कुण्डलिनी शब्द की उत्पत्ति संस्कृत शब्द ‘कुण्डल’ से हुई है और इसका अर्थ है घुमा हुआ। हमारे शरीर में सप्त चक्र विद्यमान है एवं इन्हीं चक्रों की यात्रा को ‘कुण्डलिनी जागरण’ कहा जाता है। कुण्डलिनी एक सर्प देवी हैं, जो मूल चक्र यानि कि पहले चक्र के चारों ओर 3-5 गुणा बार कुण्डली लगाकर, वहाँ पर विद्यमान होती है।
कुण्डलिनी देवी मूल चक्र से सहस्त्रार (ध्यान) चक्र तक की यात्रा हर एक चक्र को भेदन कर करती हैं और जब शीर्ष चक्र तक कुण्डलिनी जाग्रत की जाती है उस स्थिति को प्रबोधन (आत्मबोधन) कहा जाता है। यह पूर्ण आनंद की स्थिति होती है। इस स्थिति को प्राप्त कर लेने के बाद कुछ शेष नहीं रह जाता है। मन में पूर्ण संतोष, पूर्ण शांति व परम सुख स्थापित हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त जिसकी कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है उसके मुख पर एक दिव्य आभा, ओज, तेज व कान्ति बढ़ने लगती है। इससे व्यक्ति के जीवन में रोग नहीं रहते, व्यक्ति पूर्ण निरोगी हो जाता है।
हमारे शरीर में सात चक्र विद्यमान है
कुण्डलिनी जागरण के माध्यम से इन सप्त चक्रों को संतुलित कर जाग्रत किया जाता है। चक्र संतुलन में नहीं होने के सूचक व इसके प्रभाव
मन स्थिर न रहना, आलस्य, अकेलापन, महसूस होना, भावनात्मक अस्थिरता, स्वयं की आलोचना सहन नहीं कर पाना, जल्दी आक्रामक हो जाना, अपनों को खोने का भय या अपनों द्वारा धोखा दिये जाने का डर, भावना को अभिव्यक्त करने में परेशानी, रचनात्मकता की कमी, डरावने सपने, (depression) विचारों पर नियंत्रण न कर पाना आदि।
मोटापा, कब्ज, अपच, पेट में अल्सर, ब्लड प्रेशर, गर्दन में दर्द, कमर दर्द, चक्कर आना, कमजोरी।
जब सभी चक्र साथ में जाग्रत हो जाते हैं, एवं जब सभी समान गति से घूमते हैं, तो हमारी शरीर का सम्पूर्ण निकाय (system) एक तंत्र की भाँति आराम से काम करता है। चक्रो को संतुलन में कैसे किया जाये साधना द्वारा, योग व ध्यान क्रियाओं।
दीक्षा द्वारा, रत्न द्वारा।
साकारात्मक चिंतन द्वारा।
चक्रों के माध्यम से यात्रा मूल चक्र के साथ शुरू होती है। इसका संस्कृत नाम मूलाधार अर्थ ‘मूल’ या ‘समर्थन’ और यह चक्र एक नीचे की ओर नुकीले त्रिकोण जो एक चोकोर के भीतर स्थित है जिसमें एक चार पंखुडियों वाले कमल के फूल के रूप में दिखाया गया है।
हिन्दू परंपरा के अनुसार कुण्डलिनी ऊपर की ओर चक्रों के माध्यम से यात्रा करती है, प्रत्येक चक्र को जाग्रत कर शीर्ष चक्र तक पहुँचती है, इससे ज्ञान प्राप्त होता है।
मूल चक्र शारीरिक जरूरतों और मानव के बुनियादी अस्तित्व से सम्बन्धित है। लाल रंग मूल चक्र को दर्शाता है चौकोर या यंत्र पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधि है एवं उल्टा त्रिकोण शक्ति के नीचे की ओर मूल चक्र की ओर पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण में जो सम्बन्ध है, वह हमें भौतिक अस्तित्व से जोड़े रखता है। कमल की चार पंक्तियां सृष्टि के चार तत्व अग्नि, पृथ्वी, जल, आकाश का प्रतीक है।
योगाभ्यास द्वारा
सेतुबंध आसन (Bridge Pose) द्वारा। यह आसन हमारे शरीर में शक्ति का संचार करता है व हमें हमारे मानसिक चित्त को धरती से जोड़ने पर ध्यान केंद्रित करने में सहायता करता हैं।
ध्यान (Meditation) द्वारा
भगवान गणेश का ध्यान करते हुये मूल चक्र पर चित्त को केंद्रित करना चाहिये व गं गणपतये नमः मंत्र का 108 बार जप करें। मूलाधार चक्र को धारण करने हेतु संयम शांत चित्त की आवश्यकता है साथ ही सद्गरु की शक्तिपात दीक्षा को धारण करने की चेतना आवश्यक है। अपने पूजन स्थान पर प्रातः दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर, लाल वस्त्र व लाल आसन पर बैठ कर गुरु का ध्यान करे व पाँच मिनट तक त्रटक चक्र पर ध्यान केंद्रित करें।
आश्रम से प्राप्त मूलाधार यंत्र को अपने से 3 फीट की दूरी पर रखें व ‘लं’ की ध्वनि के साथ यंत्र पर अपना ध्यान कर मूल कुण्डलिनी माला से ‘लं’ मंत्र का 51 माला फेरें।
गुरु प्रदत्त शक्तिपात प्रक्रिया आज अनेकों पद्धतियां, जिससे कुण्डलिनी जागरण सम्भव है, विकसित हो गई हैं, जैसे- मंत्रात्मक पद्धति, तंत्रात्मक पद्धति, लामा प्रणाली, हठ योग क्रिया, ध्यान योग, प्राणायाम, मुद्रायें इत्यादि ये सभी पद्धतियां अनुकूल एवं अनुभव गम्य हैं, किन्तु एक योग्य गुरु ही बता सकता है, कि कौन-सी पद्धति सर्वाधिक अनुकूल है व किस प्रक्रिया के माध्यम से व्यक्ति की कुण्डलिनी अर्थात् मूलाधार से सहस्त्रार जाग्रत हो, गुरु उस पद्धति का ज्ञान देकर उस क्रिया को पूर्ण करने में सहयोगी होता है।
आज के मनुष्य के पास इतना समय नहीं है, कि वह मंत्र, साधना आदि में अपने समय का व्यय करे, ऐसे में शक्तिपात दीक्षा के माध्यम से वह कम समय में अपनी कुण्डलिनी को जाग्रत करने की ओर क्रियाशील होता है। बजाय लम्बी-लम्बी प्रक्रियाओं को अपनाने के और फिर शक्तिपात तो एक वरदान है जीवन का। भारत ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के साधक, शक्तिपात को ही जीवन की श्रेष्ठतम उपलब्धि मानते हैं, क्योंकि जिस व्यक्ति के भाग्य उदय होते हैं, जिस पर ईश्वर की विशेष कृपा होती है, उसे ही अपने जीवन में योग्य गुरु के द्वारा शक्तिपात प्राप्त होता है।
शक्तिपात तो मानव के चारों ओर बिखरी अनन्त शक्तियों को एकत्रित कर, उन्हें मानव के शरीर में उतार देने की प्रक्रिया है।
निधि श्रीमाली
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