मां दुर्गा के तीनों स्वरूपों के बारे में ‘श्री देव्यथर्वशीर्ष’ में लिखा है कि‘हे देवी! आप चित्त स्वरूपिणी महासरस्वती हैं, सम्पूर्ण द्रव्य, धन-धान्य रूपिणी महालक्ष्मी हैं तथा आनन्दरूपिणी महाकाली हैं, पूर्णत्व पाने के लिए हम सब तुम्हारा ध्यान करते हुये आपको बारम्बार नमस्कार करते है मेरे अविद्या, अज्ञान, अवगुण रूपी रज्जु की दृढ़ ग्रन्थी काट कर मुझे शक्ति प्रदान करें।
नवरात्रि की ये नौ रात्रियां अपने आप में तीनों शक्तियों अर्थात् – दुर्गा, लक्ष्मी एवं सरस्वती को शक्ति साधना द्वारा जीवन में अनुकूल करने की रात्रियां हैं। इन्हीं त्रि-शक्तियों से ही जगत की समस्त शक्तियों का उद्भव या संचरण हुआ है। नवरात्रि की प्रथम तीन रात्रियों में शक्ति की, अगले तीन दिनों में सरस्वती की एवं अंतिम तीन रात्रियों में लक्ष्मी की उपासना की जाती है। इसके अगले दिन अर्थात् जब इन तीनों शक्तियों द्वारा वह अपनी आंतरिक एवं बाह्य आसुरी शक्ति पर राममय विजय प्राप्त कर लेता है।
श्रेष्ठ जीवन मूल्यों को अर्जित करने के लिए मन की समस्त विकृत वृत्तियों का नष्ट होना आवश्यक है। दुर्गा को दुर्गति नाशिनी कहा गया है, अर्थात् वे दुर्गुणों का शमन करने वाली हैं। दुर्गा का एक नाम महिषासुरमर्दिनी भी है- महिष का अर्थ होता है भैंसा, और यह महिष बाहर कहीं नहीं हमारे अन्दर ही छिपा होता है जो तमोगुण का प्रतीक है। आलस्य, अज्ञान, जड़ता, अविवेक के इस कीचड़ में उस महिषासुर का निवास होता है, नवरात्रि के प्रथम दिन की साधना उसी तमोगुणी महिषासुर के वध हेतु की जाती है। दुर्गा देवी का हवन करते समय जो बलि देने की बात की जाती है, वह किसी प्राणी या पशु की बली न होकर, अपने अन्दर के ही महिष, पशु या पशुवृत्तियों की बली होती है।
नवरात्रि का मध्यांतः तीन दिवस सरस्वती साधना के लिए उपयुक्त माने गए है। दुर्गा द्वारा दोषों के नाश और लक्ष्मी की प्राप्ति, चित्त शुद्धि के लिये सरस्वती की वन्दना से चित्त पर विजय केवल ज्ञान के खड्ग से प्राप्त की जा सकती है। सरस्वती आत्मज्ञान के सर्वोत्तम रूप का प्रतीक हैं। वेदों में यदि देखें तो अनेक प्रकार के ज्ञान हैं- शब्द शास्त्री, शिल्प विद्या, अर्थ शास्त्र, धनुर्विद्या, ज्योतिष आदि, लेकिन असली ज्ञान ही है। आध्यात्मिक ज्ञान ही परम ज्ञान है, श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कह रहे है- अपनी आत्मा का ज्ञान ही प्रमुख ज्ञान है। बाहरी ज्ञान को हम कितना भी क्यों न ग्रहण कर लें, जब तक हम स्वयं अपने को नहीं पहिचान सकेंगे, अपने मन, आत्म रूप को नहीं निहार सकेंगे, तब तक जीवन किसी भी प्रकार सार्थक नहीं है।
इस प्रकार नवरत्रि में आदि शक्तियों की साधना ही अपने आप में पूर्ण साधना है।, यह वर्ष भर के लिए साधक को अपूर्व चैतन्यता, ऊर्जा और नव-जीवन प्रदान कर देती है। परन्तु इस प्रकार की साधना रात्रि में करने के पीछे रहस्य है। साधारण रूप से रात का समय हम सोने के लिए व्यतीत करते हैं। हम तमोगुण की मोह निद्रा में बहुत काल तक सो चुके हैं, नवरात्रि की रात्रिकालीन साधना के पीछे सन्देश यह होता है, कि अब समय आ गया है, उस तमोगुणी निद्रा से जाग जाने का। इसीलिए रात्रि जागरण का विधान रखा गया है। इससे महिषासुर पर संकट आ जाता है, उसके परास्त होने की क्रिया आरम्भ हो जाती है। रात्रि में जागने का अर्थ है, निद्रा को छिन्न- भिन्न कर देना।
जीवन समुद्रवत् बन सके, अतः करण पवित्र हो सके, मन एकाग्र हो सके, इसीलिए लक्ष्मी की उपासना की जाती है। लक्ष्मी मात्र एक धनप्रदाता देवी मान ली गई हैं, यह देवी के स्वरूप की अपूर्ण धारणा है। धन का अर्थ हमारे लिए मात्र रह गया है- सोना, चांदी, नोटों की गड्डियों से भरी तिजोरियां और भौतिक समृद्धि की ही देवी मान लिया गया है। परन्तु इस कागजी सम्पदा को ही धन नहीं कहा जा सकता, जीवन का सच्चा धन तो जीवन की सम्पूर्णता है।
वह धन है-‘आत्मानुशासन’ अर्थात् स्वयं का अपने मन पर नियंत्रण। यदि आत्मसंयम ही नहीं है, तो हमारा जो यह वैभव है, जो भौतिक साधन हैं, वे भी विनष्ट हो जायेंगे टिकेंगे नहीं। सच्चा ऐश्वर्य है- आन्तरिक समृद्धि। यह आन्तरिक समृद्धि भी हम जीवन में लक्ष्मी द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं। हमारा चित्त शुद्ध हो सकता है।
ये सद्गुण जब हममें विकसित होंगे तभी भौतिक समृद्धि को भी सुरक्षित रख सकेंगे।, अन्यथा, मुद्रा आएगी लक्ष्मी का कोई सदुपयोग नहीं हो सकेगा। अंतः करण शुद्ध नहीं हो, संयमित न हो, तो भी व्यक्ति अनेक प्रकार के छल, कपट में ग्रस्त रहकर जीवन को कलुषित बना देता है। ऐसा धन विनाश की ओर ले जाता है। सद्गुणों के अभाव में सच्चे जीवन के मूल्यों के न रहने पर हमारा सारा धन व्यर्थ हो जाता है। सद्गुणों का ऐश्वर्य ही लक्ष्मी का सच्चा स्वरूप है।
आदि शंकराचार्य ने ‘विवेकचूडामणि’ में षट् सम्पत्ति का वर्णन किया है। षठ् सम्पत्ति-अर्थात् सम्पत्ति के छः रूप – शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान। प्रज्ञा को पाने के लिए इन गुणों का लक्ष्य होता है अपने को साध लेना अर्थात अपने मन पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेना। मन पर ऐसी विजय प्राप्त कर लेना जिससे फिर जीवन में आने वाले किसी भी प्रकार के उतार-चढ़ाव से विचलित ने हो सके। यह विजय तभी मिल सकती है, जब चित्त शुद्ध हो।
नवरात्रि पर लक्ष्मी की जिस रूप में साधना की जाती है, वह मूलतः अर्थ लक्ष्मी न होकर लक्ष्मी का वह स्वरूप है, जो व्यक्ति को आंतरिक शुद्धता प्रदान करता है। जीवन के इसी सच्चे धन को प्राप्त करने के लिए नवरात्रि के पूर्णत्व के तीन दिन अर्थात् सप्तमी से नवमी तक लक्ष्मी की उपासना की जाती है।
इस प्रकार नवरात्रि के नौ दिन जीवन में अज्ञान रूपी अन्धकार को पूर्णरूप से नष्ट कर ज्ञान का प्रकाश आलोकित करने के दिवस हैं, इसी प्रकार भय, निर्बलता को दूर कर स्वाभिमान और निर्भयता प्राप्त करने के दिवस हैं। वहीं नवरात्रि जीवन की दरिद्रता को पूर्ण रूप से समाप्त कर लक्ष्मी को अपने जीवन में स्थापित करने के साधना के श्रेष्ठ दिवस है। उसे अभागा ही कह सकते हैं जो अपने जीवन को सभी शक्तियों से युक्त नहीं करना चाहता।
सूर्य ग्रहण की पूर्णता के साथ ही आने वाला नूतन वर्ष हर दृष्टि से शक्ति युक्त बन सके। इसी हेतु छत्तीसगढ़ की तपोभूमि महामाया के उद्भव स्थल बालोद में 21-22 मार्च को महामाया नव दुर्गा शक्ति साधना महोत्सव सम्पन्न होगा। जिसमें महाकाली चण्डी साधना और महामाया धन प्रदाता स्वरूप सौभाग्य लक्ष्मी दीक्षा, पूजन, हवन व स्व रूद्राभिषेक प्रत्येक साधक व्यक्तिगत रूप से सम्पन्न कर सकेंगे। जिससे की यह नूतन वर्ष पूर्ण सौभाग्य धन-लक्ष्मी और सभी नवदुर्गा शक्ति से युक्त हो सके और साधक जीवन में बल, बुद्धि, धन-धान्य की पूर्णता से प्राप्ति करता ही है।
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