यह बात यहां आज इस कारण से कहनी आवश्यक हो गयी है, क्योंकि समाज के मन में एक मिथ्या धारणा घर बना चुकी है कि लक्ष्मीवान सरस्वती से रहित और सरस्वती का उपासक लक्ष्मीहीन होता है। व्यवहार में भी ऐसा ही कुछ परिलक्षित होता है किन्तु प्रत्येक लक्ष्मीवान को ज्ञान की तथा प्रत्येक ज्ञानी को लक्ष्मी की आवश्यकता अथवा अपेक्षा रहती ही है और वास्तव में दोनों शक्तियां एक-दूसरे की विरोधी नहीं वरन परिपूरक ही हैं। यह कैसे सम्भव हो सकता है, कि जिन आदिशक्ति भगवती जगदम्बा की त्रिगुणात्मक रूपों में प्रस्तुति क्रमशः महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती रूप में होती है उनमें परस्पर कोई विरोध अथवा वैर जैसी कोई बात हो?
जीवन के विभिन्न चरणो पर आने वाली बाधाओं, अटकावों का समाधान विद्या के ही माध्यम से सम्भव है। जिस प्रकार से ज्ञान का तात्पर्य केवल किसी शास्त्रोक्त ज्ञान की उपलब्धि अर्जित कर लेना नहीं होता, ठीक उसी प्रकार से लक्ष्मी की प्राप्ति का अर्थ केवल धन-सम्पत्ति की प्राप्ति कर लेने तक सीमित नहीं किया जा सकता। लक्ष्मी की प्राप्ति करने का अर्थ होता है जीवन के सम्पूर्ण सौन्दर्य को अपने जीवन मे उतार लेना। यदि लक्ष्मी का अर्थ केवल धन सम्पत्ति तक ही सीमित कर दें, तो यह समाज में हजारों लोगों के पास अपने पूर्व जन्म के सुकृत कार्यो के कारण अस्थायी रूप से आ सकती है, लेकिन ऐसी लक्ष्मी ज्ञान के अभाव में उनके जीवन को परिपूर्णता नहीं दे सकती है।
लक्ष्मी को जीवन की श्री व ऐश्वर्य के रूप में परिवर्तित करना किसी देव व्यवस्था के अधीन न होकर स्वयं मनुष्य के हाथ में होता है, इसी कारणवश लक्ष्मी और सरस्वती एक दूसरे की विरोधी शक्तियां न होकर अन्योन्याश्रित शक्तियां होती हैं और जिस शक्ति तत्व के द्वारा इन दोनों में परस्पर सामंजस्य स्थापित होता है, वह है काल शक्ति। यह शक्ति तत्व जाग्रत होने पर व्यक्ति काल को पहिचान कर अपने जीवन में लक्ष्मी को और सरस्वती को स्थायी रूप से प्राप्त कर सकता है और जीवन की जाग्रत अवस्था की ओर ले जा सकता है।
शक्ति तत्व के चैतन्य होने पर ही एक ज्ञानवान व्यक्ति धनवान या लक्ष्मीवान बनने की ओर अग्रसर हो सकता है और धनवान व्यक्ति ज्ञानवान बनने की क्रिया में संयुक्त हो जाता है अर्थात् यदि कुछ अभाव जैसा हो, तो उसकी पूर्ति होना सम्भव हो सकता है। व्यक्ति का बोधवान होना जीवन की प्रथम स्थिति होती है और इसी कारणवश ज्ञान की महिमा को सर्वोच्च रूप से स्वीकार किया गया है। जहां जीवन में ज्ञान का प्रश्न आता है, वहां सदा सर्वदा से भगवती महासरस्वती की उपासना-साधना करने का विधान रहा है। मात्र ज्ञान प्रदात्री देवी के रूप में नहीं वाक्पटुता वाणी कौशल, सौभाग्य एवं आयुष्य की अधिष्ठात्री देवी के रूप में महासरस्वती की उपासना करने का विधान रहा है।
भगवती महासरस्वती की उपासना प्रकारांतर से सतोगुण की उपासना ही है, अतः जीवन में जो भी स्थितियां सतोगुण से सम्बन्धित हों, वे सभी महासरस्वती के ही अधीन है। अध्यात्म के क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना, ध्यान, धारणा व समाधि में सफल होना भी महासरस्वती की कृपा से ही संभव हो पाता है किन्तु इसके उपरांत भी महासरस्वती की धारणा को केवल इतने तक ही सीमित नहीं किया जा सकता है। अर्थात् एकांगी रूप से उन्हे केवल सतोगुण प्रधान रूप में स्वीकार करना एक त्रुटि होगी। यह सत्य है कि उनमें सत्व की प्रधानता है, किन्तु वे जीवन के अन्य दो आवश्यक गुण रज और तम से सर्वथा रहित नहीं है।
अर्थात् हे देवी! जिस प्रकार लोक पितामह भगवान ब्रह्मा आपका परित्याग करके आपसे कभी अलग नहीं होते, उसी प्रकार हमारा भी अपने परिवार के लोगों से विलगाव न हो, हमें ऐसा वर दीजिये। वेद, सम्पूर्ण शास्त्रों, नृत्य-गीत आदि आपके आधिपत्य में रहने वाली जो विद्यायें हैं, वे मुझे भी उपलब्ध हो सकें तथा आप अपनी अष्ट मूर्तियां -लक्ष्मी, मेधा, वरा, शिष्टि, गौरी, तुष्टि, प्रभा एवं मति के साथ सदैव मेरे जीवन में स्थापित रहें।
भगवती महासरस्वती कृपालु होने पर केवल ज्ञान रूप में ही नही वरन् इन्हीं अष्ट रूपों में तो अपने साधक को वरदायक प्रभावों से परिपूर्ण कर देती हैं। जिसके जीवन में लक्ष्मी हो, मेधा अर्थात प्रत्युत्पन्नमति हो, वरा अर्थात् वरदायक प्रभाव हो, शिष्टि अर्थात सर्वरूपेण मंगलमयता हो, शिष्टता हो, गौरी अर्थात शक्ति तत्व हो, तुष्टि अर्थात् परिपूर्णता का वातावरण हो, प्रभा अर्थात् शुभ्रता का एक आभामंडल हो तथा मति अर्थात् उचित-अनुचित का भेद करने की सामर्थ्य हो, उसका जीवन किस प्रकार से न्यून रह सकता है। इसी प्रकार का जीवन संतुलित जीवन होता है और जहां संतुलित जीवन होगा, वहां संतुलित मन-मस्तिष्क से युत्तफ़ स्त्री-पुरूष ही अपने जीवन में पूर्णता की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
आधुनिक युग में बालकों की शिक्षा को ही विद्या कहा गया है और सरस्वती की साधना केवल बालकों विद्यार्थियों के लिये ही उपयोगी बताई गई है, यह बात अत्यन्त विचित्र है कि आज कल किताबों से जो ज्ञान ग्रहण करते हैं उसका उपयोग जीवन में नहीं हो पाता केवल डिग्री प्राप्त करना ही शिक्षा मान लिया गया है। जबकि शिक्षा तो वह साधना है जो जीवन भर निरन्तर सम्पन्न करनी चाहिये। जीवन भर जो बालक की तरह ज्ञान ग्रहण करता रहता है, वही विद्यार्थी है वही अपने जीवन में गुणों से सम्पन्न होता रहता है। वही व्यक्ति कठिन से कठिन परिस्थिति में भी घबराता नहीं। भगवती सरस्वती ब्रह्म की अर्द्धांगनी है और मनुष्य को अपनी इच्छाओं का स्वामी बनाती है। आध्यात्मिक, भौतिक, लौकिक सभी प्रकार के व्यवहार और ज्ञान से परिपूर्ण करती है।
लक्ष्मी, मेधा, वरा, शिष्टि, गौरी, तुष्टि, प्रभा एवं मति स्वरूप में अष्ट सरस्वती की चेतना को जीवन में धारण कर जीवन को धन, लक्ष्मी, ज्ञान, वाक् चार्तुयता, सौन्दर्य, संगीत, उमंग, अनंग शक्ति से गृहस्थ जीवन को सुख-समृद्धि युक्त प्रतिष्ठित व्यक्तित्व के रूप में स्थापित कर सकेंगे। साथ ही विद्यार्थी जीवन में स्वयं श्रेष्ठ सफ़लता, लक्ष्यों की प्राप्ति, सुसंस्कार, मेधावी चेतना प्राप्ति हेतु अष्ट सरस्वती ज्ञान धन लक्ष्मी वृद्धि दीक्षा और सरस्वती बीज मंत्र अंकन से सभी मनोकामनाओं की पूर्ति पूज्य सद्गुरूदेव के दिव्य सानिधय में 11-12 फ़रवरी को बंसतोत्सव ज्ञान धन लक्ष्मी साधना महोत्सव कालीका माता ट्रस्ट धर्मशाला, रतलाम, म-प्र में सम्पन्न होगा।
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