हम सभी अपने ईश्वर-भगवान की तरह बनना चाहते है। हम चाहते है कि हममे भी वो तेज, आकर्षण, ओज, सम्मोहन, वाणी, संयम, कौशल हो, हममे भी वो पूर्णता का भाव हो, परन्तु हम कितना भी चाह कर उनके एक कण स्वरूप भी नही बन पाते क्योंकि हममें समर्पण का भाव न होकर घमंड का, अहम् का भाव होता है, थोडी सी सफलता या सिद्धि प्राप्त हो जाती है तो हम स्वयं को सबसे ऊंचा, अलग, विशेष समझने लगते है, और दूसरे के हर कृत्य को आंकने लगते है, ईश्वर तो हर क्षण मे प्रसन्न है, चाहे व सुख हो या दुख, चाहे वो मिलन हो या वियोग, क्योकि उन्हे ज्ञात है कि दुख को भोगेंगे तभी सुख का आनन्द होगा- वियोग को सहन करोगे तभी मिलने का भी आनन्द आयेगा। हमे ईश्वरमय बनना है तो हमे पूर्णता ही उन्हे समर्पित करना होगा, अहम्, घमंड को त्यागना होगा – जो हमारे पास है और दूसरों के पास नही उसे देने- दान की क्रिया करनी होगी, यदि बड़ा बनना है तो बड़प्पन करना सीखें, सामने वाले की बड़ाई करना सीखें, भगवान राम महान क्यो हैं क्योकि वे सभी का चाहे उनके शत्रु क्यो न हो उनका भी सम्मान करते है। हम आशीर्वाद प्राप्ति के लिए क्यो मन्दिर, गुरू या दिव्य शक्तियों के पास जाते है क्योकि उनमें देने का भाव है व ग्रहण करने का भाव है।
जिस प्रकार भगवान भोलेनाथ सभी भक्तों को भक्ति का फल व आशीर्वाद देते है। साथ ही साथ संसार के विष का पान करते है, उसी भांती हमारे गुरू मे भी वह सामर्थ है कि वे हमे भक्ति का, ज्ञान का, साधना का मार्ग प्रशस्त कर हमे भी आशीर्वाद प्रदान करे व हमारे विष रूपि कष्टो का हरण करे। देने का भाव केवल उन्ही के पास होता है जिनके स्वयम के पास हो – इसीलिए केवल ईश्वर व गुरू के पास ही देने का सामर्थ है। हमे ईश्वरमय या अपने प्रभु जैसा ही बनना है तो अपने अन्दर समर्पण का भाव लाना होगा। अपने घमंड – अहम् को त्यागना होगा। आपको अपने अन्दर के अभिमान को त्यागना होगा जहां अभिमान होता है वहा ज्ञान नहीं हो सकता, अगर ईश्वर की भांती बनना है तो उनके गुणों को अपनाना होगा। हममे भी विश्वास – प्रेम – मैत्री – आदर – समर्पण – सहयोग के भावो को अपने व्यक्तित्व मे उतारना होगा।
उन्ही पाप, दोष, कुकर्म, असफलता, कार्य बाधा, तनाव, रोग, कष्ट, दारिद्रता व विषम स्थितियो के शमन हेतु महाशिवरात्रि पर्व पर 07-08 मार्च को वाराणसी की पावन धरती पर मिल ईश्वरमय – गुरूमय बने।
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