश्वर भी उसी को समाहित कर सकते हैं, जो स्वयं में निर्मल एवं शुद्ध-बुद्ध हो। क्या विभिन्न विसंगतियों से युक्त चित्त लिये व्यक्ति शुद्ध-बुद्ध-निर्मल हो सकता है, साधना जीवन से पलायन नहीं अपितु जीवन का पुनः निर्माण का ही एक उपाय होती है। यही भगवान शिव का भी प्रतीकार्थ है। कंठ में विष और मस्तक पर चन्द्रमा धारण करने वाले देवाधिदेव का तात्पर्य ही है, कि यहीं इसी जगत की विसंगतियों के मध्य रह कर भी, निरन्तर आनन्द की अनुभूति की जा सकती है, जिसे प्राप्त करने के लिये अन्यथा सामान्य योगीजन घर-परिवार, संसार त्याग कर किसी कन्दरा अथवा वन का आश्रय ले लेना ही अधिक उचित समझने लग जाते हैं।
शिव ज्ञान, योग, वैराग्य, भक्ति के भण्डार ही नहीं, अपितु आगम, तन्त्र, मन्त्र, यन्त्र, नृत्य, वाद्य, संगीत, व्याकरण आदि समस्त कलाओं और विद्याओं के आचार्य भी हैं, उनका वास्तविक स्वरूप अत्यन्त सौम्य एवं शान्तिदायक है-कर्पूरगौरं करूणावतारम्। शास्त्रों में जहाँ कहीं भी ईश्वर अथवा ईश शब्द बिना किसी विशेषण के आया है, उसका अर्थ शिव ही लगाया जाता है।
कहा जाता है कि जब शिव एवं पार्वती का पाणिग्रहण-संस्कार हुआ, तब शाखा-उच्चारण के समय नाम पूछे जाने पर सब चुप हो गये। कुछ समय सोचने के पश्चात् ब्रह्मा जी ने कहा कि इनका पिता मैं ब्रह्मा हूँ और पितामह का नाम पूछा गया। उत्तर देने में सारी सभा अत्यन्त मौन रही। अन्त में मौन भंग करते हुये शंकर जी स्वयं बोले कि सब के प्रपितामह तो हम ही हैं।
रूद्र हृदय उपनिषद् में लिखा है कि विष्णु कार्य, ब्रह्मा क्रिया एवं महेश्वर कारण हैं, वास्तव में तीनों एक ही हैं।
विष्णु कार्य हैं, ब्रह्मा क्रिया हैं, महेश्वर कारण हैं। प्रयोजन के अर्थ के लिये रूद्र ने एक मूर्ति तीन प्रकार की कर ली है।
सनातन धर्म में आदि देव विष्णु, ब्रह्मा और महेश हैं, जिनमें विष्णु सत्त्वगुण प्रधान है, ब्रह्मा रजोगुण प्रधान हैं एवं शिव तमोगुण प्रधान हैं। तमोगुण की भ्रान्ति वश बहुत कुचर्चा है। तनिक विचार कर देखा जाये तो तमोगुण अन्य गुणों का अधिष्ठान सिद्ध होता है। इस आधार के बिना प्रकाशक सत्त्वगुण और क्रियात्मक रजोगुण अपने कार्य में वैसे ही स्थिर और सफल नहीं हो सकते, जैसे बिना तमोगुणी निद्रा एवं विश्राम नहीं हो सकता। जाग्रत् और स्वप्न अपने-अपने काम में असफल रहेंगे और अन्धकार के बिना प्रकाश तत्त्व का और स्थिर स्थिति के बिना चलन क्रिया का अनुभव नहीं होगा।
उपासक की दृष्टि से शिव तमोगुण के देवता बताने का तात्पर्य यह है कि वे इतने दयालु एवं औघड़दानी है कि जिस दोष एवं अपवित्रता से साधारणतया घृणा की जाती है, वे उसकी ओर ध्यान ही नहीं देते हैं और भक्ति की थोड़ी-सी सेवा-भाव से ही प्रसन्न होकर उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सभी प्रदान कर देते हैं। वे स्वयं इतने विरक्त हैं कि समस्त दृश्यमान वस्तुओं को तुच्छ समझते हैं। इसी स्वभाव के कारण उन्होंने समुद्र-मन्थन के समय निकले हुये हलाहल विष का पान किया एवं अन्य रत्नों में से किसी की प्राप्ति की अभिलाषा नहीं की। इन्हीं गुणों के कारण उन्होंने रावण तथा भस्मासुर आदि को भी बिना विचारे अनेक वरदान दे दिये।
केवल सद्गुरु ही अपनी साक्षात् उपस्थिति से, अपने गुरुत्व के माध्यम से, अपनी स्वयं की जीवन-शैली से स्पष्ट कर सकते हैं, कि किस प्रकार से जगत के विष के मध्य रह कर भी न केवल स्वयं आह्लाद का विस्तार भी किया जा सकता है। इसी कारणवश गुरु पद की महिमा को सर्वोच्च मानने में सभी पन्थ, सभी सम्प्रदाय एकमत हैं। किन्तु केवल प्रवचन, ज्ञानोपदेश अथवा अपनी जीवन शैली के रेखांकन के माध्यम से ही नहीं, गुरुदेव तो उन उपायों द्वारा व्यक्ति को, उसके जीवन में उसका अभीष्ट प्राप्त करने का मार्ग बताते हैं, जिन्हें सामान्य भाषा में साधना कहा जा सकता है।
साधना कोई गूढ़ शब्द नहीं है, साधना कोई ऐसा शब्द भी नहीं है, कि उसकी ओर चौंक कर देख जाये अथवा उसके प्रति व्यंग मिश्रित दृष्टि से देखा जाय। और साधना तो व्यक्ति जीवन में हर पल करता ही रहता है, चाहे वह धन कमाने के लिये नित्य परिश्रम करने की चेष्टायें हों अथवा मुकदमों की तारीख पर दौड़-दौड़ कर किसी अचानक आ पड़े झगड़े का निपटारा करना हो! जीवन में आध्यात्मिकता की उपलब्धि भी केवल भौतिक परिपूर्णता के माध्यम से ही सम्भव है, इस तथ्य को सद्गुरुदेव ने बार-बार अपने प्रवचनों से स्पष्ट करने की क्रिया की है।
जीवन के अनेक विसंगतियों के विष को समाप्त करने की साधनात्मक क्रिया 23-24 फरवरी को महाकाल शिव-गौरी साधना महोत्सव लखनऊ, (उ- प्र-) में सम्पन्न होगा। भगवान शिव के औघढ़दानी वरदायक स्वरूप को पूर्णता आत्मसात कर साधक अपने जीवन को शिव-गौरी परिवारमय निर्मित करने की चेतना से आपूरित हो सकेगा। जिससे उसका जीवन सभी भौतिक सुखों से युक्त होकर धन-धान्य, सुख-समृद्धि, अखण्ड सौभाग्य, पूर्ण आयु, आज्ञाकारी संतान, पति-पत्नी में आत्मीयता, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा व आर्थिक रूप से परिपूर्ण हो सकेगा।
आपके आने से निश्चित ही आपका जीवन सद्गुरुमय शिव-शक्ति तेज पुंज से युक्त होगा, साथ ही परिवार में शिव-शक्ति सद्गुरुमय कृपा बनी रहेगी।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,