आज भी भगवतपाद आद्य शंकराचार्य जी का नाम पूर्ण आदर व श्रद्धा के साथ लिया जाता है सैंकड़ों वर्ष बीत जाने के बाद भी लोग उन्हें अत्यन्त ही सम्मानीय दृष्टि से स्मरण करते हैं। वह एक बहुत ही महान व्यक्तित्व थे। इस तरुण संन्यासी ने अखण्ड विशाल भारत के दक्षिण से उत्तर, पूर्व से पश्चिम तथा भारतोत्तर देशों में भी पद यात्रा करके वेदान्त धर्म को जन-जन के उपयोगी, अनुष्ठानिक धर्म में रूपान्तरिक और प्रतिष्ठित करने के लिए भारत के चार प्रान्तों में चार धर्म दुर्ग स्थापित किए। एक प्रहारी के समान ही, ये चारों मठ हिन्दू धर्म की विजय वैजयन्ती फहरा रहे हैं।
शंकराचार्य द्वारा प्रचलित वैदान्त का प्रभाव भारत में सर्वत्र परिव्याप्त है। वे एक सत्यदृष्टा ऋषि थे। अपरोक्षानुभूति की जाग्रत प्रेरणा ही उनके जीवन का अन्यतम वैशिष्टय था, वे देह धारण करके भी विदेह थे। आचार्य शंकर का जन्म उच्च ब्राह्मण कुल में हुआ था। बचपन से ही शंकर बहुत ही शांत, धीर और तीक्ष्ण बुद्धि के थे। युवावस्था में उनमें जो अभूतपूर्व प्रतिभा और असाधारण मेधा शक्ति थी और जिससे सम्पूर्ण संसार चमत्कृत हुआ था। उसका उन्मेष मात्र तो उनमें बचपन से ही दिखाई देने लग गया था। तीन वर्ष की आयु में ही वेद, पुराण, महाभारत, रामायण आदि इन्हें कण्ठस्थ हो गए थे। आश्चर्य की बात तो यह थी कि ये जो भी पढ़ते थे, इन्हें कण्ठस्थ हो जाता था।
पांच वर्ष की आयु में ही उन्हें उपनयन संस्कार करके गुरुगृह भेज दिया गया। थोड़े दिन बार ही शंकर की प्रतिभा, बुद्धि और विशुद्ध उच्चारण ने गुरु व अन्य सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था। दो वर्ष में ही वे उपनिषद्, पुराण, इतिहास, धर्मशास्त्र आदि अनेक शास्त्रों में पूर्ण पारंगत हो गए थे। जिन शास्त्रों के अध्ययन में अत्यन्त मेधावी शिष्यों को बीस वर्ष लगते थे, उन्होंने दो वर्ष में ही उसका पूर्ण अध्ययन कर डाला।
उनके गुरुगृह से लौटते ही मां विशिष्टा देवी ने जब उनके आगे विवाह का प्रस्ताव रखा, तो उन्होंने इंकार कर दिया और अपने विचार पर दृढ़ बने रहे। इस प्रकार की दृढ़ता ने मां को विस्मित तथा अभिभूत कर दिया। ब्रह्मचारी शंकर घर में रहकर ही अध्ययन और अध्यापन कार्य में तत्पर रहे अनेक वयोवृद्ध पंडित भी शास्त्राध्ययन के लिए उनके पास आया करते थे। उनके शास्त्र व्याख्यान को सुनकर वे स्तम्भित रह जाते थे और सोचने लगते थे कि सात वर्ष के बालक में इतना असाधारण पाण्डित्य प्रतिभा यथार्थ में ही दैवी शक्ति का द्योतक है। ब्रह्मचारी शंकर अपनी सर्व प्रधान दिनचर्या व श्रेष्ठ साधना मां को सुख और आनन्द प्रदान करने में समझते थे, एक तरह से वे मातृ भक्त थे।
एक बार कुछ द्वैत ब्राह्मण अतिथि रूप में शंकर के भुवन में आये, तब उन्होंने शंकर की जन्मपत्री देख कर कहा- ‘शंकर स्वल्पआयु’ है, तभी से उनके मन में एक दूसरे प्रकार की प्रतिक्रिया प्रारम्भ हुई और उन्होंने संन्यास ग्रहण करने का निश्चय कर लिया। उन्होंने विचार किया- संन्यास ग्रहण के बिना आत्मज्ञान नहीं हो सकता। और ज्ञान लाभ के बिना मुक्ति संभव नहीं है। उस समय वे केवल आठ वर्ष के ही थे और इसी समय इनका एक मृत्यु योग भी था, वे व्याकुल हो उठे, कि कैसे संन्यास-ग्रहण किया जाए? दिन-प्रतिदिन उनके हृदय में संन्यास धारण करने की इच्छा प्रबल हो उठी, किन्तु जब माता के सामने इस प्रश्न को रखा, तो उन्होंने कहा- मेरे प्राण रहते तुम्हें संन्यासी नहीं होने दूंगी। वे इस कथन को सुनकर चिन्तित रहने लगे, क्योंकि जिस अद्वैत ब्रह्मात्य ज्ञान के प्रचार के लिए उनका शरीर धारण हुआ था, उसमें संन्यास ग्रहण अपरिहार्य था, उसके बिना अद्वैत ब्रह्म ज्ञान लाभ प्राप्त करना असम्भव था।
उन्हें चिन्तित देखकर मां ने भी संन्यासी होने की स्वीकृति प्रदान कर दी और तब उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण अभिलाषा पूर्ण हो गई। शंकराचार्य ने जिस समय संन्यास ग्रहण किया उस समय भारत में बौद्ध, तांत्रिक एवं कापालिक सम्प्रदायों के संरक्षण में स्वेच्छादार और पंचमकार साधना की आड़ में मांस, मदिरा, मैथुन आदि क्रिया होती थी। जप, पुण्य, धर्म, यज्ञ, शास्त्रचर्चा प्रायः लुप्त सी हो गई थी और विषयासक्ति ने भारतवर्ष को राहुग्रस्त चन्द्रमा की तरह निगल लिया था। तपस्तेजवान ब्रह्मावेत्ता ऋषियों ने गिरि-गुफाओं में आश्रम ग्रहण कर लिया था और साधारण मनुष्य विषयों और भोगों का दास मात्र बन गया था।
तब ऐसे समय में केरल प्रान्त के कालाड़ी ग्राम में जन्में आदि शंकराचार्य स्वरूप में शिवतेजोवीर्यदीप्त आदि शंकराचार्य का आविर्भाव भारत वर्ष में हुआ और उन्होंने भारत को वेदान्त शास्त्र का विजय मुकुट पहनाया। उन्होंने हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक और गान्धार से चट्टगाम तक के गांवों में घूम-घूम कर वैदान्तिक ब्रह्मज्ञान के विचार से भारतवर्ष को फिर जगाया। केवल 32 वर्ष की आयु में घूम-घूम कर न जाने कितने महामहोपाध्याय पण्डितों को शास्त्रार्थ में परास्त किया, अनेक भाष्य, वैदिक, ग्रंथ, सूत्र व टीकाओं स्तवनों की रचना की, इतना कर्ममय जीवन अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है।
शंकराचार्य ने ज्ञानवान लोगों के लिए सगुण बह्मोपासना और आमजन के लिए विष्णु, शिव आदि की प्रतीक उपासना की पद्धति प्रदान की। वहीं, उन्होंने मुमुक्षु व्यक्तियों के लिए संन्यास और ब्रह्मज्ञान की व्यवस्था भी की। चित्तशुद्धि के लिए अपने वर्णाश्रम के अनुसार निष्काम कर्म-विधियों का अनुमोदन किया। इस तरह सब प्रकार के व्यक्तियों ने उनके प्रचारित धर्म के उदार हृदय में स्थान पाकर अपने को धन्य समझा। यही कारण था, कि वे मात्र गुरु ही नहीं, जगद्गुरु कहला सके।
भगवान शंकराचार्य ने धर्म प्रचार के निमित्त वेदोक्त चार महाकाव्यों को अवलम्बन बनाकर भारतवर्ष के चार कोने पर चार बड़े मठों की स्थापना की। वहां उन्होंने चार प्रधान शिष्यों को आचार्य नियुक्त किया। शंकराचार्य ने अपनी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए प्रत्येक मठ को उन्होंने अपना स्वतंत्र क्षेत्र, देव, देवी, तीर्थ, वेद और महावाक्य का निर्देश दिया।
उत्तर में ज्योर्तिमठः क्षेत्र-बदरिकाश्रम, देव-नारायण, देवी-पुन्नगिरी, तीर्थ-अलकनन्दा, वेद-अथर्व, महावाक्य-अयामात्मा ब्रह्म।
दक्षिण में श्रृंगेरी मठः क्षेत्र-रामेश्वर, देव-आदि वराह, देवी-कामाख्या, तीर्थ-तुंगभद्रा, वेद-यजु, महावाक्य-अहं ब्रह्मस्मि।
पूर्व में गोवर्धन मठः क्षेत्र-पुरी, देव-जगन्नाथ, देवी-विमला, तीर्थ-महोदधि, वेद-ऋक्, महावाक्य-प्रज्ञानं ब्रह्म।
पश्चिम में शारदा मठः क्षेत्र-द्वारका, देव-सिद्धेश्वर, देवी-भद्रकाली, तीर्थ-गंगा व गोमती, वेद-साम, महावाक्य- तत्त्वमसि।
आदि शंकराचार्य ने चारों धामों पर एक-एक शिष्य- विश्वरूपाचार्य, पप्रपादचार्य, त्रेटकाचार्य एवं पृथ्वीधराचार्य को नियुक्त किया। मठ के प्रधान चार आचार्यों में विश्वरूपाचार्य ने तीर्थ तथा आश्रम नामक दो शिष्य, पप्रपादाचार्य ने वन और अरण्य नामक दो शिष्य, त्रेटकाचार्य ने गिरि, पर्वत, सागर नामक तीन शिष्य, तथा पृथ्वीधराचार्य के सरस्वती, भारती, पुरी नामक तीन शिष्य- सब मिलाकर इस समुदाय में शिष्यों द्वारा दस सम्प्रदाय बनें।
आजकल तीर्थ स्थानों में, वन-जंगलों में, पहाड़ों-पर्वतों में, गांव-शहरों में, देश-विदेशों में जो गेरुवाधारी संन्यासी दिखाई पड़ते हैं, वे सभी आदि शंकराचार्य की ही अपार महिमा को घोषित करते हुए, उनकी कीर्ति का परिचय दे रहे हैं। उसका पूर्व ऐसा नियम था, कि जीवन के प्रथम तीन भाग पूर्ण करने के बाद जीवन के अंतिम भाग में संन्यास आश्रम का अवलम्बन किया जा सकता था। किन्तु शंकराचार्य ने यह व्यवस्था दी, कि यथार्थ वैराग्य होने पर कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी आश्रम का ही क्यों न हो, तत्काल संन्यास ग्रहण कर सकता है।
ये संन्यासी प्रधानतः दो श्रेणियों में विभक्त हैं-एक दण्डीस्वामी और दूसरा परमहंस। प्रथम अवस्था में दण्डीस्वामी बनकर ब्रह्मज्ञान का विचार करें, फिर ब्रह्मस्वरूप की उपलब्धि होने पर परमहंस बनकर लोक शिक्षा, शास्त्र व्याख्या तथा जगत कल्याण में अपने को नियुक्त करें। ये संन्यासी हिन्दू समाज के सब सम्प्रदायों के गुरु माने जाते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि सभी सम्प्रदायों में वेद वेदान्त तथा पुराणों को सर्वोच्च प्रधानता दी जाती है और वे उन्हीं के नियमों व सूत्रों द्वारा परिचालित होते हैं, जो वेदव्यास द्वारा लिखित हैं। अतएव वेदव्यास हिन्दू समाज के सर्वसम्मत गुरु हैं। शुकदेवाचार्य उनके पुत्र व शिष्य हुए, उनके शिष्य हुए गौड़पादाचार्य और उनके शिष्य हुए गोविन्दापादाचार्य, उनके शिष्य हुए शंकराचार्य और वर्तमान के सभी संन्यासी सम्प्रदाय शिष्य-प्रशिष्य हैं।
जो सक्षम गुरु होते हैं, सद्गुरु होते हैं, वे अपने ज्ञान का विस्तार केवल अपने जीवनकाल तक ही सीमित नहीं रखते, अपितु आने वाले सैकड़ों हजारों वर्षों का उन पर उत्तरदायित्व होता है। पूज्यपाद शंकराचार्य जैसे अत्यन्त उच्चकोटि के परमहंस दो हजार वर्षों में मात्र एक बार ही पृथ्वी पर अवतरित होते हैं, परन्तु अपने लीला काल में ही वे आने वाले सैकड़ों पीढि़यों के लिए एक सुनिश्चित अध्यात्म पथ प्रशस्त कर जाते हैं और यह ज्ञान कोई पुस्तकीय ज्ञान नहीं होता, यह ज्ञान कोई ग्रंथों में नहीं लिखा होता, क्योंकि पुस्तकों के मृत पृष्ठों पर अंकित ज्ञान से जीवन में प्राण नहीं डाले जा सकते।
प्राण का संचार तो जीवित-जाग्रत चैतन्य गुरु ही कर सकते हैं। सद्गुरु के ये लक्षण होते हैं, कि वे अपने जीवन काल में ही अपने शिष्यों में से किसी को अपना स्थान प्रदान कर दें, अपने समान बना दें, जिससे आने वाला समय मात्र सद्गुरु की मन्दिरों में रखी तस्वीरों की आरती ही न उतारें, अपितु उनके ज्ञान का साक्षात लाभ उन्हीं सद्गुरुदेव की परम्परा के वर्तमान गुरुओं से प्राप्त करें। यही सद्गुरु की दूरदृष्टि होती है।
एक ही परम्परा के गुरुओं का सीधा सम्पर्क परम्परा के पूर्व द्वारा गुरु से हमेशा और निरन्तर बना ही रहता है, इसलिए जो चिन्तन आदि गुरु ने प्रतिपादित किया है, वह चिन्तन, वह ज्ञान मूल रूप में बिना परिवर्तित हुए, बिना विकृत हुए वैसे का वैसा ही गुरु परम्परा के बाद के गुरुओं में उतर जाता है।, यही कारण है, कि तिब्बत के लामाओं के पास आज भी अद्भुत विद्याएं सुरक्षित हैं, आज भी दलाई लामा (प्रधान लामा) शरीर छोड़ने से पूर्व अगले दलाई लामा कौन होगा, वह बालक कहां मिलेगा, कैसे मिलेगा, किस स्थान पर मिलेगा, आदि की सूचना देकर ही जाते हैं। सिक्ख धर्म में भी गुरु नानक के बाद कालान्तर में नौ गुरु और हुए और इस गुरु परम्परा ने सिक्ख धर्म को भारत में पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित कर एक ऐसे सशक्त धर्म को दिया जिसके अनुयायी आज भारतीय समाज में उच्च स्तर का जीवन जी रहे हैं। यदि सिक्ख धर्म में आज सम्पन्नता है, तो उसके पीछे दस गुरुओं की तेजस्विता गुरु परम्परा का आधार ही है।
नाथ योगियों की गुरु परम्परा में भी अनेक सिद्ध योगी गुरु हुए, जिनके प्रताप से आज भी साबर मंत्र जीवित हैं और आज भी नाथ योगियों की असाधारण शक्ति यदा कदा देखने को मिल जाती है। जब मंत्र, तंत्र साधना, ज्योतिष आदि को मात्र कल्पना जगत की ही वस्तु मान लिया गया था, तब सद्गुरुदेव ने अवतरित होकर जिस नवीन गुरु परम्परा का आरम्भ किया है वह गुरु परम्परा निश्चय ही निकट भविष्य में पूरे विश्व से अंधकार को उखाड़ फेंकेगी। जीवन के प्रारम्भ में सद्गुरुदेव ने जो संकल्प लिया था वह संकल्प आज लाखों-लाखों शिष्य निभा रहे हैं। प्रत्येक शिष्य सद्गुरु का एक बिम्ब ही तो है।
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