देह तो सदा मन के पीछे जाती है। मन को प्रभु के मंदिर जाना है, तो देह प्रभु के मंदिर ले जाती है, मीठा खाना हो, तो मिठाई की दुकान पर देह चली जाती है। चोरी करो तो साथ है, दान दो तो साथ है। भोग, वासना, आलस्य करें तो देह तो तुम्हारी सेवा में रत है। आप चाहें जो भी कर्म करें, यह देह सदैव आपके साथ ही रहता है, आपके मन का गुलाम बनकर! इसलिए यह आवश्यक है कि अपने मन को बदलो और मन को बदलने की प्रक्रिया ध्यान है, त्याग नहीं। शरीर को सताना नहीं, गलाना नहीं, वरन सोई हुई चेतना को जगाना, साक्षी को जगाना है। मेरे लिए संन्यास का मौलिक अर्थ है साक्षीभाव और साक्षीभाव के लिए संसार सबसे सुविधापूर्ण अवसर है और इसीलिए तो परमात्मा ने तुम्हें संसार दिया।
जिस तरह भगवान बह्म्रा, विष्णु एवम् महेश के बिना यह संसार अपनी गति को प्राप्त नहीं कर सकता, ठीक उसी प्रकार ये देवता भी महासरस्वती, महालक्ष्मी एवम् महाकाली (पार्वती) के बिना अपनी गति को प्राप्त नहीं हो सकते। इसी कारण से जीवन में इन महादेवियों की उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि त्रिदेव की। यदि आपके पास विद्या है पर धन नहीं है तो आप अपना भौतिक जीवन अत्यन्त कठिनाइयों में ही व्यतीत करने को मजबूर हैं और यदि आपके पास विद्या और धन है पर आपके जीवन में अनेकों प्रकार के शत्रु हों जो नित्य आप पर कोई नया षड़यंत्र रचते ही रहते हों, तो भी वह जीवन श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता और यदि आपके पास धन है और आप अपने शत्रुओं पर पूर्ण रुप से हावी होने का बल तो रखतें हैं पर उस धन और बल को सही तरीके से प्रयोग करने की बुद्धि नहीं है तो भी आप जीवन में अपने लिए केवल कठिन परिस्थितियों का निमार्ण हीं करेंगे और अपने जीवन को श्रेष्ठता तक नहीं ले जा पाएंगे।
सद्गुरु और ईश्वर का पूर्ण वर्चस्व रूपी आशीर्वाद साधक को तब प्राप्त होता है जब वह अपने गुरु के सानिध्य में महासरस्वती, महाकाली, महालक्ष्मी के त्रिगुणात्मक पिण्ड स्वरूप में पूर्णरूपेण शक्ति स्वरूपा को आत्मसात कर सके। ऐसा कर के ही वह अपने जीवन में पूर्ण संतुलन बना सकने में सक्षम हो सकता है। गुरु की तो हमेशा यही इच्छा होती है कि उसका शिष्य सभी दृष्टियों से परिपूर्ण और पूर्ण सफलता युक्त बन सके। साधक अपने जीवन में सुस्थिति चाहता है। इसी हेतु पूजा-अर्चना, ध्यान-साधना, स्नान-दान, तपयुक्त धार्मिक यात्रायें करता है और उसका लाभ साधक को जीवन में मिलता ही है।
जब शक्ति के 108 स्वरूपों का आवाहन कर उन्हें चैतन्य किया जाता है तो जीवन में पूर्ण नूतनता का विस्तार होता है। साधक व्याप्त गहन अंधकार को समाप्त कर प्रकाश की ओर अग्रसर होता है जिससे जीवन में कुछ नया घटित हो जाना, जो दूसरों से अलग हो, ऊर्जा और शक्ति से आप्लावित हो, संभव हो पाता है। ऐसी ‘शक्ति’ की प्राप्ति गतिशील साधक को ही होती है। जब साधक स्वयं यह कह उठता है – ‘‘मुझमें वह क्षमता, वह सामर्थ्य, वह शक्ति है, जिसके बल पर मैं अपने जीवन की अपूर्णताओं को सद्गुरुदेव की कृपा से पूर्णतामय स्थितियों में बदल सकता हूं’’।
भक्त और भगवान के बीच क्रियाओं को जोड़ने की चेतना का भाव गुरु प्रदान करता है जिससे जीवन की न्यूनता, अपूर्णता, अधंकार समाप्त होते ही हैं और साधक उर्जा और शक्ति से अपने मन, देह, ज्ञान, बुद्धि और कर्म शक्ति से युक्त होता है। वास्तव में व्यक्ति में स्वयं इतना सामर्थ्य नहीं होता कि वह अपने जीवन में पंच भूता स्थितियों धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और प्रेम को पूर्णता से आत्मसात कर सके।
इन्ही पंच भूता चेतना को प्राप्त करने के लिए ज्ञान, तप और उर्जा के साथ-साथ सही मार्ग दर्शन की आवश्यकता रहती है और यह बिना किसी शिव रूपी गुरु के द्वारा या शक्ति स्वरूप के बिना संभव नहीं है। इसलिये जीवन में ज्ञान, तप, उर्जा और सही मार्ग दर्शन हेतु गुरु की आवश्यकता रहती है जो कि साधक के श्यति पापम् अर्थात जीवन की न्यूनता रूपी अभावों का नाश कर सकें और इन सभी पंच भूता स्थितियों की पूर्णता के लिए साधक के जीवन में शक्ति तत्व का भाव होना आवश्यक है। यह तो पूर्ण गुरु कृपा ही होती है, जब साधक या शिष्य अपने पाप पाशों से मुक्त होता हुआ उस ब्रह्म में एकाकार हो जाता है। यूं तो करोड़ों लोग रोज जन्म लेते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं पर ऐसा जीवन तुम्हारे लिए मैंने नहीं सोचा है। तुम्हें इसी जीवन में उन ऊंचाइयों पर पहुंचना है जहां पर पहुंचना ही जीवन की सार्थकता कही जा सकती है। जिस दिन ऐसा होगा, उसी दिन तुम्हारा और मेरा मिलना सार्थक हो सकेगे।
सद्गुरुदेव का अवतरण दिवस जो कि 21 अप्रैल है, वही सही अर्थो में राम नवमी है, वही जन्माष्टमी है। इस महा उत्सव पर प्रत्येक साधक और शिष्य अपने जीवन को भौतिक सुखों सें निर्मित और परिपूर्ण करने में सफल हो सकेगे। वर्ष का सर्वश्रेष्ठ महापर्व शिष्य जन्मोत्सव होता है, यह तो आल्हाद, प्रेम, हर्ष, रस में पूर्ण रूपेण भीगने का दिवस है। इस दिवस को इस संकल्प के साथ संपन्न करेंगे कि हे सद्गुरुदेव, यह जीवन आप से ही आलोकित है, यह महिमा आपकी ही दी हुई है। यह जीवन पूर्णरूपेण प्रेम, श्रद्धा, विश्वास और समर्पण के साथ समर्पित है। एक शिष्य के लिए इससे बड़ा न तो कोई त्योहार होता है। आप सभी से मिलने एवम् आपकी सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने हेतु 19-20-21 अप्रैल को लोहिया पार्क चौक, लखनऊ में हम सभी इस शिष्य जन्मोत्सव पर अपने आप को गुरुमय बनाने की क्रिया सम्पन्न करेंगे। इस अवसर पर पूर्ण रूपेण इन्द्राक्षी वैभव लक्ष्मी से युक्त बनाने हेतु, चौसठ कला पूर्ण जीवन निर्माण की साधनायें और सर्व मनोकामना पूर्णता से अपने जीवन को युक्त करने हेतु दीक्षायें प्रदान की जायेंगी। प्रत्येक साधक द्वारा स्व रूद्राभिषेक वन्दनीय माताजी के सानिध्य में संपन्न होगा।
मंजुल महोत्सव साधनात्मक शिविर का आयोजन त्रिकूटा पहाड़ी पर अवस्थित माता वैष्णो देवी के तेजमय मंदिर प्रांगण में 3- 4 मई 2014 को कटरा वैष्णो देवी में सम्पन्न होगा। मंजुल महोत्सव शिविर में वे ही साधक भाग लें जिनमें सही अर्थो में गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा हो और वे त्रिगुणात्मक स्वरूप ज्ञान, शक्ति और लक्ष्मी को अपने जीवन में पूर्णता से धारण कर मनोनुकूल उन्नति-प्रगति चाहते हैं। इसीलिए पंजीकरण (Registration) अनिवार्य है। मंजुल महोत्सव पर पंजीकृत साधकों को ही माता वैष्णों देवी कटरा के मंदिर प्रांगण में अक्षय तृतीया पर्व पर अक्षय धन लक्ष्मी दीक्षा और शंकराचार्य प्रणित त्रि-पिण्ड शक्ति दीक्षा, और भैरवनाथ मंदिर में शत्रु पीड़ा हरण संहार दीक्षा और अप्सरा अनंग दीक्षा प्रदान की जाएगी।
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