‘नारायण! नारायण!’ का जप करते हुये भगवान नारद विष्णु लोक पहुंचे। भगवान विष्णु किसी कारण वश वहां पर नहीं थे। माता लक्ष्मी को प्रणाम कर देवर्षि नारद ने उनका हालचाल पूछा, ‘आप कैसी हैं माते?’ । माता लक्ष्मी ने कहा कि वो प्रसन्नचित जीवन बिता रही हैं व गर्व पूर्ण हो बताया कि उनका तो पूरा समय अपने पति चिन्तन व सेवा में ही लग जाता है और वह इस बात से पूर्ण रूप से संतुष्ट हैं। बातों-बातों में नारद मुनि चित्रकूट में अत्रि मुनि के आश्रम में रहने वाली उनकी पत्नी माता अनसूइया का जिक्र कर देते हैं और माता लक्ष्मी के सामने उन्हें श्रेष्ठतम पतिव्रता स्त्री की विभूति देते हैं।
इस पर माता लक्ष्मी को थोड़ा ठेस सा लगता है और झिझकते हुये पूछ बैठती हैं कि क्या अनसूइया उनसे भी ज्यादा श्रेष्ठ पतिव्रता हैं। उनके प्रश्न के पूछते ही नारद मुनि बिना एक क्षण व्यतीत किये यह कह देते हैं कि हां माता! वह आपसे भी ज्यादा श्रेष्ठ पतिव्रता हैं और केवल आपसे ही ज्यादा नहीं अपितु वो तो पूरे ब्रह्माण्ड की श्रेष्ठतम स्त्री भी हैं। ऐसा कह कर नारद मुनि शिव लोक व ब्रह्मलोक भी होकर आते हैं और वहां पर माता पार्वती और मां सरस्वती के भी समक्ष माता अनसूइया की श्रेष्ठता बताते हैं।
इधर तीनों देवियां तो स्वयं को ही श्रेष्ठतम पतिव्रता स्त्री मानती थीं। उनसे यह बात कदापि सहन नहीं हुई कि कोई सामान्य मानव उनसे श्रेष्ठ पतिव्रता हो सकती है। नारद मुनि के द्वारा बोये गये संशय के बीज ने विशाल वृक्ष का रूप ले लिया था। अपने संशय के निवारण के लिये तीनों देवियों ने अपने-अपने पति से अनसूइया के बारे में पूछा तो उनके पति ने भी नारद मुनि द्वारा बताये गये बातों को ही दोहराया।
यह बात तीनों देवियों के मन में खटक गई, वे किसी भी तरह से सती अनसूइया के पतिव्रता के व्रत को भंग करना चाहती थीं। तभी इस संसार में उन्हें श्रेष्ठता प्राप्त होगी। आपस में सलाह मशवरा कर वो तीनों अपने-अपने पति के पास जा पहुंची। तीनों ने अपने पति के सामने यह जिद पकड़ ली कि किसी भी प्रकार से उन्हें अनसूइया को इस पदवी से नीचे गिराना होगा। तीनों ही देवों ने अपनी-अपनी पत्नी को समझाने की बहुत कोशिश की पर सब नाकाम। स्त्री हठ के आगे भला कोई जीत सका है क्या? अंततः त्रिदेवों ने अनसूइया के पतिव्रता व्रत को भंग करने के लिये हामी भर दी।
तीनों देव अपने अपने लोकों को छोड़ कर पृथ्वीलोक पर स्थित चित्रकूट में महर्षि अत्रि के आश्रम आ पहुंचते हैं। उस समय महर्षि अत्रि अपने आश्रम में नहीं थे। तीनों देवों ने साधु का वेश धारण किया हुआ था। अपने द्वार पर तीन साधुओं को देख कर माता अनसूइया ने उनका पूर्ण आवभगत किया और अंदर बुलाया व बैठने के लिये आसन प्रदान किया। तीनों देवों ने फिर भोजन करने की इच्छा प्रकट की। ‘माता! हमें भूख लगी है। कृपा हमें भोजन प्रदान करें।’
घर आये साधुओं की सेवा करने का सुअवसर माता अनसूइया जाने कैसे दे सकती थीं। उन्होंने एक थाल लिया और उसे ताजे, सुस्वाद फलों व कंद-मूलों से भर कर साधुओं के सामने प्रस्तुत किया।
‘लीजिये भगवन्। भोजन स्वीकार करें।’ कहते हुये थाल को माता अनसूइया ने त्रिदेवों के समक्ष रख दिया। पर यह क्या, तीनों में से किसी भी देव ने कुछ छुआ भी नहीं। थोड़ी देर तक तो माता अनसूइया चुपचाप देखती रहीं पर थोड़ी देर बाद पूछ बैठी, ‘हे महाराज! क्या मुझ से कोई भूल हो गई है जो आप ये भोजन स्वीकार नहीं कर रहे हैं? क्या मुझ से कोई अपराध हो गया है जिस कारण से आप मेरा आतिथ्य स्वीकार नहीं कर रहे हैं?’
तीनों देवों ने एक दूसरे की तरफ देखा व फिर उनमें से एक बोले, ‘माता यदि आप रुष्ट न होने का वचन दें तो आपसे एक निवेदन है। हम तब ही अपनी इच्छा को आपके सामने स्पष्ट कर पायेंगें।’ माता अनसूया बोली, ‘बताइये महाराज क्या बात है? मैं आप लोगों को वचन देती हूं कि मैं आप लोगों से नाराज नहीं होऊंगी’।
माता अनसूया के वचनों को सुनकर त्रिदेव बोले, ‘माता हम भोजन तब ही स्वीकार करेंगे जब आप हमें निर्वस्त्र हो कर भोजन करायेंगी।’ साधुओं के मुख से ऐसी बातों को सुनकर माता अनसूइया आश्चर्यचकित रह गईं। उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि कोई उनसे ऐसा वचन मांग लेगा। अब तो वो धर्म संकट में फंस गईं। यदि भोजन न करायें तो साधुओं का निरादर होगा और यदि करायें तो उनका पतिव्रता व्रत भंग हो जायेगा। जब उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझा तो अन्त में उन्होंने ध्यान लगाया और पाया कि ये तीनों साधु कोई अन्य नहीं स्वयं जगत वन्दनीय त्रिदेव हैं और वह वहां पर उनकी परीक्षा लेने आये हुये हैं।
सारा रहस्य जानने के बाद माता अनसूईया उन साधुओं के समक्ष पहुंची और कहने लगी कि उनकी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी। फिर उन्होंने तत्काल कहा, ‘यदि मैंने मन, वचन व कर्म से पूर्णरुप से पतिव्रता धर्म का पालन किया है तो ये तीनों अभी छः मास के शिशु बन जायें।’ इधर माता अनसूया के वचन पूर्ण हुये और उधर त्रिदेव छः मास के शिशुओं में परिवर्तित हो गये। तब माता अनसूइया ने उन्हें पालने में लिटा दिया और अपना दुग्ध पान करवाया।
थोड़ी देर बाद जब महर्षि अत्रि वहां लौटे तो पालने में रखे हुये शिशुओं को देख कर पूछा, ‘ये किसके बालक हैं?’ इस पर माता अनसूया ने कहा कि क्योंकि उन्होंने इन शिशुओं को अपना दुग्ध पान करवाया है, इसलिये ये तीनों शिशु उनके ही पुत्र हैं। कई दिनों तक ये तीनों बालक के ही रूप में माता अनसूइया के पास रहें। माता अनसूया नित्य इनका पूर्ण ख्याल रखतीं व अपने पुत्रों की तरह ही लालन पालन करतीं। पर उधर तीनों लोक में अपने-अपने अधिपति के न होने के कारण हाहाकार मचने लगा। साथ ही साथ तीनों देवियों भी चिन्तित होने लगीं कि अभी तक उनके पति वापस क्यों नहीं आये।
नारद मुनि पुनः माताओं के पास पहुंचे और उन्हें सारा वृतान्त कह सुनाया कि किस प्रकार माता अनसूइया ने उनके पतियों को शिशु रूप में परिवर्तित कर दिया है और उन्हें अपने पुत्रों की तरह पाल रहीं हैं। अब तो तीनों ही देवियां सीधे महर्षि अत्रि के आश्रम जा पहुंची। वहां उन्होंने तीन शिशुओं को पालने में पाया। माता अनसूइया ने उनसे उनका परिचय पूछा तो उन्होंने अपने बारे में बताया व क्षमा याचना करने लगी। उन्होंने प्रार्थना की कि उनके पतियों को वो वापस कर दें।
जाओ तुम्हारे पति उन पालनों में पडे़ हैं, अपने अपने पतियों को लो और अपने अपने लोक लौट जाओ। उनके वचनों को सुनकर तीनों देवियां अत्यन्त ही प्रसन्न होकर पालनों की ओर दौड़ पड़ी। पर यह क्या, तीनों ही शिशु तो देखने में एक समान ही थे, इनमें से कौन किस का पति है यह तो जानना संभव ही नहीं था! अब तो देवियों का रोना छूट पड़ा। वे तीनों माता अनसूइया के चरणों में जा गिरी और अपने किये के लिये क्षमा याचना मांगने लगीं।
उनके वचनों को सुनकर माता अनसूइया ने कहा कि क्योंकि तुम मेरे पुत्रों की पत्नियां हो, इस कारण से तुम मेरी पुत्रवधू हुई। उन्होंने मंदाकिनी का जल लेकर तीनों पर छिड़का और तत्क्षण तीनों देव अपने वास्तविक रूप में आ गये। तीनों देवियां अपने अपने पतियों को वापस पाकर अत्यन्त प्रसन्नचित्त हो गईं। तीनों देवों ने प्रसन्न होकर माता अनसूइया से वरदान मांगने को कहा। उनके वचनों को सुनकर माता अनसूइया ने कहा कि मैं आप तीनों को अपने पुत्र के रूप में प्राप्त करना चाहती हूं।
त्रिदेव तथास्तु कह कर अपने-अपने लोक को चले गये। कालान्तर में माता अनसूइया के तीन पुत्रों- चंद्रमा, दत्तात्रेय व दुर्वासा (जो कि तीनों के अवतार थे) के रुप में अवतरित हुये। माता अनसूइया के यह वचन स्मरणीय हैं, ‘हर मनुष्य को अपने जीवन में श्रेष्ठता प्राप्त करने के लिये साधना आराधना करनी ही चाहिये। पितृदोष आदि की मुक्ति के लिये श्राद्धकर्म को करना चाहिये जिससे पितृ संतुष्ट हों। उसे पूजा, हवनादि कार्यों को अपने जीवन में उच्च स्थान देना चाहिये। पर यदि कोई स्त्री मात्र अपने मन-वचन-कर्म से पूर्णता के साथ पतिव्रता धर्म का पालन करती है तो उसे किसी भी प्रकार के साधना-उपासना-व्रत की आवश्यकता नहीं होती। उसे अपने पति द्वारा किये गये पुण्य कार्यों का आधा भाग स्वतः ही प्राप्त हो जाता है।’ वास्तव में ही यह भारतवर्ष की भूमि अत्यन्त ही सौभाग्यशाली है जिस पर इतने श्रेष्ठ व्यक्तित्व आये और मानव जीवन के लिये आदर्श बने।
विजय का तात्पर्य यह नही है कि आप अपने बल से वर्चस्व कायम करें, विजय का तात्पर्य तो यह है कि प्रत्येक क्षेत्र में श्रेष्ठ सफ़लता को अपने कदमों से रौंदते हुये पूर्णता की अंतिम सीमा तक कार्य करना जहां सफ़लता भी आपके सामने घुटने टेक दें। शिव पुत्र कार्तिकेय के समान जीवन निर्माण व जीवन युद्ध में विजयश्री हेतु 26-27 अक्टूबर को कार्तिकेय विजयश्री प्राप्ति शरद पूर्णिमा साधना महोत्सव बसना महासमुन्द (छ-ग) में सम्पन्न होगा। जिससे साधक जीवन के प्रत्येक युद्ध में एक पराक्रमी योद्धा की भांति अपने परिवार का पालन-पोषण कर सकेगा। साथ ही अपने सभी विषय- विकार, धनहीनता, अकर्मण्यता, नपुंसकता पर विजय प्राप्त कर पूर्ण पुरूषार्थ को प्राप्त कर सकेगा।
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