“गुरू’ कोई शरीर या नाम नहीं, किसी के व्यक्तित्व या चमक-दमक युक्त आश्रम के अधिष्ठाता को गुरू नहीं कहते। लम्बी चोड़ी डींग हाकने वाले और अपना स्वार्थ सिद्धि करने वाले को भी “गुरू ‘ शब्द से सम्बोधित नहीं किया जाता। गुरू तो ज्ञान को कहते हैं, यह अलग बात हे कि ज्ञान किसी शरीर में विद्यमान रह सकता है, इसलिए वह शरीर भी हमारे लिए पवित्र व पूज्य हो जाता है, ऐसे उच्चकोटि के ज्ञान को धारण करने वाला ही गुरू कहा जाता हे।
शास्त्रों में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि गुरू को पहचानने के छ: लक्षण हे।
ऐसे ही गुरू की खोज वर्षो से चलती रहती है, यह शिष्य का सौभाग्य है कि उसे छोटी उम्र में ही गुरू मिल जाए, कभी-कभी दुर्भाग्य से गलत और नकली गुरू मिल जाते हैं तथा काफी समय व्यर्थ में बर्बाद हो जाता है। बहुत बाद चलकर पता चलता है कि जिसके पास मैंने इतना अधिक समय व्यतीत किया वह तो स्वयं ही अज्ञानी है ओर साधनाओं में सर्वथा कोरा है।
गुरू का संबंध तो जन्म-जन्मातर का होता है गुरू कोई नया नहीं होता, साख्यायन तंत्र में स्पष्ट रूप से बताया गया है, कि पिछले जीवन में जो गुरू होता है, इस जीवन में भी उसी गुरू के पास जाने मे अपूर्व शांति प्राप्त होती है। दुष्कर्मो की वजह से हम तीर्थ स्थानों में गुरू की खोज में भटकते रहते है, या ऊँचे पाखण्ड युक्त आश्रमों मे गुरू की खोज करते हैं। पर इन स्थानों पर वह गुरू प्राप्त नहीं हो सकता जो कि पूर्व जन्म में गुरू होते हैं, क्योंकि गुरू का सम्बन्ध कई-कई जन्मों से अनवरत चलता रहता है, कई-कई जन्मों तक गुरू अपने साथ शिष्य को बनाये रहते हैं, नदी चाहे किसी पहाड़ से निकली हो चाहे उसे अपने गुरू समुद्र’ के रहने का स्थान ज्ञात न हो और चाहे मार्ग में कितने ही रमणीक और मनोहर स्थान दृष्टिगोचर होते हों, परन्तु नदी को तो न वे रमणीक स्थान अच्छे लगतें हैं और न ऊंची-ऊंची पर्वत मालाएं, न उसे हरे भरे मैदान सुखद लगते हैं और न भौतिकता से युक्त गांव या शहर ही। वह तो निरन्तर अपने को विलीन करने के लिए भागती ही रहती हे, इस दौड़ने की प्रक्रिया में उसे कम ज्यादा समय लग सकता हे, उसे मार्ग में बांधने के कई प्रत्यन किये जाते हैं, ऊंचे-ऊंचे बाँध बनाकर उसे रोकने की चेष्टा की जाती है, परन्तु वह नदी किसी भी स्थिति में समझोता करने को तैयार नहीं होती, उसे वह कुछ भी अच्छा नहीं लगता, उसके हृदय में एक तडफ, एक बेचेनी, एक छटपटाहट विद्यमान रहती है, और वह बिना विश्राम किये अनवरत गति से अपने गुरूरूपी समुद्र की खोज में बराबर आगे बढ़ती रहती हे ओर जब वह अपने प्रयासों में सफल हो कर अपने पूर्व जन्म के गुरू समुद्र को पा लेती है तो उसकी छटपटाहट, उसकी बैचेनी समाप्त हो जाती है और वह पूर्णतः शांत होकर वह सब कुछ प्राप्त कर सन्तुष्टि अनुभव करती है, जो कि उसके मन में होती है। जो श्रेष्ठजन होते हैं, जिनमें मनुष्यत्व होता है, जो अपने ब्रह्म को पहचानते हैं, वह जीवन के मध्य काल में थक कर बेठते नहीं, अपितु निरन्तर उसके प्रयासों में गुरू की खोज रहती हे।
ठीक यही स्थिति सच्चे शिष्य की होती है, यदि छोटा-मोटा नाला या छोटी मोटी नदी होती हैं, तो थोड़ा बहुत प्रयास कर जीवन के मध्य काल में ही सूख जाती है, परन्तु गरिमायुक्त नदी तो अपने लक्ष्य को प्राप्त करके ही रहती हे। ठीक उसी प्रकार जो क्षुद्र या सामान्य व्यक्ति होते हैं, वे कभी कभी जोश में आते हैं, गुरू की खोज में इधर-उधर भटकते हैं ओर कभी कहीं तो कभी कहीं पर शान्ति पाने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु वे जल्दी ही बुझ जाते हैं और एक प्रकार से कहा जाये तो जीवन के मध्यकाल में ही सूख जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों का न कोई इतिहास होता है और न उसकी कहीं पर कोई गणना ही होती हैं, बीच में ही सूख जाने वाली नदी नाले को कोई याद नहीं करता, जो अन्त तक दौड़ कर सागर में मिलती है, उसी को गंगा सागर कहते हैं, वह गंगा ही देवता स्वरूप बन जाती है, उसे ही समुद्र कहा जाता है, एक प्रकार से वह देवता तुल्य हो जाती है।
परन्तु जो निष्ठावान होते हैं, जिनमें मनुष्यत्व होता है, जो अपने ब्रह्म को पहिचानता हैं, वह जीवन के बीच में थक कर बैठ नहीं जाते, अपितु निरन्तर उसके दिमाग में गुरू की खोज बनी रहती है। यद्यपि सांसारिक बाधाएं उसके जीवन में पग-पग पर आती है, जब पाप कर्म आडे आते हैं, तो उसे मार्ग में कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है। ये पाप कर्म कभी स्त्री के रूप में सामने आते हें, कभी पुत्र के रूप में सामने आकर खडे होते हैं, तो कभी समाज की आलोचनाओं के रूप में सामने साकार हो जाते हैं। जो इन बाधाओं से विचलित हो जाता हैं, घबरा कर हथियार डाल देता है, उसे शास्त्रों में नपुंसक ओर “कापुरूष’ की ही संज्ञा दी गई है। मर्दानगी तो इस बात में हे कि इन आलोचनाओं के सामने हम टिक कर खडे रहे, बाधाओं के सामने मजबूती के साथ संघर्ष करें और निरन्तर अपने लक्ष्य की ओर गतिशील बने रहें। मन में एक ही स्वप्न रहे, कि मुझे अपने जीवन में मेरे पूर्व जन्म के गुरू की खोज करनी है और उन्हें पाकर, उनके चरणो में बैठ कर, अपने आपको पूर्णता के साथ समर्पित कर, जीवन को अमृतत्व प्रदान कर देना है। उनसे जीवन की पूर्णता, श्रेष्ठ और सफलता प्राप्त कर लेनी है।
भारत वर्ष में “निगुरा’ एक गाली की तरह प्रयुक्त होती है। निगुरा का तात्पर्य जिसके जीवन में कोई गुरू नहीं होता, उसे निगुरा कहते हैं और भारतीय समाज में यह कहा जाता है कि जिसके गुरू नहीं होता, उसके इस लोक और पर लोक दोनों बिगड़ जाते हैं। ऐसा व्यक्ति सब कुछ प्राप्त करने के बावजूद भी खाली सा होता है, धन और सम्पदा से पूर्णता प्राप्त नहीं होती, धन तो चोरों, तस्करों ओर वेश्याओं के पास भी होता है, पर इससे वे श्रेष्ठ या महान नहीं कहलाते। शूकरों के कई संतान होती है, पर आखिर वे शूकर ही कहलाते हैं। जीवन में अधिक पुत्र या धन सम्पदा होने से ही कोई महान नहीं बन जाता, बहुत सुन्दर होने से ही व्यक्तित्व में निखार नहीं आ सकता, क्योंकि उस सोन्दर्यता के पीछे बुढ़ापे की छाया डरावने रूप में हर समय विद्यमान रहती है। जीवन का असली सोन्दर्य तो गुरु धारण करने में है और उनसे मार्गदर्शन प्राप्त कर जीवन को पूर्णता प्रदान करने में है।
यह अवश्य है कि आज का जीवन बहुत अधिक जटिल और व्यस्त हो गया है, व्यक्ति स्वयं अपनी परेशानियों और तनावों से इतना अधिक घिर गया है कि उसे सांस लेने की भी फुर्सत नहीं, अपनी नौकरी या व्यापार में इतना अधिक उलझ गया है कि वह चाहते हुए भी समय नहीं निकाल पाता, पर इस प्रकार कौल्हू के बेल की तरह निरन्तर व्यस्त रहने ओर घूमते रहने से क्या प्राप्त हो जायेगा? हमारे पिता, हमारे दादा भी इसी प्रकार चोबीसों घण्टे कौल्हू के बेल की तरह परिश्रम करते ही रहे, भटकते ही रहे, जरूरत से ज्यादा व्यस्त बने रहे, परन्तु वे अपने साथ क्यों ले जा सके, जो कुछ उन्होंने उपार्जित किया वह सब यहीं का यहीं रह गया, अपने साथ तो कफन का टुकड़ा भी नहीं ले जा सके, और उनकी मृत्यु के बाद भारतवर्ष की बात तो दूर रही, मोहल्ले के लोगों को भी उनका नाम स्मरण नहीं रहा, उनका जीवन ठीक ऐसा ही रहा जेसे पानी का कोई बुलबुला हो, थोड़े समय के लिए उठा और फूट गया, दूसरे शब्दों में कहा जाये तो उनका अस्तित्व ही समाप्त हो गया।
आप इस भाग दोड में एक क्षण रूक कर अपने सीने पर हाथ रख कर सोचिए कि क्यार ऐसा ही जीवन आप जीना चाहते हें। जो परिश्रम, जो प्रयत्त आप कर रहे हैं, उसकी कोई सार्थकता भी है, आप जो छल-कपट करके एकत्र कर रहे हैं, उसका भोग आप कर रहे हैं? यदि नहीं हो फिर इन सारे प्रयत्नों ने आपको व्यक्तिगत रूप से क्याल दिया? जब इस सम्पत्ति का उपयोग आप नहीं कर पाते, इतनी सम्पत्ति होने के बावजूद भी आप दो क्षण विश्राम नहीं कर पाते, किसी मनोहर रमणीक स्थान पर घूमने नहीं जा सकते, तीर्थों पर कुछ समय व्यतीत नहीं कर पाते, तो फिर आपके जीवन का प्रयोजन क्या है? आपके जीवन का उपयोग क्याआ है, स्वयं के लिए आप क्या कर रहे हैं। यदि परिवार को ही पालना पोसना हे, तो ऐसा कार्य तो गधे, घोड़े, बैल, शूकर, कुत्ते आदि भी करते हैं, फिर आप में और उनमें अन्तर भी क्या है? श्वान भी कई बच्चे पैदा करता है, गुर्रा कर दूसरे की रोटी छीन कर अपने पिल्लों को खिलाता है और एक दिन गली में ही मर जाता है, भंगी उसकी टांग को रस्सी से बांध कर घसीट कर एक तरफ फेंक देता है।
आपकी भी तो ऐसी स्थिति है, जिस रास्ते पर आप दोड रहे हैं, उसका परिणाम यही है, इस प्रकार की दोड़ से आप अपने लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं और एक दिन आपका जीवन श्वानवत् ही समाप्त हो जायेगा और चार लोग मिल कर आपको लकडियों में फूक देंगे। कोई आपको याद भी नहीं करेगा, क्योंकि आप ने कोई ऐसा कार्य नहीं किया जो स्मरणीय हो और इसका कारण यही है कि आपको यह पता नहीं है कि जीवन का वास्तविक सोन्दर्य क्या हे, जीवन का लक्ष्य और प्रयोजन कया है, किस तरीके से जीवन जीना है। और यह जीवन जीने की कला ही, ‘गुरु’ सिखाता है, गुरु उसे अपने समीप बिठा कर उसके और स्वयं के सम्बन्धों को स्पष्ट करता है, उसे साधनाओं के माध्यम से वह रास्ता दिखाता है, जिस पर चलकर वह स्वस्थ और आनन्दयुक्त जीवन व्यतीत कर सके। वह अपने बाह्य और अन्तर को पवित्र कर सके, अपनी आत्मा को पहिचान सके, अपने ब्रह्म से साक्षात्कार कर सके, वह यह जान सके, कि उसका जन्म किस उद्देश्य के लिए हुआ है उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कौन सी साधना अभीष्ट है ओर किस प्रकार से वह गृहस्थ के उत्तरदायित्व को पूरा करते हुए ब्रह्म से साक्षात्कार कर उसमें लीन हो सकता है।
इसीलिए तो शास्त्रों में गुरु की महिमा को प्रमुखता के साथ स्वीकार किया है, हमने ईश्वर को देखा नहीं हमने जगदम्बा भवानी, शिव या विष्णु के दर्शन नहीं किये। हम उन्हें पहिचानते भी नहीं, हमें इस बात का भी ज्ञान नहीं है कि उनके दर्शन करने के लिए क्या करना चाहिए, किस पथ पर चलने से उनके साक्षात् दर्शन हो। पर आपके ओर उस इष्ट के बीच एक कड़ी है, जिसे “गुरु’ कहा जाता हे, वह गुरु आपको भी पहिचानता है और उस गुरु का परिचय उस इृष्ट से भी है, जिसमें आप लीन हो जाना चाहते हैं। इसीलिए उस गुरु के माध्यम से इष्ट तक पहुंचा जा सकता हे, उसके जाजवल्य स्वरूप के साक्षात् दर्शन किये जा सकते हैं, उसके बताये हुए रास्ते पर चल कर ही हम अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते है, चूंकि हमारे और इष्ट के बीच ओर कोई आधार, और कोई माध्यम नहीं है। केवल मात्र गुरु ही हैं जो शिष्य को ऐसा निर्देश दे सकते हैं, उसकी उंगली पकड़ कर रास्ते पर चला सकता हैं और साक्षात् ब्रह्म के दर्शन करा कर जीवन को पूर्णता प्रदान कर सकते हैं। इसीलिए शास्त्रों में गुरु की महत्ता को स्वीकार किया है।
और इसीलिए गुरु को हमने ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहा है, क्योंरकि वह पूर्व जन्म से हमारा मार्ग दर्शक हे, इसीलिए उनका शरीर हमारे लिए पवित्र है, उनके चरणों की सेवा हमारा आदर्श है, उनके शरीर को सुख पहुंचाना हमारा ध्येय है, उसकी इच्छाओं को पूर्णता देना, हमारा कर्त्तव्य है और उसके चरणों में अपने आपको निमग्न कर देना, हमारे जीवन की पूर्णता है।
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