महाकाल की नगरी में महाकुंभ लोक प्रचलित अन्य महाकुंभ से अलग है, यह चतुर्वर्गदायिनी पूर्णतः आध्यात्मिक महाकुंभ है। वास्तव में ‘परा’ या ‘अपरा’ सब कुछ तो स्वयं सदाशिव स्वरूप सद्गुरुदेव ही हैं। साधक का ‘कर्त्तव्य’ है- साधना और ‘उद्देश्य’ मन को एकाग्र करना।
सप्तमोक्षदायिनी नगरी उज्जैन महाकाल की नगरी है, महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग जहां प्राकटय है, उसके ठीक ऊपर ‘श्री यंत्र’ प्रतिष्ठित हैं। ‘कर्क रेखा’ भी ठीक महाकालेश्वर के शिखर पर से होकर गई है। महाकालेश्वर का ज्योति विग्रह दक्षिणमुखी है यह शिवालय पूर्णतः तांत्रेक्त पीठ है। ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर इसके ठीक सामने स्थापित है, अद्भुत, अनिर्वचनीय एवं अपने-आप में अन्यतम्। जहां ओंकारेश्वर को पृथ्वी का नाभि-स्थल कहा गया है वहीं दूसरी ओर महाकाल उज्जैन नगरी को भारत देश का नाभि स्थल (केन्द्र बिन्दु) माना गया है, क्योंकि समस्त काल गणना भी उज्जयिनी नगरी में होता है।
जहां भी ज्योतिर्लिंग है, वहां ‘श्री यंत्र’ अवश्य होता है। ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग को ‘अग्नि ज्योतिर्लिंग’ भी कहा गया है। उक्त शिवलिंग में 108 प्रकार के ‘श्री यंत्र’ स्पष्ट अंकित हैं, साथ ही वे मंत्र एवं साधनायें, जिसे की ‘आद्या शंकराचार्य जी’ को उनके सद्गुरुदेव ‘गोविन्दपादाचार्य जी’ ने प्रदान की थी। इसके विपरित महाकाल ज्योतिर्लिंग तो सर्वथा एक अलग ही रहस्य को लिये हुये है। यह स्वरूप है- ‘विराट त्रिपुर सुन्दरी षोडशी’ का।
काल को या मृत्यु को जीतने का अर्थ है, ऊर्ध्वगति प्राप्त करना और यह ऊर्ध्वगति, महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग से सम्भव है। अव्यक्त किन्तु व्यक्त मूर्ति (ज्ञान की दृष्टि से), महाकाल के नाभि-स्थल से जो ब्रह्म नाल प्रकट होता है, उसी के ऊपर सुमंगला शक्ति ‘श्री विद्या’ है, जो महाकाल, ज्योतिर्लिंग के ठीक ऊपर ‘श्री यंत्र’ के रूप में प्रतिष्ठित है, बिना इस शक्ति के सहस्त्रार प्रवेश असम्भव हैं।
प्रत्येक मानव-शरीर में चक्रों की स्थिति है, और ब्रह्माण्ड के विभिन्न भागों में यंत्र अवस्थित है, शरीस्थ चक्र और ब्रह्माण्ड में निहित यंत्र के मध्य सम्बन्ध है, इन पर ध्यान केन्द्रित कर साधक ब्रह्माण्ड के साथ अंतरंगता स्थापित कर सकता है। प्रत्येक मानव अपने शरीर में श्री यंत्र के प्रतीकों को लिये हुये और समर्थ सद्गुरु ही सुयोग्य साधक को मौखिक रूप से उसका ज्ञान देते हैं।
महाकालेश्वर में ही ‘श्री यंत्र’ ब्रह्माण्ड में स्थित है, महाकाल की यह शक्ति महाकाली ऊर्ध्वोर्ध्व गति अनायास ही प्राप्त कराती है। बिना ज्ञान के यह ऊर्ध्वगति असम्भव है। ऐसे क्षेत्र मे चाहे अज्ञानी हो, पापी अथवा पुण्यवान या अन्य कर्म से युक्त हो, व्यक्ति देह त्यागने के साथ ही ज्ञान प्राप्त करके ऊर्ध्वगति प्राप्त करता है। यहां देह त्यागने का अर्थ है, ‘अज्ञान-वृत्तियों का विनाश’।
वस्तुतः ज्ञान स्वरूप सद्गुरुदेव के बिना ज्ञान का उदय नहीं हो सकता। मृत्युजंय योगी बनने हेतु महाकाल की साधना जरूरी है। प्राण तथा चैतन्य दीक्षा प्राप्त होने पर भी काल का संहार क्रम लुप्त नहीं हो सकता। ज्ञान सम्पन्न पुरूष भी मृत्यु को नहीं जीत सके, उसकी देह का ध्वंस होना स्वाभाविक है।
देह का चैतन्य होना मात्र ज्ञान प्राप्ति से असम्भव है। मानव देह में जो कुछ चैतन्यता जीवन काल में दृष्टिगोचर होती है, वह आत्म-सत्ता या जीवात्मा स्वरूप है। जीवात्मा द्वारा इस देह का त्याग करते ही, यह शरीर निर्जीव हो जाता है। देह, काल के द्वारा ग्रसित हो जाती है, यही कारण है कि ज्ञान द्वारा देह प्रभावित नहीं हो सकती है। देह में अमरत्व का संचार हो सकता है, और यह संचार होता है मन के द्वारा। देह, प्राण तथा मन में एक तारतम्य का होना नितान्त आवश्यक है। यह योग्यता केवल मात्र आद्याशक्ति द्वारा ही प्राप्त हो सकती है, यही महाकालेश्वर के ‘श्री यंत्र’ का रहस्य है और यही मृत्यु या काल पर विजय प्राप्त करने का भी रहस्य है।
चैतन्य मन ही निज स्वमन है। भाव-शक्ति आद्याशक्ति की अपनी शक्ति है, जो मृत्युजंय है, इनकी देह में ‘षोडशी कला’ का पूर्ण प्रकाशन होता है। यह ‘षोडशी’ काल का शोषण कर लेती है, तथा काल द्वारा बाधित नहीं होती। जिस देह में ‘षोडशी कला’ स्थापित है, वह देह अमृत-स्वरूप है, और महाकाल ही मृत्युजंय हैं, ठीक ऐसा ही स्वरूप दृष्टिगोचर होता है, महाकाल पीठ का।
क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित सप्त पुरियों में सर्वश्रेष्ठ महत्वपूर्ण तीर्थ स्थान उज्जैन में सिहंस्थ गुरु और कुंभ दोनों पर्वों का मिलन होता है। विशेष रूप से यहां 51शक्ति पीठों में श्रेष्ठतम पीठ के साथ भगवान शंकर का दिव्यतम तेजमय ‘महाकालेश्वर पूर्वाभिमुखी ज्योतिर्लिंग’ स्थापित है, अन्य चौरासी दिव्यतम लिंग है। ऐसी दिव्यतम तपो भूमि युक्त ‘अक्षय तृतीया’ के श्रेष्ठतम अवसर पर गुरु के सानिध्य में साधना करने से सांसारिक व्यक्ति उस दिव्य शक्तियों को आत्मसात कर जीवन में निरन्तर उन्नति और प्रगति का भाव निर्मित करता हैं।
सद्गुरुदेव कैलाश श्रीमाली जी की यह हम पर असीम कृपा है कि उन्होंने इस बार अक्षय तृतीया के पर्व पर हमे दीक्षायें तथा साधना पाने का एक श्रेष्ठ अवसर प्रदान किया क्योंकि महाकाल शिवलिंग के ऊपर जो पारद श्रीयंत्र प्रतिष्ठित किया गया है वही महाकाल की सुमंगला शक्ति श्री विद्या है जिसके बिना सहस्त्रार में प्रवेश असम्भव है इसी शक्ति का तादाम्य सद्गुरुदेव साधक के सहस्त्रार से कराकर अक्षय करायेंगे। और मनुष्य जीवन में श्री के महत्व को कौन नहीं जानता यदि जीवन में श्री (धन लक्ष्मी) ही अक्षय रूप में विराजमान हो जाये तो फिर किसी चीज की आवश्यकता है क्योंकि श्री में तो सभी लक्ष्मियों का समावेश होता ही है।
इस बार विशेष साधनाओं हेतु अक्षय तृतीया पर्व पर महाकाल की नगरी उज्जैन महाकुंभ में आप सभी शिष्यों, साधक-साधिकाओं का आहवान् है। काल किसी के लिये रूकता नहीं, काल का प्रभाव अमिट है जो एक बार अवसर से चूक गया फिर पता नहीं ये क्षण दोबारा कब मिले मिले भी या नहीं जरूरी नहीं।
अक्षय तृतीया का पर्व होता है जीवन में श्रेष्ठमय सब कुछ प्राप्त कर लेने का। यदि ‘श्री’ को अपने जीवन में अक्षय कर ले सद्गुरु की कृपा से और स्वयं महाकाल स्वरूप में वह रखवाले ही तो बन जाते हैं शिष्य के जीवन के।
वन्दनीय माता जी शोभा श्रीमाली जी
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