जब साधक उच्च कोटि की अवस्था को प्राप्त करने के लिये अग्रसर होता है, तो उसका अन्तिम लक्ष्य शिवत्व को प्राप्त करना होता है। और उन सभी ने शिवत्व को समाहित किया है, शिव को अपने आप में आत्मसात किया है, क्योंकि शिवमय होने के उपरान्त ही तो साधक में निर्लिप्तता का भाव उत्पन्न होता है। फिर किसी साधना की आवश्यकता नहीं रहती। क्योंकि भगवान शिव श्मशान में रहने के बाद भी कुबेराधिपति हैं, महादेव हैं, सभी देवों में शीर्षस्थ स्थान पर विराजमान हैं।
जब साधक शिवत्व से आपूरित हो जाता है, तो फिर उसके समक्ष न्यूनतायें नहीं आ पातीं, वह शीर्षस्थ स्थान प्राप्त कर लेता है, पर इन सबके साथ जो महत्वपूर्ण प्रक्रिया होती है, वह यह है कि भौतिक पूर्णता होने के बाद भी साधक अपने चिन्तन को न बदले, उसमें वह किसी प्रकार की न्यूनता न लाये, क्योंकि उसका चिन्तन ही आधार बन जाता है उसकी प्रगति का।
किसी भी प्रकार की न्यूनता को दूर करने की क्रिया हमें स्वयं शिव उपस्थित होकर तो नहीं बता सकते, पर शिव स्वरूप गुरूदेव अवश्य ही हमें हमारी न्यूनताओं को दूर करने की क्रिया सम्पन्न करवा सकतें हैं, इसीलिये शास्त्रों में गुरू को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है, गुरू को शिव स्वरूप माना गया है, जो स्वयं साधक के अन्तः मन जो पाप, दोष, अज्ञानता, न्यूनता के विष को ग्रहण कर लेते हैं और उसे दीक्षा के माध्यम से अपनी शक्ति रूपी अमृत प्रदान कर देते हैं, वे अपने शिष्य के भाग्य को परिवर्तित कर सकने में समर्थ होते हैं।
आगम तंत्र और अन्य तंत्र शास्त्रें में भी शिवत्व को श्रेष्ठतम बताया है। सर्वोच्च बताया गया है। शिव साधक में स्वतः ही शक्ति का समावेश हो जाता है। शिवत्व को आत्मसात करने के उपरान्त फिर साधक को किसी चीज की न्यूनता नहीं हो सकती है, शिव का कुबेराधिपति स्वरूप साधक को अतुलनीय धन-धान्य प्रदान कर देता है। महाकाल की साधना करने पर साधक के समक्ष काल भी ठिठक कर खड़ा होने को मजबूर हो जाता है। साधक के समक्ष किसी प्रकार की भौतिक बाधा या समस्यायें तो उपस्थित हो ही नहीं सकतीं, परन्तु ऐसा तभी सम्भव हो पायेगा, जब साधक पूर्णता के साथ शिवत्व को आत्मसात कर सके, शिवत्व को प्रदान करने में सिर्फ गुरूदेव ही समर्थ होते हैं, क्योंकि शास्त्रों ने उन्हें ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश त्रिदेव स्वरूप में अपने शिष्यों के मध्य उपस्थित हैं। और इस बार महाशिवरात्रि महोत्सव का आयोजन त्रिवेणी तट के पावनतम तेजमय भूमि प्रयाग राज इलाहाबाद में सम्पन्न होगा।
प्रयाग राज इलाहाबाद में तीन नदियां गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती इस पावनतम नगरी में आज भी वेगमान है, जो संगम का पुण्य स्थल कहलाता है। गंगा उत्तर से दक्षिण की ओर एवं यमुना पश्चिम से पूर्व की ओर बहते हुये प्रयागराज में आकर मिलती है। इसी मिलन स्थल पर एक श्वेतधारा का उद्भव सरस्वती के रूप में होता है। इन तीन धाराओं को त्रिवेणी कहते है। सच तो यह है कि, यह युक्तवेणी कहलाता है।
तीर्थराज प्रयाग अपने नाम से ही स्वयं के अर्थ को पूर्ण करता है। अर्थात् तीर्थों का राजा तीर्थराज प्रयाग। प्रयाग का अर्थ होता है-प्र (प्रकृष्ट) + याग (यज्ञ) अर्थात् प्राथमिक विशाल यज्ञ। यहां ब्रह्मा जी और प्रजापति द्वारा विशाल यज्ञ किया गया था। जो ब्रह्म की पंच कोस यज्ञ वेदी ही प्रयाग है। यह ऋषियों की यज्ञ स्थली के साथ-साथ उत्तम और कठोरतम तपस्या की भूमि भी रही है, जिसे भास्कर क्षेत्र कहा जाता है। यह सोम-वरूण की तपोभूमि भी रही है।
विश्व के तीर्थ पति प्रयागराज की महत्ता का वर्ण करते हुये तुलसीदास कहते हैं कि पापों के समूल बन्ध को नष्ट करने के लिये प्रयागराज ही मोक्ष का मूल है। प्रयाग मोक्षदायनी गंगा-यमुना के संगम में अदृश्य सरस्वती की श्वेत पवित्रता जीवन को सम्पूर्णता के चैतन्य करने में समर्थ है। तीनों नदियों के परस्पर मिलन से यह त्रिवेणी अर्थात् तीन धाराओं के मिलन का संगम कहलाता है। त्रिवेणी-संगम प्रयाग को अनादिकाल से तीर्थत्व प्रदान करता रहा है।
इसी पावनतम भूमि पर भारद्वाज आश्रम आज भी अवस्थित है। भगवान राम भी वनवास जाते समय अपने अपने अनुज लक्ष्मण और भार्या सीता सहित मुनि भारद्वाज के आश्रम प्रयाग में ठहरे थे, इससे यह क्षेत्र और अधिक पावन हो गया। एक समय ऐसा भी था जब इस आश्रम में बाल मुनियों की संख्या 8 से 10 हजार के लगभग थी। भगवान राम वनवास के समय गंगा पार इस आश्रम में मुनिश्रेष्ठ से आशीर्वाद लेकर ही आगे बढ़े थे। उस समय भगवान राम ने इस आश्रम के सम्बन्ध में कहा था- यह आश्रम भविष्य में इस धरती की धरोहर के रूप में जाना जायेगा।
ऐसी ही दिव्यतम भूमि पर जिसे तीर्थों का राजा तीर्थराज कहा गया है। जिस भूमि पर अनेक ऋषि-मुनियों द्वारा चेतनावान तप और साधना सम्पन्न किया गया है। जो हर स्वरूप में पूर्ण चैतन्य है। जिसे यज्ञ स्थली के नाम से सृष्टि के रचनाकर्ता ने विभूषित किया है, उसी त्रिवेणी संगम के महाभूमि पर शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंग स्वरूपों से युक्त शिव और सद्गुरूदेव के वृहद् संगम से शिष्य, साधक शिव-गौरी परिवारमय चेतना से ओत-प्रोत हो सकेंगे। भगवान शिव की जटा से प्रवाहित मोक्षदायिनी गंगा, यमुना और ज्ञान प्रदायिनी सरस्वती के ज्योर्तिंमय चेतना में अपने गृहस्थ जीवन को सभी दृष्टि से मंगलकारी स्वरूप में निर्मित करने हेतु महाशिवरात्रि गौरी लक्ष्मी की विशिष्ट साधना, हवन, सरस्वती अंकन, सरस्वती दीक्षा से जीवन धन, सुख-समृद्धि, सम्पन्नता, पूर्णता, ज्ञान, सफ़लता युक्त श्रेष्ठ जीवन से युक्त हो सकेगा।
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