नहीं वह एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी यह क्रम तब तक जारी रखती है, जब तक कि धरती भीग न जाये और उसकी तृप्ति, सोंधी महक बनकर फूट न उठे। यह मानव मन भी एक प्रकार की धरती ही तो है।
जब इसे स्नेह और प्रेम का जल नहीं मिलता, तो शुष्क हो जाता है, अनुपजाऊ हो जाता है और जिस प्रकार वर्षा ना होने से धरती में गहरी दरारें पड़ जाती हैं, ठीक उसी तरह मानव मन में भी कुंठाओं, नीरसताओं और विषमताओं की गहरी दरारें पड़ जाती हैं।
यह सारभूत तथ्य तभी विकसित हो सकता है, जब प्रेम की कुछ बूंदें नहीं, कोई एक झोंका नहीं, अपितु एक के बाद एक लहर आती रहे। यह कार्य केवल ईश्वर ही सम्पन्न कर सकते हैं, और ईश्वर मूर्त रूप में इसी कार्य को गुरू सम्पन्न करते रहते हैं। केवल ऐसे ईश्वर रूपी गुरूदेव का ही धैर्य असीम हो सकता है और वे ही अक्षय प्रेम जल के स्वामी हो सकते हैं।
गुरू का कार्य ठीक एक माली की ही तरह है। शिष्य को जितनी चिंता अपने विकास की होती है, गुरूदेव को उससे कहीं अधिक होती है। उन्हें प्रतिपल यह बात उद्वेलित रखती है, कि जो बीज मेरे शिष्य के अंदर पड़े हैं, ज्ञान के, चेतना के, सुसंस्कारो के वे व्यर्थ न चले जायें और वे ही इसके अंकुरण के प्रयास भी करते हैं केवल अंकुरण ही नहीं, पूर्ण सघन वृक्ष बनने तक वे चेष्टारत रहते हैं।
कल-कल करती हुई लगातार बहती हुई किसी अनजान पथ की ओर अग्रसर रहती है, कहीं भी एक क्षण के लिये विश्राम उसकी किस्मत में नहीं है, वह हर क्षण आगे ही बढ़ती रहती है। अपने प्रिय की ओर, सागर की ओर—–। वह जानती है, कि उससे मिलने में उसके अस्तित्व को खतरा है, उससे मिलने पर वह पूरी तरह से समाप्त हो जायेगी, उसमें विसर्जित हो जायेगी पर वह इन बातों की परवाह न करते हुये किसी अल्हड़ षोड़शी की भांति अपने प्रिय में विलीन होने के लिये बढ़ती रहती है क्योंकि उसे पता होता है कि विलीन होने पर ही पूर्णत्व मिलेगी। जीवन की इस लम्बी, अनुभव प्रदायी यात्र में हर किसी की अपनी आकांक्षायें एवं इच्छायें होती हैं, हर कोई कुछ विशेष करना चाहता, कुछ विशेष बनना चाहता है, कुछ विशेष प्राप्त करना चाहता है।
पर क्या नदी की ही भांति उसमें दृढ़ता है, नदी की ही भांति उसमें अटूट विश्वास, श्रद्धा और खुद को मिटाने का जुनून है? अगर नहीं तो फिर किस बलबूते पर कुछ प्राप्त करना चाहते हो, जो मिटने को तैयार नहीं, वह क्या नवीन निर्माण कर सकेगा, जो विसर्जित होने की क्रिया से अनभिज्ञ है वह अपने अस्तित्व को बचा भी कैसे सकेगा?
कौन है तुम्हारा गुरू
‘गुरू’ शब्द बड़ा ही प्यारा है। यूनानी भाषा में इसका अर्थ है शून्य और सही अर्थों में देखा जाये, तो शून्य से अधिक विस्तार लिये हुये कोई चीज होती भी नहीं इसीलिये तो ऋषियों ने ब्रह्माण्ड को शून्य कहकर सम्बोधित किया है।
वास्तव में गुरू वह होता है, जो समस्त ब्रह्माण्ड को अपने अन्दर समाहित किये होता है, जो सत्य स्वरूप होता है, सत् चित् आनन्द स्वरूप होता है, पूर्ण ब्रह्म स्वरूप होता है। गुरू वह होता है, जो व्यक्ति को प्रबोधित करता है, उसको प्रबोध देता है, वही शिष्य के झूठे सामान्य व्यक्तित्व को नष्ट कर उसे उसके वास्तविक दिव्य अस्तित्व से परिचित कराता है। इसीलिये उसे प्रबोधक भी कहा जाता है।
और यह प्रबोधक अपनी दोनों बाहें फैलायें आतुरता से शिष्य को उसकी समस्त न्यूनताओं समेत अपने में समाहित करने के लिये तत्पर रहता है। ध्यान रहे, सागर कभी यह नहीं कहता, कि यह नदी बड़ी गंदी है, बड़ी प्रदूषित है, मैं इसको नहीं अपनाऊंगा, मैं इसे अपने में नहीं समेटूंगा। इसी प्रकार गुरू भी शिष्य की न्यूनताओं, उसकी तुच्छता के विष को पीते हुये भी उसे अपने अंक में समेट लेते हैं। तभी तो कुरान कहता है-
बिस्मिल्लाहि अतूर रहमानि अल्तरहिमि
शुरू करता हूं उस परम तत्व के नाम से, जो कि मात्र दाता और अपार करूणावान है। यह गुरू की अपार करूणा ही है, कि वह ब्रह्मत्व की उच्चतम, आनन्दप्रद स्थिति से नीचे उतर कर शिष्य के स्तर पर खड़ा होकर, बीच के सभी फासलो को मिटा कर प्रबोध देने की चेष्टा करता है।
एक भिखारी किसी भी हालत में सम्राट के सामने जाकर अपने मन की बात नहीं कह सकता, क्योंकि उन दोनों में फासला इतना है, कि भिखारी हतप्रभ हो जायेगा, हकलाने लग जायेगा और अगर हिम्मत करके कुछ कहे भी, तो वे शब्द आधे-अधूरे ही रहेंगे। इसीलिये एक बड़ा ही सुन्दर नियम बना रखा था सम्राटों ने, रात को सामान्य आदमी की वेशभूषा में अकेले राज्य के दौरे पर निकलते थे, बिल्कुल सामान्य व्यक्ति की तरह, इस तरह से वे लोगों से बात कर पाते थे और लोग भी, बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी व्यथा उन्हें बता देते थे, क्योंकि वह उन्हीं के स्तर का व्यक्ति प्रतीत होता था, वहां कोई फासला नहीं दिखता था। और इस तरह सम्राट उनकी दुविधायें, परेशानियों समझ कर उन्हें दूर करने की चेष्टा करता था।
इसी प्रकार गुरू भी सभी फासलों को मिटा कर सामान्य व्यक्ति की तरह ही जीवन जीता हुआ लोगों के बीच आता है, ताकि वे बिना किसी हिचकिचाहट के उससे सम्पर्कित हो सकें और उससे जुड़ सकें। इस जुड़ने की ही क्रिया में गुरू उस व्यक्ति को समाप्त कर देता है, उसके झूठे व्यक्तित्व को बुरी तरह से झकझोर देता है, उसके नकली अस्तित्व को उखाड़ कर फेंक देता है, उसे बिल्कुल खत्म कर देता है, ठीक उस समुद्र की भांति, जो नदी को पूर्ण रूप से समाप्त कर सागरमय, समुद्रमय बना देता है। फिर पहली बार नदी को अहसास होता है, कि वह तो सदैव ही समुद्र रही है, यह नदी का स्वरूप और इधर-उधर बिना दिशा के बोध हुये बहना तो एक स्वप्न, एक भ्रम मात्र था। उसका वास्तविक स्वरूप तो समुद्र ही था और वह समुद्र ही है।
ठीक इसी प्रकार झूठा व्यक्तित्व गिरने के बाद व्यक्ति को, उस शिष्य को पहली बार बोध होता है, कि वह तो गुरू से अभिन्न कभी था ही नहीं, उसका भटकाव तो मात्र उसका अज्ञान था, मात्र एक छलावा था, क्योंकि गुरू तत्व से वह कभी अलग था ही नहीं और तब गुरू और शिष्य में कोई अन्तर नहीं रह जाता और स्वतः ही प्रबोधित शिष्य के कण-कण में अहं ब्रह्मास्मि का भाव नृत्य करने लग जाता है।
स्मरण रहे, जो नदी समुद्र में, सागर में पूर्णतः विलीन हो जाती है, वही बाद में वाष्पीकरण क्रिया के फलस्वरूप स्वच्छ, शीतल फुहारों के रूप में लपलपाती धरती और उजाड़ स्थानों पर बरसती है और उसे पुनः हरियाली एवं सौन्दर्य से युक्त करने में सक्षम होती है। चारों तरफ एक मनोहारी सुगन्ध फैल जाती है और सारा वातावरण नृत्यमय हो जाता है। जो शिष्य गुरू में पूर्णतः लीन है, वही भविष्य में शीतल बयार बन पाता है, शीतल फुहार बन पाता है, युग पुरूष बन पाता है और चतुर्दिक् एक प्रकाश युक्त वातावरण का सृजन कर पाता है।
यह एक अद्भुत क्रिया है कोयले से हीरे होने की, मूढ़ से प्रबोधित होने की और केवल मात्र गुरू ही इसके जानकार हैं। जो विभिन्न क्रियाओं के माध्यम से शिष्य को उसके लक्ष्य तक पहुंचाने के लिये प्रयासरत रहते हैं। जिनके जीवन का प्रत्येक क्षण मात्र इसी चिंतन में व्यतीत होता है कि किस प्रकार उन अभावों को दूर किया जाये जिससे उनका शिष्य दुःखी है, पीडि़त है, परेशान है। जीवन को जैसे-तैसे गुजारने के लिये विवश है। उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उसे दर-दर भटकना पड़ रहा है, जो भौतिक जीवन की प्राथमिकता है। इन सभी समस्याओं के निदान के लिये वे बार-बार शिष्य का आह्नान करते हैं।
मन तो हवा में लटकते हुये एक धागे के समान है, जिसका एक छोर तो बंधा हुआ है, परन्तु दूसरा छोर हवा में लटक रहा है। यह धागा वातावरण की हलचल से निरन्तर हिलता रहता है। यही क्रिया प्रत्येक शिष्य के साथ भी होता है, जिसमें यह मन रूपी धागा बार-बार हिलता रहता है, हम निरन्तर संशय-असंशय, तर्क-कुतर्क के घेरों में घिरते चले जाते हैं, हम यही चिन्तन रखते हैं, कि चलो अगली बार अवसर प्राप्त होगा तो देखेंगे, और यह अवसर भी हमारे हाथ से निकल जाता है, यह क्रिया बार-बार हमारे साथ होती रहती है, इस प्रकार हम जीवन में न्यूनताओं में ही फंसे रहते हैं। समस्या यहीं से प्रारम्भ हो जाती है। यदि हम अपने जीवन को परिवर्तित करने के लिये दृढ़ निश्चयी हो जायें तो मन रूपी धागा हिल ही नहीं सकता। फिर हमें सफलता प्राप्त करने से संसार की कोई शक्ति रोक नहीं सकती।
गृहस्थ शिष्य एवं साधक-साधिकाओं को गृहस्थ के सभी दायित्व निभाते हुये भी महाविद्या साधना, शिव साधना, दुर्गा साधना, भूत भविष्य सम्बन्धी पंचागुली, महालक्ष्मी, महाकाली साधना, भैरव साधना, साबर मंत्र साधना, कुण्डलिनी जागरण साधना, आदि साधनायें सम्पन्न करा कर सिद्ध एवं सक्षम बनाना और उनके जीवन की सभी विषमताओं को समाप्त कर जीवन और परमात्मा का रहस्य समझाकर उन्हें अहम् ब्रह्मास्मि शक्ति से युक्त करना ही इस साधना महोत्सव में पूज्य गुरूदेव का उद्देश्य है।
जीवन में अष्ट पाशों से मुक्त होकर शिव-गौरीमय परिवार की चेतना से अपने जीवन को आप्लावित करने और भगवान सदाशिव महादेव के क्षयति पापम् की चेतना को पूर्णता से आत्मसात कर ही भौतिक व आधयात्मिक पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं। इसी हेतु शिव शक्तियों से युक्त जीवन निर्माण, धन-सम्पदा, सुख-समृद्धि के साथ स्वच्छ, पवित्र, निर्मल, गृहस्थ पूर्णता युक्त जीवन निर्माण की शैव व वैष्णव की चैतन्य भूमि पर सिद्धाश्रम के योगीजन, ऋषि-मुनि, परमहंस सद्गुरूदेव भगवान के दिव्य सानिधय में नववर्ष पूर्ण लक्ष्मी वृद्धि साधना महोत्सव 26-27 दिसम्बर को रामेश्वरम् में सम्पन्न होगा। पूर्ण चैतन्य दिव्यता युक्त ज्योतिर्लिंग स्वरूप भगवान सदाशिव की नगरी में समुद्र स्नान के बाद सभी चौबीस तीर्थ कुण्ड के जल से साधकों का अभिषेक स्वयं पूज्य गुरूदेव के दिव्य कर कमलों से होगा।
साथ ही महामृत्युजंय अभिषेक, दुर्गा सरस्वती के वेदोक्त मंत्रें से नव चण्डी हवन, सर्व काल संहारक हनुमान शक्ति दीक्षा, ज्वाला मालिनी सौभाग्य धनदा लक्ष्मी दीक्षा प्रदान की जायेगी। जिससे कि दिव्य तीर्थ स्थल पर सद्गुरूदेव के सानिध्य में इस तरह की पूर्ण रूपेण साधनात्मक क्रियायें करने से जैसे वे पूर्णमदः पूर्णमिंद हैं वैसे ही साधक के जीवन में निश्चिन्त रूप से पूर्णता का भाव आता ही है।
26 दिसम्बर 2015 शनिवार को प्रातः काल तक रामेश्वरम् पहुंचना अनिवार्य है।
26 दिसम्बर 2015 को अपने जीवन को दीर्घायु, आरोग्यमय, धन-वैभव, सम्पन्नता, यश-लक्ष्मी व समृद्धिशाली जीवन से आपूरित करने हेतु प्रत्येक साधक द्वारा रूद्राष्टाध्यायी नवग्रह, शिव शक्ति महामृत्युजंय मंत्रों और त्रिपुरा श्री विद्या मंत्रों से आपूरित स्वः रूद्राभिषेक व हवन सम्पन्न होगा।
27 दिसम्बर 2015 को राज-राजेश्वरी पाटोत्सव दिवस पर समुद्र स्नान व सभी दिव्यतम जलाशयों से स्वः अभिषेक की क्रिया के साथ रामेश्वरम् शिव घाट पर भजन, कीर्तन, नृत्य, आरती व सेतु बन्ध की भांति नूतन जीवन निर्माण की दीक्षायें पूर्ण रूपेण साधक के रोम-रोम में दिव्यतम ज्योतिर्लिंग मंदिर प्रांगण में स्थापित की जायेगी।
रामेश्वरम् में प्रत्येक साधक परिवार के लिये व्यवस्थित व्यक्तिगत कमरों की व्यवस्था की गई है। साथ ही सात्विक प्रसाद और भोजन की व्यवस्था पूज्य गुरुदेव द्वारा प्रदान की जायेगी।
पूर्व में ही रेल आरक्षण की ऐसी व्यवस्था कर के आयें कि 28 दिसम्बर को सीधे अपने घर को प्रस्थान कर सकें जिससे कि गुरुदेव के सानिध्य में पवित्र दिव्य अलौकिक पूर्ण चैतन्य स्थानों पर जो उक्त विशेष क्रियायें सम्पन्न की है उसका पूरा लाभ आने वाले नूतन वर्ष में अक्षुण्ण बना रहे।
गुरूदेव की विशेष अनुकम्पा से प्रत्येक Registered साधकों के लिये व्यक्तिगत रूप से स्वच्छ बाथरूम युक्त कमरों की व्यवस्था की गयी है, अतः आवश्यक है कि पति-पत्नी युगल रूप में आकर भगवान सदाशिव महादेव और माता गौरी का अखण्ड सौभाग्य का आशीर्वाद गुरूदेव के सानिध्य में प्राप्त करेंगे।
पंजीकरण शुल्कः 4100/-
प्रत्येक प्रक्रिया में दीक्षा न्यौछावर सम्मिलित नहीं है।
समय से पंजीकरण करायें जिससे कि आप ही से सम्बन्धित साधना सामग्री मंत्र सिद्ध चैतन्य की जा सकें।
और आने वाले नव वर्ष को आप पूर्ण कर्मठता और चैतन्यता से पूर्णरूपेण अपने अनुकूल बना सके।
सम्पर्कः- जोधपुर कार्यालयः- 0291-2517025, 2517028, 07568939648, 08769442398
सभी बड़े शहर से मदुरई और रामेश्वरम् के लिए रेल की सुविधा है।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,