भृर्तहरि ने श्लोक के माध्यम से अपना चिंतन स्पष्ट किया है कि मेरे भाग्य में तो विधाता ने बाधाएं, परेशानियां, अड़चनों की लकीरें ही लिखी हैं जिनको मैं निरंतर पढ़ता जा रहा हूं। मगर जीवन का सौभाग्य हो कि कोई ऐसा दिन आए जिन क्षणों में मैं पूर्ण तन्मय होकर अपनी देह को पूर्ण रूप से भुलाकर अपने गुरू के चरणों में पूर्ण रूप से समर्पित होता हुआ, उस आनंद को नृत्य के साथ प्राप्त कर सकूं, जहां पर सारे बंधन समाप्त हो जाते हैं। जहां पर सारे व्यामोह समाप्त हो जाते हैं, जहां पर एक आनंद का प्रवाह, एक मस्ती का प्रवाह बहता है, जब मेरे सामने गुरू उपस्थित हों, मैं उनकी वाणी को निरंतर सुनता हुआ उस अमृत का निरंतर पान करता रहूं और साधना की उस स्थिति तक पहुंचूं जिसे अखंड समाधि कहा है और जब वह क्षण मेरे जीवन मे आएगा, मेरे जीवन को एक जगमगाहट, एक रोशनी, एक प्रकाश देगा।
और मैं भी भृतहरि के शब्दों के साथ आपको आशीर्वाद देता हूं कि आपके जीवन में वह क्षण तुरंत आए जिससे जीवन प्रकाश वान हो सके, जगमगाहट से भर सके और संपूर्णता का बोधक हो सके। मेरे शब्द आप तक पहुंचने के लिए माइक की या किसी और साधन की जरूरत नहीं है। आप तक बात पहुंचने के लिए मेरे हृदय के तार झनझनाने चाहिए और उस संगीत को आप अपने हृदय के माध्यम से सुन सकें, अपने प्राणों के माध्यम से अनुभव कर सकें और अपने जीवन की पूर्णता को प्राप्त कर सकें जो कि जीवन का एक आनंददायक क्षण है। आज शिवरात्रि का पर्व है, और इस शिवरात्रि के पर्व पर मैं आपसे कहना चाहूंगा कि समाज का जहर पीना अत्यंत दुःख दायक होता है क्योंकि समाज निरंतर अपने व्यंग्य बाणों से अपनी कटुक्तियों से और अपने जले शब्दो से आदमी को और साधक को जहर देता ही रहता है और जहर की स्वाभाविक परिणति मृत्यु है। परंतु कुछ विशिष्ट साधक ऐसे होते हैं, जो उस जहर को अपने कंठ में उतार कर रख लेते हैं और वह जहर भी अपने आप में अमृतमय बन जाता है।
यदि समाज में जहर नहीं हो तो अमृत का आनंद भी अनुभव नहीं हो सकेगा। अमृत का आनंद तभी अनुभव हो सकता है जब हम जहर को अनुभव कर सकें। छाया का अनुभव तब होगा जब हम धूप को अनुभव कर सकें। जब धूप में गर्मी में तपते हुए हम चलते हैं और छाया मिलती है तो एहसास होता है कि धूप क्या चीज है, छाया क्या चीज है। सड़ी गली व्यवस्थाओं में समाज अपने छोटे-छोटे कटघरों में कैद हो गया है, उनके पास कोई नवीन ध्यान, कोई नवीन चिंतन, कोई नवीन धारणा नहीं है। उनके पास या तो गीता की पोथी है, या पुराण है, या वेद शास्त्र है बस और उनको समेटते हुए वह एक जगह रूक गया है। नवीनतम प्रवाह उनके पास नहीं है और जो नदी बहती नहीं है या रूक जाती है, उसका पानी गंदला हो जाता है, सड़ जाता है, उसमें निर्मलता नहीं रह पाती।
समाज का जहर केवल तुम ही नहीं पी रहे हो। समाज का जहर मैंने तुमसे सौ गुना ज्यादा पिया है। पिया है और अनुभव किया है। और समाज जब मुझे जरूरत से ज्यादा जहर दे देता है तो मैं इस बात का एहसास करने लग जाता हूं कि अब मेरे शब्दों में कुछ और पैनापन आया है, कुछ और धारदार शब्द बने हैं जो उन पर सीधा हमला करे रहें हैं, जो उनको झकझोर रहें हैं। और जब झकझोरा जाता है आदमी को तो वह गाली देता है, तब वहां जली कटी सुनाता है, तब बीच में बाधा बनकर खड़ा हो जाता है उन बाधाओं के बीच साधक नहीं रूक सकता। आपके रूकने के लिए वह कोई स्थान नहीं है क्योंकि इस समाज ने तो सैकड़ों लोगो को रोका है।
इस वाराणसी में संन्यस्त जीवन में, इसी वाराणसी के मंच पर जब मैं साधना की बारीकियों को और वेद मंत्रों को स्पष्ट कर रहा था, मैं उद्बोधन कर रहा था कि मंत्र अपने आप में घोषमय हैं और अगर मंत्र हैं तो उनका प्रभाव होना चाहिए। यदि हम सूर्य का आवाह्न एक आसन पर करें तो यह कपड़ा जलना चाहिए, सूर्य की आंच महसूस होनी चाहिए। और यदि आंच नहीं है तो सूर्य यहां उपस्थित नहीं है और अगर सूर्य उपस्थित नहीं हुआ तो फिर आपके मंत्र गलत हैं। और यदि हम नवग्रह को स्थापित करते हैं तो सूर्य का आवाहान कर उसे बिठाते हैं तो अगर वहां ऊंगली लगाने पर ऊंगली झुलसती नहीं तो फिर सूर्य उपस्थित नहीं है और अगर उपस्थित नहीं है तो मंत्र में कहीं न कहीं गलती है या मंत्र में त्रुटि है या बोलने वाले में त्रुटि है।
मगर मेरे ये शब्द बहुत धारदार थे, पैने थें कडवे थे जिन्हें गले में उतारना बहुत डिफिकल्ट था, कठिन था और यहां के उन विद्वानों ने लाठियों से प्रहार करके मुझे शायद सौ डेढ़ सौ तो लाठियां मारी होंगी कम से कम और जब बेहोश हो गया तो गंगा के किनारे फेंक दिया, आधा शरीर पानी में था, आधा शरीर किनारे पर था। मगर दूसरे दिन मैं वापस उसी मंच पर खड़ा था। क्योंकि जीवन में दृढता नहीं है, निश्चय नहीं है, दो टूक कहने की क्षमता नही है तो फिर जीवन का कोई अर्थ, कोई मूल्य नही है। और मैंने कहा – लाठियों के प्रहार से शरीर को तोड़ा जा सकता है, मेरी आत्मा को, मेरी भावना को तुम नहीं तोड़ सकते, मेरे शब्दों को तुम नहीं तोड़ सके। जो मैं कह रहा हूं वह सत्य है, कड़वा तो जरूर है, कड़वा तो इसलिए है कि मैं सत्य बात कहने की क्षमता रखता हूं, चापलूसी नहीं कर सकता और यदि प्रभु को इस शरीर को नही रखना है तो एक बार और लाठियां पड़ जाएंगी और यह चला जाएगा। इस बात का मुझे कोई गम नहीं है। प्रभु को शरीर से अगर काम लेना है तो अवश्य मुझे जीवित रखेगा।
सत्य और स्पष्ट बात गले उतारना बहुत कठिन होता है। मगर जो उतार लेते हैं वे शिवमय बन जाते हैं, वे शिव होते है, वे छोटे-मोटे देवता नहीं बनते, देवता ही नहीं बनते महादेव बन जाते हैं जो देवताओं के भी देवता होते हैं, जो अपने कंठ में उस जहर को रख देते हैं, और अमृतमय बना देते हैं। और आपको भी जीवन में ऐसा ही विष पीने की क्षमता प्राप्त हो क्योंकि यह जहर तो तुम्हें समाज से प्राप्त होगा ही। तुममें उस जहर को पीने की ताकत नहीं है तो तुम साधक नहीं बन सकतें। यदि उसे धारण कर तुम जीवित नही रह सकते, यदि उन आलोचानाओं से घबरा जाते हो, विचलित हो जाते हो तो मेरे शिष्य बनने की क्षमता तुममें नहीं है। तुमने शायद वह कड़वाहट नहीं देखी होगी, वे गालियां नही देखी होंगी, वे पत्थरों के ढोंके नहीं खाए होंगे जो तुम्हारे गुरू ने खाए हैं। आज भी और आज से पांच हजार साल पहले भी, आज से दस हजार साल पहले भी। तुम इतनी दूर तक नही देख सकते। आज से दस हजार साल पहले जाकर तुम्हारी दृष्टि नहीं देख सकती, पर मेरी दृष्टि देख सकती है क्योंकि मैंने उस जीवन को देखा है, उस जीवन को अनुभव किया है।
साधना का जो रास्ता है क्षमतावान रास्ता है उसके लिए पौरूष चाहिए, अपने आप में क्षमता होनी चाहिए, समर्पण भावना पूर्ण रूप से आनी चाहिए। आप में वह क्षमता आने लगी है और मुझे इस बात की प्रसन्नता होने लगी है। गुरू की विशेषता इस बात में होती है कि वह चाहता है सब कुछ अपने शिष्य में उतार दें, पूर्ण रूप से दे दे। मगर उतारने के लिए आवश्यक है कि समाज के सामने दृढ़ता के साथ खडे़ होने की हिम्मत भी हो। साधना करना कोई बाजार में आटा दाल लाने जैसी बात नहीं है। साधना के लिए अत्यंत पैनापन होना चाहिए, धारदार व्यक्तित्व होना चाहिए। और जैसा मैंने पहले कहा कि जब मेरी ज्यादा आलोचना होने लग जाती है, ज्यादा गालियां मिलने लग जाती हैं तो मुझे प्रसन्नता होती है कि मेरे शब्दों में पहले से ज्यादा ताकत आई है। पहले से ज्यादा झकझोरने की ताकत आई है। भगवान विश्वनाथ की इस नगरी में हम एकत्रित हुए हैं तो यह बहुत बड़ा सौभाग्य है। काशी किसी व्यक्ति विशेष की नगरी नही है काशी भगवान शिव के त्रिशूल पर टंगी एक ऐसी नगरी है जिसके ऊपर अत्यंत सामान्य व्यक्ति रहते हैं और इस काशी कि नीचे जो दूसरी काशी है वह अपने आप में सिद्धों की काशी है, संन्यासियों की काशी है, योगियों की काशी है और जिस प्रकार ऊपर हलचल है ठीक उसी प्रकार से काशी के नीचे भी काशी है। उस काशी को देखना जीवन का एक महत्वपूर्ण आनंद है और जब आप उस काशी को देखेंगे, तो एहसास करेंगे कि साधनात्मक जीवन क्या है, तब एहसास होगा कि शिव के त्रिशूल पर टंगी काशी का महत्व और मूल्य क्या है।
मगर भगवान शिव की नगरी में आने से ही साधनाओं में सिद्धियां नही मिल जातीं। पुष्पदंत ने पूछा भगवान शिव से कि पूर्वतां पूर्ण सदैव रूपं। आप किस प्रकार से मुझे प्राप्त हो सकते है? तो भगवान शिव ने कहा कि केवल मात्र समर्पण के माध्यम से।
यंत्र और मंत्र, तंत्र योग, मीमांसा और दर्शन के माध्यम से मुझको समेटा नहीं जा सकता। जब तक हम मन पर नियंत्रण न करें तब तक मंत्र बन ही नही सकता। मंत्र का तात्पर्य है कि मन पर पूर्ण नियंत्रण करके हम कुछ उच्चरित करें और मन पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि हम पूर्ण रूप से समर्पण करें। यह तो आपमें क्षमता हों कि आप भगवान विश्वनाथ को अपने सामने उपस्थित करें आप उस काशी में जा सकें जिसकी मैं चर्चा कर रहा हूं या फिर आप अपना हाथ सामने वाले के हाथ में सौंप दें कि वह आपको वहां ले जा सके, वह आपको दिखा सके, अनुभव करा सके।
और निखिलेश्वरानंद कोई दो साल, चार साल, छः साल से आपके साथ नहीं हैं वह तो कई-कई जन्मों से, कई वर्षो से आपके साथ है क्योंकि अब समय, वह क्षण आ गया है कि व्यामोह और मूढ़ता के बीच उस ज्ञान की चिंगारी को प्रकाशित किया जाए। आपमें शिष्यत्व तो है, आपने दीक्षा तो ली है मगर शिष्य की जो समर्पण भावना होनी चाहिए, गुरू में डूबने की क्रिया होनी चाहिए उसका अभाव है और अभाव इसलिए है कि आपमें कई-कई पीढि़यों को वह रक्त है जो बहुत चालाक, धूर्त और सावधान है। उसमें आपका कोई दोष नहीं है। आपका जन्म अपने आप में कोई विशेष घटना नहीं है। आपका जन्म एक संयोग है कि आपने जन्म ले लिया। मगर जन्म लेने के बाद आपने जीवन में क्या महत्ता प्राप्त की वह जीवन की विशेषता है। उस विशेषता को प्राप्त करने का केवल मात्र एक रास्ता है उसे साधना कहा जाता है और साधना पूर्ण रूप से गुरू में समाहित होना हैं।
यदि मुझे भगवान शिव के दर्शन प्राप्त करने है और यदि शिवत्व को अनुभव करना है तो गुरू के बताए पथ पर चलकर ही हम उन्हे प्राप्त कर सकते हैं। आपने भगवान शिव को देखा नहीं है। आपने देखा है केवल चित्रों के माध्यम से और साधना पूर्ण रूप से गुरू में समाहित होना हैं। यदि मुझे भगवान शिव के दर्शन प्राप्त करने है और यदि शिवत्व को अनुभव करना है तो गुरू के बताए पथ पर चलकर ही हम उन्हे प्राप्त कर सकते हैं। आपने भगवान शिव को देखा नहीं है। आपने देखा है केवल चित्रों के माध्यम से और यह आवश्यक नहीं है जो चित्र मे भगवान शिव का स्वरूप है वही प्रामाणिक हो। वह चित्रकार की एक कल्पना है।
और आपने देखा नहीं है तो आपके सामने भगवान शिव उपस्थित भी हो जाएंगे तो आप उनसे परिचित नही हो पाएंगे। क्योंकि आपके सामने तो भगवान शिव का एक ऐसा स्वरूप है जो बिल्कुल नंग धंड़ग है, लंगोट लगाए है, और गले में सर्प लिपटे हैं अगर ऐसा है तो शिव हैं, अगर ऐसा नहीं है तो शिव नहीं है। यह कोई आवश्यक नहीं है कि भगवान शिव हरदम सर्प लपेटे ही आपके सामने हों। इसलिए अगर भगवान शिव आपके सामने साक्षात् उपस्थित हो भी जायेंगे तो आप उनके विग्रह को पहचान नहीं सकेंगे। मगर आप गुरू को पहचानते हैं गुरू को अच्छी तरह जानते हैं, उनके साथ आपने कुछ क्षण बिताएं है आपका उनका प्राणों का संबंध है और गुरू शिव को जानता है। वह शिव से परिचित है शिव भी उससे परिचित है। इसलिए आप गुरू के माध्यम से शिव तक पहुंच सकते हैं। अर्जुन ने पूछा कृष्ण से कि इस महान महाभारत के युद्ध को जीतने के लिए मुझे क्या करना पड़ेगा ?
और महाभारत का युद्ध केवल द्वापर युग में ही नहीं था महाभारत तो आपके हृदय में, आपके चित्त मे हर क्षण चल रहा है। निरंतर आपके चित्त में दुर्गुण रूपी कौरव हैं और सगुण रूपी पांडव हैं और निरंतर उनमें युद्ध होता रहता है। कभी कौरव हार जाते हैं, कभी पांडव हार जाते है आप का चित्त युद्ध स्थली है, और चौबीसो घंटे युद्ध होता ही रहता है। उस युद्ध के माध्यम से निरंतर तनाव, कष्ट, पीड़ाएं भोग रहे है। गांडीव को नीचे रखकर उस हारे हुए, थके हुए, अर्जुन ने पूछा – मैं इस महाभारत युद्ध को कैसे जीत पाऊंगा? तो श्री कृष्ण ने कहा – उसके लिए तुम्हें पूर्ण रूप से समर्पित होना पड़ेगा, पूर्ण रूप से शिष्य होना पड़ेगा, पूर्ण रूप से डूबने की क्रिया करनी पड़ेगी। अर्जुन ने पूछा – मैं किस तरह ऐसा करूं? क्या करूं मुझे तो डूबने की क्रिया नहीं आती हैं। मुझे समर्पण की भावना नहीं आती है, मुझे इतना ज्ञान और चिंतन नहीं है।
तो कृष्ण कह रहे हैं – तुम्हें ज्ञान और चिंतन नहीं है तो तुम उस भगवान पाशुपत् का प्रयोग करके भी पाशुपतास्त्रेय को नहीं प्राप्त कर सकोगे। क्योंकि तुम शिव को जानते ही नहीं हो। अगर तुम्हारे सामने उपस्थित होंगे भी तो नहीं जान पाओगे और तुमने आपने जीवन में शिव को देखा नहीं है। परंतु तुमने मुझे देखा है, अर्जुन तू मुझे जानता है, मगर तुम मुझे जानते हो केवल सारथी के रूप में क्योंकि मैं पीला पीताम्बर पहन कर घोड़ो को संभाल कर बैठ गया हूं। तु मुझे सारथी समझ रहा है ज्यादा से ज्यादा तू मुझे मित्र समझ रहा है। मगर इस मित्रता के आवरण को हटाकर जब तुम्हारी पैनी दृष्टि होगी तो तुम मेरे वास्तविक स्वरूप को देख सकोगे। और अर्जुन को दीक्षा दी कृष्ण ने, शिष्यत्व दिया, साधना का पथ बताया। अर्जुन को साधना की वजह से पाशुपतास्त्रेय प्राप्त नहीं हो पाया, वह कृष्ण की साधना के माध्यम से उस अनुभूति को उस पाशुपतास्त्र को प्राप्त कर सका।
इसलिए जरूरी है कि हम अपने जीवन के इस महाभारत के युद्ध को जीत सकें।, हमारे जीवन की कोई बाधाएं हमें परास्त न कर सके और बाधाएं तो सैकड़ो हैं। पत्नी की बाधा है, धन की बाधा हैं, व्यापार की बाधा है, समस्याएं हैं कठिनाइयां है। इसके अलावा हमारे पास पूंजी कुछ नहीं है। और इसी प्रकार हम जीवन के संघर्षो से जूझते रहें तो तुम जीवन का आनंद अनुभव नहीं कर सकोगे। एक क्षण विशेष में आप नृत्यमय तो होते हैं मगर फिर वापस उन चिंताओं में घिर जाते हैं और फिर आवाज देता हूं तो तुम दौड़ कर आते हो। फिर मैं तुम्हे गतिशील करता हूं, पांवों मे गति देता हूं,हाथ में एक चंचलता देता हूं, तुम फिर नृत्यशील तो बनते हो, पर वह कुछ क्षण ही होता है क्योंकि तुम्हारा जीवन बेजान है, उसमें ताकत क्षमता नहीं है, चेतना नहीं है।
कोई मरे हुए को ही मुर्दा नहीं कहते हैं। जो अपने मन से हार गया है, जो समाज से हार गया है, जो जीवन से टूट गया है, वह भी मुर्दा है। मगर वह ऐसा मुर्दा है जो अपनी लाश अपने कंधे पर उठाकर श्मशान की और गतिशील है। शायद तुम ऐसे ही हो क्योंकि तुम्हे अपने आपका बोध नहीं है। कुछ क्षणों के लिए मैं तुम्हारी लाश को तुम्हारे कंधे से उतारता हूं और बताता हूं कि तुम्हारा जीवन ऐसा नहीं है जिस पर तुम गतिशील हो रहे हो। मृत्योर्माअमृत गमय! इस मृत्यु के रास्ते को छोड़ कर तुम्हें अमृत्यु के रास्ते पर बढ़ना है। और उस अमृत के रास्ते पर बढ़ना है। और उस अमृत के रास्ते पर जब तुम चलोगे, जिस क्षण तुम उस पगडंडी पर पांव रखोगे उस क्षण तुम मुझे पहचान सकोगे। उस समय तुम पहचान सकोगे कि सामने धोती पहने एक साधारण व्यक्तित्व नहीं है, यह कुछ और अधिक है। जिस दिन तुम उस कुछ और अधिक को पहचान लोगे तुम्हें साधना में पूर्णता प्राप्त हो जाएगी।
जब यशोदा ने कृष्ण को माटी खाते हुए देखा और डांटा, छड़ी लगाई और कान पकड़ कर कहा – तू क्या कर रहा है? मिट्टी खा रहा है? मिट्टी से बहुत नुकसान हो जाएगा। मुंह खोल! और कृष्ण मुंह खोलता है तो यशोदा को पूरा ब्रह्माण्ड दिखाई देता है तो हाथ जोड़ कर खड़ी हो जाती है। वह भूल जाती है कि मेरा लड़का है। वह जिसे कृष्ण कहते हैं उसके आगे हाथ जोड़ कर खड़ी हो जाती है। कृष्ण ने सोचा- यह बहुत गड़बड़ हो गया। यह तो मातृत्व खत्म हो जाएगा। जो लीला करनी वह सब समाप्त हो जाएगी? जो आनंद की अनुभूति मां बेटे के बीच में होती है वह समाप्त हो जाएगी। और कृष्ण कहते हैं – तू तो मेरी मां है तू समझती नहीं है, देख मिट्टी कहां है, और यशोदा वापस उनकी माया में आबद्ध हो जाती हैं, यह खेल तो कई बार खेला गया है, कोई पहली बार नहीं। जहां भी तुम साधनाओं में थोड़ा सफल होते हो तो माया फैलानी पड़ती है और माया फैलाते ही तुम सोचते हो ये कह तो रहें हैं मगर ऐसा हो नहीं सकता। ऐसा कैसे हो सकता है, ये शिव के स्वरूप कैसे हो सकते हैं, ये तो कभी-कभी उदास भी हो जाते हैं। अगर ऐसा मैं न करूं, माया न फैलाऊं तो हजारों-हजारों शिष्य मुझे तोड़-ताड़ के खा लेंगे। शिष्य गुरू के बीच भी कई बार माया के आवरण को रखना पड़ता है। मगर जो इस आवरण को भेद आगे बढ़ जाते हैं वे जीवन में पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं।
मैं बार-बार तुम्हें संकेत दे रहा हूं। संकेत देना मेरी नियति है, मेरी आवश्यकता बन गई है। मैं कह रहा हूं उसके पीछे कोई अर्थ है, गुण है, चेतना है। समय से पहले मैं कोई शब्द मुंह से नहीं निकालता हूं। मैं काल को पहचानता हूं ओर काल के साथ अपने शब्दों को आपके सामने रखता हूं। मैं जानता हूं मुझे कब क्या और कितना बोलना है। उतना ही बोलता हूं जितना तुम्हें सतर्क-सावधान करने की जरूरत है। इसमें मेरी कोई अहमन्यता नहीं है, घमण्ड और गर्व नहीं है। तुम मेरे पुत्र हो, मेरे आत्मीय हो, मेरे प्राणों के अंश हो। अपने प्राणों के अंश के सामने सत्य बोलने में कोई संकोच नही है असत्य का आसरा मैं लेता भी नहीं हूं। जब अर्जुन नहीं समझा तो कृष्ण को अपना विराट स्वरूप दिखाना ही पड़ा और कहना पड़ा तुम देखो मुझे। जिस क्षण तुम मुझे पहचान लोगे, उस क्षण तुम युद्ध में विजयी हो जाओगे। उस युद्ध को जीतने के लिए तुम्हें कुछ करना नहीं है। और मैं भी तुम्हें कह रहा हूं कि समाज के युद्ध को जीतने के लिए और साधना के युद्ध को जीतने के लिए तुम्हें कुछ करना नहीं है। तुम्हे तो केवल गुरू से जुड़ना है, केवल समर्पण की भावना रखनी है, तुम्हें केवल गुरू में लीन हो जाने की क्रिया करनी है।
और यदि गुरू क्षमतावान है तो तुम्हें हाथ पकड़कर ले जाकर उस जगह खड़ा कर देगा जहां तुम्हें खड़ा करना है मगर उसके लिए जरूरी है कि तुम उन प्राणों के साथ स्वयं को जोड़ सको जो गुरू के प्राण हैं। एक एक मानव के प्राणों के साथ अपने संबंध जोड़ने से प्यार शब्द बनता है, प्राणात्मक संबंध नही बन पाता और तुमसे मुझे कोई प्यार करने की जरूरत नहीं है। प्राणात्मक संबंध बनाने की जरूरत है। प्राणो की धड़कन सुनने की जरूरत है। तुम्हारी धड़कन को मैं सुन सकूं और मेरी धड़कन को तुम एहसास कर सको। यह जीवन का एक आवश्यक तत्व और अंग है। इसीलिए तीव्रता के साथ इस युद्ध में, समाज के साथ युद्ध में, तर्क-कुतर्क के युद्ध में जीतने के लिए जरूरी है कि तुम उस पाशुपतास्त्र साधना को सम्पन्न करो जिससे कि तुम्हारे जीवन के सारे अभाव दूर हो सकें। यह जरूरी है क्योंकि जब तुम उन अभावों को दूर कर सकोगे तब साधना के पथ पर तेजी से बढ़ सकोगे। तुम्हारे साथ पत्नी है, पुत्र है, बंधु है, बाधंव है, नौकर है, चाकर है और तुम्हारे जीवन की इच्छाएं और तृष्णाएं हैं और तुम्हारे पास रहें। मगर उनकी पूर्ति करना भी मेरा कर्त्तव्य और धर्म है।
और तुम कितनी कितनी साधनाएं करोगे? लक्ष्मी की साधना करोगे, कुबेर की साधना करोगे, शिव की, ब्रह्म की साधना कितनी करोगे? लक्ष्मी की साधना कितनी करोगे? केवल एक साधना के माध्यम से जीवन में पूर्णता प्राप्त होनी चाहिए और मैं तुम्हे सीधा उसी रास्ते पर गतिशील कर रहा हूं। उस रास्ते पर जहां पूर्णता की ओर बढ़ सकते हैं। उस पाशुपतास्त्र साधना से हम जीवन के युद्ध में पूर्णता से सफलता प्राप्त कर सकते हैं। वह जरूरी है तुम्हारे लिए। वह तुम प्राप्त करोगे तो तुम अपने गुरू को सही ढंग से पहचान सकोगे। तुम सामान्य व्यक्तित्व नहीं हो, केवल तुम्हे अपने आप को एहसास करना पड़ेगा। तुम्हे सोचना पड़ेगा तुम कौन हो?
मैं सोचता हूं कि तुम भी इन संसारी सियारों के बीच बड़े हो करके अपने स्वरूप को भूल गए हो। तुम्हारा मेरा केवल इस जीवन का साथ नहीं। कई जन्मों से मैं तुम्हारे साथ हूं और साफ दो टूक शब्दों में मैं तुम्हे बता देना चाहता हूं कि तुम सियार नहीं हों उन सियारों के बीच जरूर हो और इसलिए तुम अपने आत्म को भूल चुके हो, अपने स्वरूप, चिंतन और विचारों को भूल चुके हो और सियारों के बीच मुझे प्रवचन करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि सियार कभी झपट्टा नहीं मार सकता, हुंकार नही भर सकता। उसमें तरंग नही आ सकती, वह उछल नहीं सकता, नाच नहीं सकता। नाचने के लिए एक क्षमता होनी चाहिए। पृथ्वी से ऊपर उठने की एक क्रिया और भावना होनी चाहिए। यदि तुम में यह क्षमता और भावना है तो तुम सियार नहीं हो। मैं तुम्हें तुम्हारे स्वरूप से परिचित कराने के लिए बैठा हूं। और जिस दिन तुम अपने स्वरूप को भी जान लोगे उस दिन तुम मेरे स्वरूप को भी जान लोगे क्योंकि तुम मेरे ही कुल के हो, मेरे वंश के हो, मेरी ही प्राणों की धड़कन हो और मेरे रक्त के प्रवाह में गतिशील हो।
मगर मैं समझ नहीं पा रहा हूं मैं कितनी बार हुंकार मारूंगा कितनी बार तुम्हें आवाज दूंगा, कितनी बार तुम्हें अपने स्वरूप से परिचित कराने की कोशिश करूंगा। बार-बार तुम जाकर उन सियारों के बीच खड़े हो जाते हो, वहां खड़े होना तुम्हारी नियति हो गई है। वे बार-बार तुम्हें कहेंगे – यह सब गड़बड़ है, तुम शेर के बच्चे नहीं हो, तुम गीदड़ हो। मैं तुम्हारी पत्नी हूं, ये तुम्हारे बच्चे हैं, तुम्हे यहीं इस खोह में रहना है और आंखे बंद करके तुम्हें अपनी जिंदगी व्यतीत करनी है और जैसे तुम्हारे पिताजी मर गए वैसे ही तुम्हे भी मरना है। तुम्हें कमा के लाना है, मुझे खिलाना है, बच्चे बड़े करना है, बच्चे तुम्हे गालियां देगे, तुम्हे बस सुनना है, क्योंकि तुम सियार हो। मेरी ललकार सुनकर तुम कान बंद कर लेते हो कि गुरूजी ने कहा तो था मगर मैं शेर हूं कैसे? ये सब जो मेरे आस-पास भाई बंधु रिश्तेदार हैं इनकी तरह मैं भी गीदड़ हूं। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि मैं अपने गुरूत्व पद का किस तरह निर्वाह करूं। किस प्रकार बार-बार तुम पर प्रहार करूं, किस प्रकार तुम्हें समझाऊं, किस तरह तुम्हें चेतना दूं, किस तरह तुम्हारे हृदय में एक आग भरूं, यह समझ नही पा रहा हूं बार-बार उनके बीच खड़े होकर तुम अपने स्वरूप को क्यों भुला देते हो। ऐसा जीवन कब तक रहेगा। ऐसे कितने जीवन और जीओगे मेरे सामने? कौन सा क्षण आएगा जब तुम इन सबका हाथ झटक कर खड़े हो सकोगे और जीवन की पूर्णता को प्राप्त कर लोगे?
फिर तुम वापस पैदा होगे, वापस मैं तुम्हारे सामने खड़ा होऊंगा, वापस तुम्हें गालियां दूंगा, तुम्हे फटकारूंगा, तुम्हारा हाथ पकडूंगा और तुम वापस उनके बीच जाकर खड़े हो जाओगें आखिर कोई न कोई निर्णय लेना पड़ेगा, कभी न कभी निणर्य लेना ही पड़ेगा, या तो निंरतर उन सियारों के बीच तुम्हे जिंदगी व्यतीत करनी है या फिर शेर बनकर के गर्जना करके, जंगल के राजा बनकर के समाज के बीच खड़े होकर कह सको कि मैं निखिलेश्वरानंद का शिष्य हूं। उस लेबल पर तुम्हें खड़ा होना पड़ेगा। आज की पीढ़ी यह बात समझ नहीं सकेगी और आने वाली पीढि़यां तुम पर और मुझ पर गर्व अवश्य करेंगी।
तुम्हे मंत्र जपने की जरूरत नहीं है, अगर तुम्हें साधना की विधि नहीं आती तो उसकी भी तुम्हें जरूरत नहीं है। अभी तक मैं तुम्हें मंत्र साधना और तंत्र साधना देता रहा हूं। अभी साधनाओं में अग्रसर करता रहा हूं। मगर वह नहीं हो पा रहा है तो तुम्हें समर्पण की भावना की ओर अग्रसर होना पड़ेगा। कोई ने कोई एक चीज तो तुम्हें पकड़नी ही पड़ेगी। इसीलिए आज भगवान शिव की रात्रि के अवसर पर मैं तुम्हे यह ज्ञान दे रहा हूं। भगवान शिव पूर्ण रूप से गृहस्थ हैं। भगवान शिव अपने आप में पूर्णता के प्रतीक हैं जो अपने पास कुछ नहीं रखते हुए भी सम्पूर्ण संपत्ति के मालिक है, कुबेर के भी स्वामी हैं, जिनके अनुचर और सहचर हजारों क्षमता के व्यक्तित्व है, वीर भद्र जैसे गण हैं और जो यम के सामने खड़े हो कर मृत्यु के पंजे से उस मार्कण्डेय को छुड़ा सके।
मर्कण्ड ऋषि ने भगवान शिव की आराधना करके कहा-मेरे पुत्र नहीं है मैं क्या करूं? तो भगवान शिव ने कहा – पुत्र तुम्हें मिल तो सकता है मगर अल्पजीवी होगा, बारह साल की आयु में इसकी मृत्यु है ही। यहां काशी से केवल चालीस किलोमीटर दूर स्थान है मार्कण्डेय, वहां शिवलिंग है जहां मार्कण्डेय ने साधना सम्पन्न की और मृत्यु उसके सामने आकर खड़ी हुई तो उसके पिता मर्कण्ड बहुत घबराए। उसने कहा – मेरा इकलौता पुत्र समाप्त हो जाएगा। तो मार्कण्डेय ने कहा – चंद्रशेखर आश्रय मम किं करिष्यति वै यमः। यम मेरा क्या करेगा? यम कर भी क्या सकता है जब चंद्रशेखर मेरे साथ में हैं। भगवान शिव मेरे साथ हैं। मैं उनके पास बैठा हूं तो मेरे पास कैसे आ सकता है, मृत्यु मेरे साथ कैसे खिलवाड़ कर सकती है? और मैं तुम्हें कहता हूं – जीवन की बाधाएं, परेशानियां तुम्हारा क्या नुकसान कर सकती हैं, मृत्यु तुम्हारा क्या बिगाड़ सकती है। कोई समस्या या कठिनाई तुम्हारा क्या अहित कर सकती है। जब मैं तुम्हारे साथ हूं तो तुम्हे चिंता करने की जरूरत नहीं है।
मैं निरंतर और हर क्षण तुम्हारे साथ हूं, पूर्णता के साथ, आनंद और मस्ती के साथ। मैं तुम्हें आनंद का पाठ पढ़ाने के लिए आया हूं, काव्य का पाठ पढ़ाने के लिए आया हूं, गतिशील करने के लिए आया हूं, तुम्हें जीवन का उत्थापन करने की क्रिया बताने आया हूं। तुम्हें साधनाओं की पृष्ठभूमि समझाने आया हूं जिसके माध्यम से तुम भगवान शिव के साक्षात दर्शन कर सको चाहे भगवान शिव हों, ब्रह्मा हों, विष्णु हों, इन्द्र हों या कोई भी देवता हो वे एक साधक के ऊंचाई पर खड़े नहीं हो सकते। यदि आपमे तेजस्विता है, यदि आपमें पूर्णता है तो! यदि आपमें क्षमता है तो आप अवश्य गुरू से पाशुपतास्त्र साधना प्राप्त करेगें और यदि क्षमता है तो अवश्य आप स्वयं अपने सामने उन भगवान शिव को देख सकेंगे और निश्चित रूप से देख सकेंगे।
तुम्हारे और मेरा जो संबंध है उसे तुम ठीक से पहचान लो। और मैं तुम्हें सावधान कर रहा हूं कि जो तुम्हारे आस-पास कौरव सेना है, वह चाहे पति या पत्नी के रूप में है, वह चाहे पुत्र या पिता के रूप में है उसके सामने ताकत और क्षमता के साथ खड़े होने की जरूरत है। इसीलिए मैं तुम्हे वह अस्त्र देना चाहता हूं जिस अस्त्र के माध्यम से उन सारी समस्याओं पर तुम विजय प्राप्त कर सको, लक्ष्मी तुम्हारे सामने खड़ी रह सके। विजय माला तुम्हारे गले में पहना सकें, कुबेर तुम्हारे सामने खड़े हों सकें, भगवान बुद्ध तुम्हारे सामने खड़े हों सकें क्योंकि वह साधना और क्षमता है ही वैसी जो एक तेजस्वी व्यक्तित्व तुम्हें दे सकता है और किसी में देने की क्षमता और हिम्मत भी नहीं है। और अगर हिम्मत और क्षमता होती तो महाभारत काल के बाद सैकड़ों बार यह साधनाएं होतीं। पाशुपतास्त्र साधना पिछले पांच हजार वर्षो में नहीं हो पाईं क्योंकि तेजस्वी व्यक्तित्व के बिना यह संभव ही नहीं है। शंकराचार्य ने स्वयं कहा है-
शंकराचार्य उन शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद अपने गुरू गोविंदपादाचार्य को कह रहे हैं कि इस पाशुपत साधना को सम्पन्न करना चाहता हूं जिसके माध्यम से मैं मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकूं। और गोविंदपादाचार्य ने कहा – उसके लिए जिस क्षमता का तेजस्वी व्यक्तित्व चाहिए वह तेजस्वी व्यक्तित्व मेरे पास नही है। और एक बहुत बड़ी साधना से शंकराचार्य वंचित रह गए तो उन्हें अकाल मृत्यु का सामना करना पड़ा। यह बहुत धारदार साधना है, तेजस्वी साधना है, ताकतवान साधना है। इस साधना को स्वीकार करने में बहुत कठिनाई है, कठोर है। इस के लिए बहुत तेजस्वी क्षमतावान व्यक्तित्व चाहिए। और मैं पांच हजार वर्ष के इतिहास को समेट कर आपके सामने खड़ा कर रहा हूं और यह साधना आपको देने के लिए अग्रसर हूं। और आप यह साधना प्राप्त करेगें तो आप स्वयं अनुभव करेंगे कि यह साधना आपके जीवन को संवार सकेगी, सफलता दे सकेगी और जगमगाहट दे सकेगी।
मैं चाहता हूं कि तुम्हारा मेरा संबंध इतना प्रगाढ़ हो कि तुम घर बैठे मुझे देख सको, मैं अपने चित्त की ओर झाकूं तो तुम मुझे दिखाई दे सको। तुम्हें साधना के माध्यम से गुरू को अपने चित्त में स्थापित करना पड़ेगा। तुम्हारे मेरे बीच मे दूरी संभव नहीं हैं उचित नहीं हैं मैं आपको आपके स्वरूप से भी परिचित कराना चाहता हूं। और आपको जीवन में किस जगह जाकर खड़ा होना है, उस ओर भी अग्रसर करना चाहता हूं और इसीलिए मैं आपको यह साधना देना चाहता हूं जो अपने आप में अद्वितीय है, तेजस्वी है, पूर्णता की ओर अग्रसर करने वाली है और जिस के माध्यम से आप अपने कई-कई जन्मों के पापों और मैल को धो सकोगे और वास्तव मे गुरूत्व के, शिवत्व के दर्शन कर सकोगे। मैं आपको आशीर्वाद देता हूं कि तुम ऐसा कर सको।
जब हृदय में कोई भावना पैदा होती है तो आंतरिक संबंध बनते हैं और जो प्राणों के संबंध होते हैं, उन्हें पनपाने के लिए आंसुओं के पानी से उस पौधे को बड़ा करना पड़ता है और किसी जल से वह पौधा बड़ा नहीं हो सकता। जो कुछ स्नेह तुम्हारा मेरे प्रति है शायद उससे ज्यादा स्नेह और अटैचमैंट मैं आप लोगों के प्रति रखता हूं और बहुत अधिक आप लोगो को प्यार करता हूं। शिवरात्रि पूरा आनंद और मंगल का पर्व है, शिवरात्रि एक दूसरे से जुड़ने की क्रिया का दिन है, और पूरे वर्ष में तीन रात्रि अत्यंत महत्वपूर्ण मानी गई हैं- कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि या लौकिक भाषा में कहूं तो दीपावली की रात्रि, नव रात्रि और शिवरात्रि और लक्ष्मी की साधना दीपावली को ही सम्पन्न होती है, ठीक उसी प्रकार से भगवती जगदंबा की साधना नवरात्रि में सम्पन्न की जाती है। शिवरात्रि में भी रात्रि का ही साधना सम्पन्न कर उन रहस्यों को, सिद्धियों को प्राप्त कर सकते हैं जिनके माध्यम से हम अपने जीवन मे पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं।
हमारे जीवन मे पूर्णता आवश्यक है और इस जीवन की पूर्णता के लिए हमें खुद क्षमता के साथ उन शक्तियों को प्राप्त करने की क्रिया करनी पड़ेगी। और उन शक्तियों को प्राप्त करने के लिए देवताओं ने भी साधनाएं सम्पन्न कीं। द्वापर युग में कौरवों और पाडंवों ने भी साधनाएं सम्पन्न कीं, त्रेता युग में राम हनुमान आदि ने भी साधनाएं सम्पन्न कीं और कलियुग में भी ऋषियों, मुनियों, साधकों ने साधनाएं सम्पन्न कीं। उन शक्तियों को जब तक हम अपने आप में नहीं समटेंगे तब तक जीवन में श्रेष्ठता और अद्वितीयता नहीं हो सकती। हमारे जैसे केवल हम ही हों और हम अपने आप मे पूर्ण हों यह अपने आप में एक तेजस्विता का चिन्ह है और बहुत बिरले लोगों के भाग्य में ऐसा ज्ञान लिखा होता है और ऐसी साधनाओं में बैठने का अवसर प्राप्त होता है और मेरी बात बिल्कुल सत्य है कि सौ करोड़ जनता में से केवल पांच सौ, सात सौ लोगों के भाग्य में ही इस प्रकार की साधना सम्पन्न करने का अवसर लिखा हुआ है। सौ करोड़ बहुत संख्या है और पांच सौ बहुत छोटी संख्या हैं। कोई प्रतिशत इसमें नहीं बैठता। परंतु श्रेष्ठ साधनाओं के लिए भाग्य में कुछ लकीरें लिखी होनी चाहिए। पाशुपतास्त्र साधना भी ऐसी ही साधना है।
मैं स्वयं संन्यस्त जीवन में साधनाओं को सम्पन्न कर रहा था और जब मैं तैयारी कर रहा था सिद्धाश्रम में जाने की तो उसी समय मुझे दो टूक स्पष्ट कह दिया गया कि जब तक पाशुपत साधना सिद्ध नहीं होती तब तक सिद्धाश्रम में पूर्ण रूप से प्रवेश संभव नही है। जब आप उन साधनाओं को सम्पन्न कर उन शक्तियों को प्राप्त करेंगे तो आप एहसास कर सकेंगे कि जीवन का आनंद और मूल्य क्या है। आज आपने जीवन के आनंद और मूल्य के विषय में केवल सुना है अनुभव नहीं किया। सुख तो अनुभव किया है, पुत्र-सुख, पत्नी-सुख, मकान, धन, वैभव सुख तो प्राप्त किया है, आनंद अनुभव नहीं कर पाए। आनंद तो कुछ और होता है कि आप मस्ती में बैठे रहें और शक्तियां आपके सामने नृत्य करती रहें, और आप जिसको जो आज्ञा दें वह कार्य हो। ऐसा सौभाग्य प्राप्त करने के लिए मनुष्य जीवन अनिवार्य है। देवता उन साधनाओं को प्राप्त नहीं कर सकतें। और जब देवताओं को उन शक्तियों को प्राप्त करने की आवश्यकता पड़ी तो उन्हें भी गर्भ से जन्म लेना पड़ा चाहे वे राम हों या कृष्ण हों क्योंकि मनुष्य राक्षस बन सकता है, देवता बन सकता है।
तुम्हारा जीवन इस दृष्टि से भी मूल्यवान है कि यदि तुम सही समय पर सावधान और सतर्क हो कर के अपने पथ पर अग्रसर हो सको और यदि तुम्हें जीवन में ऐसे गुरू मिल सके तो जो तुम्हें इस प्रकार की साधनाएं सम्पन्न कराने के लिए तैयार हों तो उस समय तुम्हे एक क्षण भी विलंब या हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। तुम्हें कसकर के गुरू के पैरों को पकड़ लेना चाहिए, तुम्हें संकल्प शक्ति रखना चाहिए कि मैं अपने जीवन में वह सब कुछ प्राप्त करके देखूंगा जिससे ज्ञान हो कि इस जीवन का मूल्य, मकसद, आनंद क्या है, श्रेष्ठता और प्रामणिकता क्या है। अभी तो तुम समेट नहीं सकते एक लाइट को भी अपनी आंखों में। दो मिनट या एक सौ बीस सैकेण्ड तुम्हारी आंखो के सामने लाइट हो तो तुम्हें आंखें बंद करनी पड़ती हैं। जब तुम पांच सौ वाट की रोशनी को तुम आंखों में नहीं समेट सकेते हो करोड़ो-करोड़ो सूर्य के समान उन शक्तियों को अपनी आंखो में कैसे समेट सकोगे?
उसके लिए तुम्हें उतनी प्राणश्चेतना चाहिए, प्राण चक्षु चाहिए, चेतना का अंगार चाहिए। उसके लिए तुम्हारे शरीर को तैयार करने की जरूरत है। इसलिए मैं आपकेा दीक्षा देता हूं, आपके शरीर को दृढ़ करने की दृष्टि से भी। और तुम्हें साधना भी प्रदान करता हूं जिसके माध्यम से मंत्र जप होता है, जिसके माध्यम से प्राणों को एक देह से संबंध बनता है। प्राणों को जाग्रत करना एक अलग बात हो गई और उसका देह पर उपयोग करना बिल्कुल एक अलग चीज है। देह तो जल सकती है, समाप्त हो सकती है, श्मशान में जा करके प्राण नहीं समाप्त होते, प्राण जलते नहीं है। प्राण फिर कोई नया शरीर प्राप्त करके उसमें जाकर बैठ जाता है। इसलिए प्राणों का देह से संबंध होना भी आवश्यक है। प्राण सुप्त हैं उन्हें जाग्रत करने की जरूरत है और उसका देह गत संबंध बनाने की भी अनिवार्यता है। और पाशुपतास्त्र साधना से यह संभव है। यह साधना कठिन तो है, मगर यदि आपके पास साधन है तो उस कठिनाई पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।
असंभव कुछ नही है। और अंसभव शब्द आपकी डिक्शनेरी में होना भी नही चाहिए। अगर तुममें क्षमता है तो ऐसी कोई चीज है ही नहीं जो तुम प्राप्त नहीं कर सको। और कायर बुजदिल होते हैं वे सोचते हैं यह कैसे होगा, कब होगा किस प्रकार होगा। यह तर्क, कुतर्क तुम्हारे पूरे जीवन को झंझोड़ कर रख देते हैं क्योंकि तर्क तुम्हारी बुद्धि में भ्रम पैदा करता है। वह तुम्हारी आस्था में भ्रम पैदा करता है। मैं विश्वनाथ के दर्शन करने गया था और मेरे साथ दो तीन साधक थे। तो उन्होंने पूछा – बस गुरूजी! इतना सा शिवलिंग।
उनकी नजर में शायद बहुत बड़ा शिवलिंग हो तो भगवान शिव काफी महत्वपूर्ण होंगे और छोटा शिवलिंग है तो महत्वपूर्ण नहीं होंगे। यह तुम्हारी बुद्धि है। अब बहुत बड़ा ही शिवलिंग देखना है तो द्वारिका जाना चाहिए, वहां तो काफी बड़ा शिवलिंग है करीब तीन – साढे़ तीन फुट का है और इससे भी बड़ा देखना है तो श्री शैल पर्वत पर जाइए वहां ग्यारह फिट का शिवलिंग है। शिवलिंग छोटे और बड़े नहीं होते। तुम्हारी बुद्धि हमेशा भ्रम पैदा करती है और भ्रम जीवन को समाप्त कर देता है और पग-पग पर भ्रम पैदा होते हैं क्योंकि तुम्हारे पास पूंजी वही है। इसके अलावा तुम्हारे पास खर्च करने के लिए कुछ नहीं है। और जो कुछ तुम्हारे पास है वही तुम मुझे दे सकते हो। अब तुम सोचोगे – यह गुरूजी ने मंत्र दिया। इसको बोलने से पाशुपत प्रयोग हो गया क्या? हम सिद्ध बन पायेंगे क्या? कैसे होगा सिद्ध? अब क्या फर्क हो गया?
तुम्हारे घर में पच्चीस हजार, पचास हजार रूपये हैं तो उससे क्या हो गया, तुम्हारी जेब में तो नहीं है। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि तुम पचास हजार के मालिक नही हो। और यह अपने आप में एहसास है, क्षमता है, जरूरत पड़े तो तुम पचास हजार खर्च कर सकते हो, उसका उपयोग कर सकते हो, उसके माध्यम जो विनिमय हो सकता है वह कर सकते हो, मगर उससे तुम्हारे स्वास्थ्य में, चिंतन में, आखों में, शरीर में कोई अतंर नहीं आएगा। शास्त्रों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि बुद्धि पूरे जीवन को तहस नहस कर डालती है। बुद्धि के माध्यम से निर्णय लिया जाता है कि मुझे यह कार्य करना चाहिए या नहीं करना चाहिए बस उसके बाद तो श्रद्धा का प्रारंभ हो जाता है और जब श्रद्धा होती है तब ज्ञान प्राप्त होता है।
‘श्रद्वावान लभते ज्ञानं’ और जब ज्ञान प्राप्त होती है तो पूर्णता प्राप्त होती है। मैं समझता हूं पाशुपत साधना जीवन की महत्वपूर्ण साधना है और जैसा मैंने पहले बताया, पिछले पांच हजार वर्षो में पहली बार पाशुपतास्त्र साधना को स्पष्ट किया जा रहा है। ऐसा कह कर मैं कोई अहमन्ता नहीं स्पष्ट कर रहा था। अहमन्यता स्पष्ट करनी होती तो मैं अखबारो में छपवाता, इंटरव्यू देता। उसके माध्यम से केवल पांच सौ लोगों की अपेक्षा पचास हजार लोगों को पढ़ा सकता था। परंतु वह मेरे जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है। हां सत्य है तो उसे कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं है उस पाशुपतास्त्र साधना से एक हजार आंखे जाग्रत होती है। शरीर में यों तो दो आंखे होती है मगर मनुष्य के शरीर को सहस्त्राक्षी कहा गया है एक हजार आंखे जाग्रत हों तो तुम उस दिव्य स्वरूप को देख सकोगे। और सहस्त्र या एक हजार कान हों तो उस दिव्य मंत्र को अपने शरीर में समावेश कर सकोगे। दो आंखो से और दो कानों से न दिव्यता को देखा जा सकता है न सुना जा सकता है।
मगर यह सहस्त्राक्षी कैसे बने? पाशुपतास्त्र साधना वही क्रिया है। मैंने कहा तुम्हारी देह का संबंध प्राणों से होना चाहिए क्योंकि एक या दो आंखो से तुम वह दिव्यता नहीं देख सकते, उससे तो केवल एक स्थूल चीज देख सकते हो। और स्थूल भी तुम ठीक से नहीं देख सकते। तुम्हारी आंखे तुम्हारी कोई सहायता नहीं करती है। देखने की क्रिया तुममें है ही नहीं और अगर देखने की क्रिया है तो आप मुझे बताइए कि आप मुझसे मिलने के लिए आए तो गेट के पहले कितने खंबे हैं। वास्तव में तुमने देखा ही नहीं। मगर अब बाहर जाओगे तो गिन लोगे और कह दोगे आठ खंबे है। मगर अभी तक तुम अंधे की तरह आए या देखते हुए आए? हुआ क्या? तुम्हारी आंखे कुछ देखती नहीं है। जो आप कहते हैं वही देखती है। जब स्थूल चीज देखने की तुम क्षमता नहीं प्राप्त कर सकते तो दिव्य स्वरूप को कैसे देख सकते हो?
इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है कि गुरू अपने शिष्य को सहस्त्राक्षी बनाए उनकी हजार आंखें खोल शरीर के अंग प्रत्यंग में। और वायु पुराण में उन हजार आंखें का चिंतन है, एक-एक आंख का वर्णन है, एक-एक आंख का विनियोग है, न्यास है, एक-एक आंख का मंत्र है। खैर वह तो बहुत सूक्ष्मता की बात है तुम्हें उस प्रकार की साधना सम्पन्न करने की आवश्यकता नहीं है। मगर मैं तुम्हे समझा रहा था कि हम अपने जीवन का उदात्य कैसे बना सकते है। ये तो रत्न हैं, ये दिव्य स्वरूप, जितना इनको देखने की कोशिश करोगे उतनी ही आनंद की स्थिति बनेगी और जब जीवन को चैलेंज के रूप में आगे बढ़ा सकोगे तो ही उच्चता और श्रेष्ठता तक पहुंच सकोगे। अभी तक तो अपने ही तरीके से तुमने जीवन जीया है, बीस साल, पच्चीस साल, चालीस साल। अब साल भर मुझे देकर देखें तो सही कि यह साल आपके नाम गुरूजी जो कुछ आप करना चाहें करें। उसके बाद तुम्हारा मेरा गणित होगा कि तुम घाटे में रहे या नहीं। यह मैं तुम्हे गारंटी और विश्वास के साथ कह सकता हूं कि तुम किसी प्रकार से घाटे में नही रह सकते। मगर कहीं न कहीं तो कुछ छोड़ना ही पड़ेगा, त्याग करना ही पड़ेगा, तुम कुछ छोड़ो ही नही, त्याग करो ही नहीं न समय का त्याग कर सको न अपने जीवन के कुछ क्षणों का त्याग कर सको, तो फिर कुछ प्राप्त भी नहीं कर सकतें और मैं कुछ दूं भी और तुम्हारी झोली फटी हुई होगी तो मैं चाहे कितना ही दूं वह नीचे निकलता रहेगा।
आप भावना और श्रद्धा के माध्यम से परिपूर्ण पुरूष बनने की कोशिश करें। वही पौरूष तुम्हारे जीवन में भी बने। आप दृढ़ बनें, साहसी और शक्तिवान बनें और उन लोंगो को जबाब दें जो आपके सामने तर्क करते हैं। चुपचाप सुनना मृत्यु है, कायरता है, बुजदिली है। मैं अपने शिष्यों को कायर बुजदिल बनाना नहीं चाहता। मैं तो तुम्हे कहता हूं कि सामने वाला अगर तन के बात करें तो आंखे नोच लें, इतनी क्षमता रखें जिससे दूसरी बार कोई आदमी इस तरह बात करने की हिम्मत न कर सके।
मगर उसके लिए तुम्हें एक तेजस्विता चाहिए, तुम्हारे पास कुछ होना चाहिए, एक क्षमता होनी चाहिए। और मैं इस शिवरात्रि के अवसर पर भगवान शिव को साक्षी कर के ऐसी ही साधना आपको बता रहा हूं जिसे करके आप स्वयं क्षमतावान बन सकें।
आप गुरू चरणों में बैठकर गुरू से यह पाशुपत साधना प्राप्त कर सकें और उसे पूर्णता से सम्पन्न कर अपने जीवन में पौरूषवान, क्षमतावान और दिव्य बन सकें ऐसा ही मैं हृदय से आशीर्वाद देता हूं, कल्याण कामना करता हूं।
परमहंस सद्गुरूदेव स्वामी निखिलेश्वरानंद
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