थोड़ी देर बाद ही बुद्ध वापस आ गए। उनके साथ कालुदयी, सारिपुत्त और नागसमल भी थे। बुद्ध उन्हें बैठने का अनुरोध करते हुए स्वयं तीसरी कुर्सी पर बैठ गए। वे समझ गए कि आने वाली महिला आम्रपाली और युवक राजा बिम्बसार का पुत्र, जीवक है।
कालुदयी ने अपने जीवन में इतनी सुंदर महिला नहीं देखी थी। उसने अभी एक महीने पहले ही भिक्षु की प्रवृज्या (दीक्षा) ली है और उसे समझ नहीं आ रहा था कि किसी भिक्षु को ऐसी परम सुन्दरी की ओर देखना भी चाहिए या नहीं। आखिर उन्होंने अपनी आंखे नीची कर लीं। नागसमल की भी यही स्थिति हुई। केवल बुद्ध और सारिपुत्त ही उस सुन्दरी से आंखें मिला सके।
सारिपुत्त कभी आम्रपाली को देखते तो कभी बुद्ध को। वे देख रहे थे कि बुद्ध की दृष्टि कितनी सहज और सौम्य है। उनका मुख-मंडल चन्द्रमा की भांति शांत और सुन्दर था। उनकी दृष्टि कृपापूर्ण और स्पष्ट थी। सारिपुत्त को प्रतीत हुआ कि बुद्ध की संतुष्टि, सहज और आनंद-भावना उनके अपने हृदय में सीधी प्रवेश हो गई है।
आम्रपाली भी बुद्ध की आंखों में आंखें डाले देख रही थी। जिस प्रकार बुद्ध उसे निर्विकार भाव से देख रहे थे, उस दृष्टि से उसे आज तक किसी ने नहीं देखा था। जहां तक उसे स्मरण है, लोग उसे देखकर उलझन में पड़ जाते थे या फिर उनकी आंखों में इच्छा झांक रही होती थी। बुद्ध तो उसे इस प्रकार देख रहे थे जैसे किसी मेघ या सरिता या पुष्प को देखते थे। आम्रपाली को लग रहा था कि वह गहरे झांककर उसके हृदय के विचारों को भी समझ लेंगे। उसने हाथ जोड़कर अपना और अपने पुत्र का परिचय दिया। ‘मैं आम्रपाली हूं और यह मेरा पुत्र जीवक है जो चिकित्सक बनने के लिए अध्ययनरत है। हमने आपके विषय में बहुत कुछ सुना था और आपसे मिलना चाहते थे जो आज संभव हुआ है।’
बुद्ध ने जीवक से पूछा कि उसका अध्ययन और दैनिक जीवन-चर्या कैसी चल रही है? जीवक ने नम्रता के साथ इन प्रश्नों का उत्तर दिए। बुद्ध समझ गए कि यह युवक दयालु प्रकृति का है और प्रतिभाशाली है। यद्यपि उसके पिता वही थे, जो कुमार अजातशत्रु के थे किन्तु स्पष्ट था कि उसका चरित्र बाल कुमार से अधिक विचार-विमर्श पूर्ण था। जीवक के हृदय में बुद्ध के प्रति सम्मान और प्रेम का भाव था। उसने कहा कि जब मैं अपनी चिकित्सा विषयक शिक्षा पूर्ण कर लूंगा तो वेणुवन में बुद्ध के पास ही रहूंगा।
बुद्ध से मिलने से पहले आम्रपाली यह मानकर चल रही थी कि वह बहुत से उन अन्य विख्यात गुरुओं के समान ही होंगे, जिनसे वह मिल चुकी थी। लेकिन वह इससे पूर्व बुद्ध सरीखे किसी गुरु से नहीं मिली थी। उनकी दृष्टि निश्चय ही कोमल और करूणापूर्ण थी। उसने सोचा कि ये ही मेरे उन दुःखों को समझ सकेंगे जो उसके हृदय में पल रहे हैं। उनकी करूणापूर्ण दृष्टि से ही उसके बहुत से दुःख दूर हो गए थे। जब उसने बोलना आरंभ किया तो उसकी आंखें छलछला आई थी। ‘गुरुवर, मेरा जीवन दुखों का आगार है। यद्यपि मेरे पास धन-सम्पदा की कोई कमी नहीं है और अभी तक किसी वस्तु की आकांक्षा अतृप्त नहीं रही है फिर भी, आज का दिन मेरे जीवन का सर्वाधिक उल्लास का दिन है।’
आम्रपाली विख्यात गायिका और नर्तकी थी लेकिन किसी भी व्यक्ति के कहने भर से अपनी कला का प्रदर्शन नहीं करती थी। यदि किसी के तौर-तरीके या व्यवहार उसे अच्छा नहीं लगे, तो वह अपनी कला का प्रदर्शन करने से इन्कार कर देती, चाहें फिर वह व्यक्ति उसे कितना ही स्वर्ण देने का प्रस्ताव क्यों न रखे। जब वह सोलह वर्ष की थी, तो किसी से प्रेम करने लगी थी। किन्तु उस प्रेम-प्रसंग ने उसका हृदय ही तोड़ा। कुछ समय बाद उसकी भेंट युवा राजकुमार बिम्बिसार से हुई और उन दोनों में प्रेम हो गया। उसी से बिम्बिसार का पुत्र जीवक का जन्म हुआ। किन्तु राजमहल में कोई भी उसे और उसके पुत्र को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। महल के लोगों ने यह अफवाह उड़ा दी कि वह परित्यक्त अनाथ है जिसे राजकुमार सड़क के कूड़े के ढेर से उठाकर लाए थे। इन आरोपों से आम्रपाली के हृदय को आघात लगा। राजमहल में उसे द्वेष और घृणा से भरे अपमान के कड़वे घूंट पीने पड़े। शीघ्र ही उसने समझ लिया कि उसे स्वतंत्र रहना है और अपनी स्वतंत्रता की पूर्ण शक्ति से रक्षा करनी है। उसने महल में रहना अस्वीकार कर दिया और प्रण किया कि वह अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता किसी भी कीमत पर नहीं खोयेगी।
बुद्ध ने सहजता से उससे कहा-किसी अन्य वस्तु के समान सुंदरता आती है और चली जाती है। ख्याति और धन-सम्पदा भी इसी प्रकार आनी-जानी है। ध्यान-साधना करने से जो शांति, हर्ष और स्वतंत्रता प्राप्त होती है, उसी से सच्चा आनन्द प्राप्त होता है। आम्रपाली! इस जीवन के जो क्षण शेष रह गये हैं, उनको जियो और उनका पूरा ख्याल रखो। अपने व्यक्तित्व को भुलावे से अथवा निरर्थक आमोद-प्रमोद में नष्ट मत करो। यह बात सबसे महत्वपूर्ण है।’
बुद्ध ने आम्रपाली को बताया कि उसे अपना नित्य नैमित्तिक जीवन नई विधि के अनुसार कैसे व्यवस्थिति करना है। प्राणायाम करो, ध्यान में बैठो, सचेतना की भावना से कार्य करो और ‘पंचशीलों’ के पालन का अभ्यास करो। इन मूल्यवान शिक्षाओं को पाकर वह हर्षोंन्मत्त हो उठी। वहां से विदा होने के पूर्व उसने कहा, ‘वैशाली नगर के बाहर मेरे अधिकार में एक आम्रवन है जो शीतल भी है और शांतिपूर्ण भी है। मैं आशा करती हूं कि आप और आपके भिक्षु वहां कभी पधारने की कृपा करेंगे। यदि ऐसा हो सका तो यह मेरे लिए और मेरे पुत्र के लिए बहुत ही सम्मान की बात होगी। बुद्ध देव, कृपया मेरे इस निमंत्रण पर विचार कीजिए। बुद्ध ने मुस्कराकर स्वीकृति दे दी।
जब आम्रपाली चली गई तो कालुदयी ने बुद्ध के पास बैठने की अनुमति मांगी। नागसमल ने सारिपुत्त को दूसरी कुर्सी पर बैठने को कहा और वह स्वयं खड़ा ही रहा। अन्य अनेक भिक्षु जो बुद्ध की कुटीर के पास से गुजर रहे थे, वहां रूक गए। सारिपुत्त ने कालुदायी की ओर देखा और मुस्कराए। उन्होंने नागसमल की ओर भी देखा और मुस्करा दिए। तब उन्होंने बुद्ध से प्रश्न किया, ‘बोधिसत्व, एक भिक्षु को किसी स्त्री को देखना चाहिए जो आध्यात्मिक साधना में अवरोध हो?’
बुद्ध मुस्कराए। वे समझ गए कि सारिपुत्त यह प्रश्न अपनी खातिर नहीं, अन्य भिक्षुओं की तरफ से पूछ रहे हैं। उन्होंने कहा-‘भिक्षुओं, सभी धर्म वस्तुतः सुंदरता और कुरूपता का विचार नहीं करते-वे उनसे परे होते हैं। सुन्दरता या कुरूपता का भाव-बोध तो हमारे चित्त को प्रतिबिम्बित करता है। सुन्दरता और कुरूपता दोनों का सृजन पांच तत्वों से होता है। कलाकार की दृष्टि में कुछ सुंदर हो सकता है और किसी भी वस्तु को वह कुरूप बना सकता है। सरिता, बादल, पत्ता, फूल, सूर्य की एक किरण या दोपहर बाद की धूप सभी में सौन्दर्य होता है। हमारे पास में उगे हुए पीले बांस भी सुन्दर है। किन्तु कोई भी अन्य सौन्दर्य स्त्री के सौंदर्य से अधिक चित्त में विघ्न नहीं डालता। यदि कोई स्त्री के सौंदर्य से अभिभूत हो जाता है तो वह सद्धर्म के मार्ग से भटक सकता है।
‘भिक्षुओं, जब आपने चित्त की गहराई में बैठकर देख लिया है और सद्धर्म की गति प्राप्त कर ली है तो सुन्दर, सुन्दर लग सकता है और कुरूप, कुरूप। किन्तु आपने भव-बोध से मुक्ति प्राप्त कर ली है तो आप इनमें से किसी से बंधे हुए नहीं हो। मुक्त पुरूष सभी वस्तुओं की अनित्यता और अस्तित्वहीनता को भी समझ पाता है। इसलिए वह न तो सुन्दर वस्तु से सम्मोहित होता है और न कुरूप से विरक्त।
‘एक ही सौंदर्य शाश्वत है- जो कभी फीका नहीं पड़ता-वह है करूणामय मुक्त हृदय जिससे किसी को दुःख नहीं होता। करूणा का अर्थ है- अहैतुक प्रेम और उसके बदले में किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं करना। मुक्त हृदय किसी प्रकार की शर्तों से बंधा नहीं होता। करूणापूरित मुक्त हृदय ही सच्चा सौंदर्य है। उस सौंदर्य की शांति और हर्ष ही सच्ची शांति और सच्चा हर्ष है। भिक्षुओं, परिश्रम पूर्वक अभ्यास करो तो आपको सच्चे सौंदर्य की अनुभूति हो जाएगी।’
कालुदयी और अन्य भिक्षुओं को बुद्ध के शब्दों से सत्य समझने में बहुत सहायता मिली। बुद्ध के ये अमृत वचन कालजयी हैं और शाश्वत सत्य और शावश्त सौन्दर्य को अभिव्यक्त करते हैं।
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